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जापानी और भारतीय चित्रकारों ने देखिए बिहार के स्कूल का क्या किया..

    • आईचौक
    • Updated: 31 मार्च, 2016 04:00 PM
  • 31 मार्च, 2016 04:00 PM
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इस वेलफेयर स्कूल को देखकर यकीन करना मुश्किल है कि ये देश के सबसे गरीब प्रदेश बिहार के एक छोटे से गांव में बसा है.

एक स्कूल ऐसा है जिसे देखकर आपके जेहन में बसी प्राथमिक विद्यालयों की छवि बदल जाएगी, आप अंदाजा भी नहीं लगा पाएंगे कि वो एक वेलफेयर स्कूल है. ये इतना खूबसूरत है कि यकीन करना मुश्किल है कि ये देश के सबसे गरीब प्रदेश बिहार के एक छोटे से गांव में बसा है.

 
 

बिहार में बोधगया के पास एक गांव है सुजाता, जहां 2006 में जापान की एक यूनिवर्सिटी के 50 छात्र घूमने आए थे, जिन्होंने यहां की खस्ताहाल शिक्षा व्यावस्था को देखकर अपने एनजीओ की तरफ से आर्थिक मदद की और 'निरांजना पब्लिक वेलफेयर ट्रस्ट' की मदद से इस स्कूल को बनवाया. तब से हर साल ये ट्रस्ट 'वॉल आर्ट फेस्टिवल' का आयोजन करता है जिसमें भारत और जापान के कलाकार हिस्सा लेते हैं. कैनवस के तौर पर स्कूल की दीवारों का इस्तेमाल किया जाता है और नतीजा आपके सामने है.

 

एक स्कूल ऐसा है जिसे देखकर आपके जेहन में बसी प्राथमिक विद्यालयों की छवि बदल जाएगी, आप अंदाजा भी नहीं लगा पाएंगे कि वो एक वेलफेयर स्कूल है. ये इतना खूबसूरत है कि यकीन करना मुश्किल है कि ये देश के सबसे गरीब प्रदेश बिहार के एक छोटे से गांव में बसा है.

 
 

बिहार में बोधगया के पास एक गांव है सुजाता, जहां 2006 में जापान की एक यूनिवर्सिटी के 50 छात्र घूमने आए थे, जिन्होंने यहां की खस्ताहाल शिक्षा व्यावस्था को देखकर अपने एनजीओ की तरफ से आर्थिक मदद की और 'निरांजना पब्लिक वेलफेयर ट्रस्ट' की मदद से इस स्कूल को बनवाया. तब से हर साल ये ट्रस्ट 'वॉल आर्ट फेस्टिवल' का आयोजन करता है जिसमें भारत और जापान के कलाकार हिस्सा लेते हैं. कैनवस के तौर पर स्कूल की दीवारों का इस्तेमाल किया जाता है और नतीजा आपके सामने है.

 
 
 

3 सप्ताह तक चलने वाले इस उत्सव के दौरान कलाकार बच्चों के साथ समय बिताते हैं, बच्चों और गांववालों के साथ बातचीत करते हैं, उनकी समस्याओं से रू-ब-रू होते हैं और उनके लिए वर्कशॉप आयोजित करते हैं. जिससे बच्चों और उनके माता-पिता की समस्याओं की थोड़ी निजात मिल सके.

 
 
 

स्कूल की दीवारों पर बने ये चित्र भारत की पारंपरिक वॉल पेंटिंग और जापानी लोक कला का मिला जुला रूप है.

 
 

बच्चों के जीवन की सबसे अहम जगह होती है उनका स्कूल. स्कूल का वातावरण भी बच्चों में शिक्षा के प्रति दिलचस्पी बढ़ाता है. और यही वजह है कि इस स्कूल के बच्चे हर रोज यहां आते हैं और मन लगाकर पढ़ते हैं.

 
 

बिहार के इस स्कूल की इमारत एक उदाहरण बनकर हमारे सामन खड़ी है, और इशारा कर रही है कि एक साकारत्मक सोच किसी भी स्कूल की काया पलट सकती है, क्योंकि न भारत में कलाकारों की कमी है और न ही इतने बड़े कैनवस की...कमी है तो बस सोच की.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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