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दुष्कर्मी का चेहरा मत ढंकिए, उसे सबको देख लेने दीजिए...

    • धीरेंद्र राय
    • Updated: 22 जुलाई, 2015 04:10 PM
  • 22 जुलाई, 2015 04:10 PM
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रविंदर कुमार, सुरिंदर कोली और शिवकुमार में एक ही बात कॉमन है. उन्हें पिछले अपराध के कारण पहचाने जाने का डर नहीं था.

वो रोज निकलता था बच्चों की तलाश में... दो से 12 साल तक के बच्चे... जैसे ही कोई हाथ लगता वह उसे सूनसान में ले जाता... वे निरीह मुकाबले के नाम पर सिर्फ हाथ पकड़ते... लेकिन उस निर्दयी को यह संघर्ष भी गंवारा नहीं था और वह उनका गला दबा देता... और फिर लाशों के साथ दुष्कर्म करता.

दिल्ली का रहने वाला रविंदर कुमार जब अपनी दरिंदगी बयां करता है तो हर किसी के रोंगटे खड़े हो जाएंगे. और उनका तो हाल ही मत पूछिए जिनके बच्चे दो से 12 साल के बीच हैं. मैं जहां रहता हूं, वहां से निठारी 5 किमी दूर है और पश्च‍िमी दिल्ली से 20 किमी. जहां सुरिंदर कोली या रविंदर जैसे लोग 'ऑपरेट' करते रहे हैं.

रविंदर की बात पर भरोसा करें तो वह कभी भी किसी एक जगह पर दो से तीन महीने में रहा. फिर ठिकाना बदल दिया. जहां एक बार शिकार किया, वहां दोबारा नहीं गया. ताकि किसी को शक न हो. वह अपनी भूख मिटाने के लिए कई बार बस से सफर करता और कई किमी दूर तक चला जाता.

तो ऐसे अपराधों के लिए इलाके को दोषी ठहराना ठीक नहीं है. दुष्कर्मियों का स्थाई पता नहीं होता. हो सकता है कि उनमें से कोई मेरे बच्चे, या मेरे दोस्त या रिश्तेदार के बच्चे के नजदीक से भी गुजरा हो. तो मैं क्या इसे भगवान का शुक्र मानूं कि वे बच गए. ऐसा मानकर भी तो निश्च‍िंत नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि किसी न किसी ने तो बच्चा खोया ही है.

दिल्ली को रेप कैपिटल के रूप में कुख्यात कर दिया गया. महिलाओं की सुरक्षा को लेकर उपाय किए जाने लगे. लेकिन बच्चों के लिए क्या किया जाएगा. जिस उम्र में उनका ध्यान पढ़ने और खेलने में होना चाहिए, उस उम्र में उन्हें सिखाना पड़ रहा है कि बेटा, मम्मी-पापा से दूर मत जाया करो. बच्चे पर हर पल निगाह रखना पड़ती है. डर में कैद होकर रह गया बचपन. और आजाद-बखौफ है अपराधी.

अब वापस खबर पर आते हैं. रविंदर को अदालत में पेश किया गया. पूरे देश ने यह खबर टीवी पर देखी. रविंदर का चेहरा ढंका हुआ था. कानूनी पेंच है. पीडि़तों और गवाहों से उसके चेहरे की पहचान कराई जाना है इसलिए. लेकिन, यहीं...

वो रोज निकलता था बच्चों की तलाश में... दो से 12 साल तक के बच्चे... जैसे ही कोई हाथ लगता वह उसे सूनसान में ले जाता... वे निरीह मुकाबले के नाम पर सिर्फ हाथ पकड़ते... लेकिन उस निर्दयी को यह संघर्ष भी गंवारा नहीं था और वह उनका गला दबा देता... और फिर लाशों के साथ दुष्कर्म करता.

दिल्ली का रहने वाला रविंदर कुमार जब अपनी दरिंदगी बयां करता है तो हर किसी के रोंगटे खड़े हो जाएंगे. और उनका तो हाल ही मत पूछिए जिनके बच्चे दो से 12 साल के बीच हैं. मैं जहां रहता हूं, वहां से निठारी 5 किमी दूर है और पश्च‍िमी दिल्ली से 20 किमी. जहां सुरिंदर कोली या रविंदर जैसे लोग 'ऑपरेट' करते रहे हैं.

रविंदर की बात पर भरोसा करें तो वह कभी भी किसी एक जगह पर दो से तीन महीने में रहा. फिर ठिकाना बदल दिया. जहां एक बार शिकार किया, वहां दोबारा नहीं गया. ताकि किसी को शक न हो. वह अपनी भूख मिटाने के लिए कई बार बस से सफर करता और कई किमी दूर तक चला जाता.

तो ऐसे अपराधों के लिए इलाके को दोषी ठहराना ठीक नहीं है. दुष्कर्मियों का स्थाई पता नहीं होता. हो सकता है कि उनमें से कोई मेरे बच्चे, या मेरे दोस्त या रिश्तेदार के बच्चे के नजदीक से भी गुजरा हो. तो मैं क्या इसे भगवान का शुक्र मानूं कि वे बच गए. ऐसा मानकर भी तो निश्च‍िंत नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि किसी न किसी ने तो बच्चा खोया ही है.

दिल्ली को रेप कैपिटल के रूप में कुख्यात कर दिया गया. महिलाओं की सुरक्षा को लेकर उपाय किए जाने लगे. लेकिन बच्चों के लिए क्या किया जाएगा. जिस उम्र में उनका ध्यान पढ़ने और खेलने में होना चाहिए, उस उम्र में उन्हें सिखाना पड़ रहा है कि बेटा, मम्मी-पापा से दूर मत जाया करो. बच्चे पर हर पल निगाह रखना पड़ती है. डर में कैद होकर रह गया बचपन. और आजाद-बखौफ है अपराधी.

अब वापस खबर पर आते हैं. रविंदर को अदालत में पेश किया गया. पूरे देश ने यह खबर टीवी पर देखी. रविंदर का चेहरा ढंका हुआ था. कानूनी पेंच है. पीडि़तों और गवाहों से उसके चेहरे की पहचान कराई जाना है इसलिए. लेकिन, यहीं से एक सवाल उठता है. क्या रविंदर जैसे दुष्कर्मियों का चेहरा सिर्फ पीड़ितों के लिए ही देखना जरूरी है. या उनके लिए भी जो उसके अगले शिकार हो सकते हैं. यहां एक पुराने मामले का जिक्र करना जरूरी है. पिछले दिनों दिल्ली में ही एक टैक्सी में बैठी युवती के साथ ड्राइवर शि‍वकुमार यादव ने दुष्कर्म किया. खबर मिलने पर खूब हंगामा हुआ. पता चला कि ड्राइवर आदतन दुष्कर्मी है. वह उत्तरप्रदेश के जिस गांव का रहने वाला है, वहां की हर महिला के जुबां पर उसकी दरिंदगी के किस्से हैं. दुष्कर्म के कई केस दर्ज हैं. कुख्यात होने के कारण ही वह गांव छोड़कर दिल्ली आ गया. यहां ड्राइविंग लाइसेंस ले लिया और टैक्सी चलाने लगा. और उसी में अपने शिकार ढूंढने लगा. अब एक बार फिर कानूनी प्रक्रिया पर आते हैं. शिवकुमार को भी कभी दुष्कर्म के मामले में मुंह ढंककर अदालत में लाया गया होगा. कुछ दिन वह जेल में भी रहा होगा. फिर पता नहीं कब उसे जमानत मिल गई होगी. उसने अपना ठि‍काना बदला और खुला चेहरा लिए फिर दुष्कर्म करने लगा.

रविंदर कुमार, सुरिंदर कोली और शिवकुमार में एक ही बात कॉमन है. उन्हें पिछले अपराध के कारण पहचाने जाने का डर नहीं था. दुष्कर्म के मामलों में पुलिस का एक सधा से जवाब होता है कि ये मानसिकता से जुड़ा अपराध है और पुलिस अपराधी को पकड़कर उसे जल्द से जल्द से सजा दिलवाने में अपनी भूमिका बखूबी निभाती है. लेकिन, क्या ये जरूरी नहीं कि ऐसी मानसिकता वाले लोगों की पहचान सार्वजनिक हो. वे देश में कहीं भी जाएं, उनकी पहचान उनके साथ चले.

फिर एक खबर पर आते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने फैसला किया है कि क्राइम एंड क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क सिस्टम को 2017 तक खड़ा कर देंगे. इस सिस्टम में किसी भी थाने में दर्ज एफआईआर को देश में कहीं से भी ट्रैक किया जा सकेगा. लेकिन, ये तो हुई डेटाबेस की बात. जो किसी अपराधी के पकड़े जाने पर काम आती है, यह पता करने में कि उस पर और कहां-कहां अपराध दर्ज हैं. हमारे आसपास रहने वालों में से तो ऐसा कोई नहीं है, यह कैसे पता चलेगा. क्या सिर्फ अमेरिका में ही यह सिस्टम हो सकता है कि एक नागरिक का सोशल आईडी नंबर उसकी पूरी जन्म कुंडली बता देता है कि उसने अपने जीवन में क्या-क्या तीर मारे हैं.

रविंदर जैसे दरिंदों को अच्छी तरह पहचान लेना क्यों जरूरी है, इसका अंदाजा आपको रविंदर के इंटरव्यू से ही चल जाएगा. जिसकी कुछ मोटी बातें इस प्रकार हैं--शराब पीते ही मुझे कुछ हो जाता था.-मैं इंसान नहीं हूं.-अभी 24 साल का हूं और 17 साल की उम्र से कर रहा हूं ये सब.-मैंने अपने जानने वालों के बच्चों को भी नहीं छोड़ा.-मुझे ठीक-ठीक याद नहीं की मैंने कितने बच्चों को मारा.-जैसे-जैसे याद आएगा, लाशों की गिनती बताता जाऊंगा.-सारे बच्चों को सुनसान जगह पर मारा.-बाद में लाश पेंक कर दूर चला जाता था.-बिलकुल छोटे बच्चों को भी नहीं छोड़ा.

रविंदर कहता है कि उसे लाशों से दुष्कर्म करने का कोई मलाल नहीं है तो यह बिलकुल सच मान लेना चाहिए कि उसका शरीर ही इंसान का था. बाकी वह पूरी तरह दरिंदा था. अकेली दिल्ली में ही रोज 18 बच्चे लापता होते हैं, जिनमें चार कभी नहीं मिलते. सिर्फ दिल्ली ही नहीं, ये आंकड़ा देश के हर छोटे-बड़े शहर में मिलता है. थोड़ा छोटा-बड़ा होकर. और हां, रविंदर, सुरिंदर और शिवकुमार वहां भी रहते हैं. उनकी पहचान सार्वजनिक होना जरूरी है. उस पहचान के डर से ही कुछ हो सकता है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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