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पता नहीं क्यों...दाल अब अच्छी नहीं लगती मुझको

    • पारुल चंद्रा
    • Updated: 14 अक्टूबर, 2015 08:00 PM
  • 14 अक्टूबर, 2015 08:00 PM
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देश इन दिनों भयंकर महंगाई की मार झेल रहा है, ये आम आदमी का सबसे कठिन दौर है. सोना तपकर ही कुंदन बनता है...शायद इससे लोगों में कम खाकर जिंदा रहने की प्रवृत्ति भी उत्पन्न हो जाए.

बर्बाद-ए-दिल का आखिरी सरमाया थी उम्मीद, वो भी तो तुमने छीन लिया मुझ गरीब से..

गरीब आदमी के जीने का सहारा दो वक्त की दाल रोटी, अब छिनती नज़र आने लगी है. अच्छे दिनों के सपने देख रहे इंसान ने सपने में भी ये नहीं सोचा होगा कि साधारण दाल के दाम चिकन और मटन से भी ज़्यादा हो जाएंगे. गरीब इंसान आज दाल छोड़कर चटनी के साथ रोटी खाने लगा, मेरे देश का गरीब आज और भी गरीब नज़र आने लगा.

अब तक सुनते आए थे कि घर की मुर्गी दाल बराबर... पर कुछ दिन पहले ही हम लोगों ने इस कहावत को सच साबित होते हुए देखा. दाल और चिकन की कीमतें बराबरी पर थीं, दोनों 150 रपए किलो हो गए थे. पर अब देश का आम आदमी दाल नहीं खा पा रहा क्योंकि दाल अब चिकन से भी महंगी हो गई है. चिकन 150 रुपए और दाल की कीमत 180 रुपए के पार है. पहले गरीब आदमी बेचारा यही कहता था दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ. इस कहावत में एक निश्चिंतता दिखाई देती थी, किसी सादा खाओ और स्वस्थ रहो. पर आज दाल रोटी खाकर वास्तव में प्रभु ही याद आ रहे हैं.

चार लोगों के एक मध्यमवर्गीय परिवार में करीब एक कटोरी दाल हर रोज बना करती थी. लेकिन अब आम आदमी हर रोज दाल नहीं खा पाता. अब दाल हफ्ते में एक दो बार से ज्यादा नहीं बनती. एक कटोरी दाल की बजाए अब घर चलाने वाली महिलाएं दो मुट्ठी में ही काम चला लेती हैं. घर में सबके खाना खाने के बाद खाना खाने वाली महिलाओं ने तो ये कहकर दाल खाना बंद कर दिया है कि- 'पता नहीं क्यों, दाल अब अच्छी नहीं लगती मुझको.' 

70 से 80 रुपए में मिलने वाली दाल आज 180 से 200 रुपए किलो मिल रही है. ऐसे में लोग सोचते हैं कि दाल पर पैसे क्यों लगाएं जाएं, जब 150 रुपए में किलो भर चिकन दो दिन आराम से चल सकता है. लोग महंगाई के इस उलटफेर से परेशान हैं, और इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ रही है शाकाहारियों पर. शाकाहार करने वाले लोग सादी दाल, रोटी और चावल में खुश रहा करते थे. लेकिन बेलगाम महंगाई का कहर सब्जियों पर भी बराबरी से पड़ रहा है. फल और सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं और रही सही कसर दाल में...

बर्बाद-ए-दिल का आखिरी सरमाया थी उम्मीद, वो भी तो तुमने छीन लिया मुझ गरीब से..

गरीब आदमी के जीने का सहारा दो वक्त की दाल रोटी, अब छिनती नज़र आने लगी है. अच्छे दिनों के सपने देख रहे इंसान ने सपने में भी ये नहीं सोचा होगा कि साधारण दाल के दाम चिकन और मटन से भी ज़्यादा हो जाएंगे. गरीब इंसान आज दाल छोड़कर चटनी के साथ रोटी खाने लगा, मेरे देश का गरीब आज और भी गरीब नज़र आने लगा.

अब तक सुनते आए थे कि घर की मुर्गी दाल बराबर... पर कुछ दिन पहले ही हम लोगों ने इस कहावत को सच साबित होते हुए देखा. दाल और चिकन की कीमतें बराबरी पर थीं, दोनों 150 रपए किलो हो गए थे. पर अब देश का आम आदमी दाल नहीं खा पा रहा क्योंकि दाल अब चिकन से भी महंगी हो गई है. चिकन 150 रुपए और दाल की कीमत 180 रुपए के पार है. पहले गरीब आदमी बेचारा यही कहता था दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ. इस कहावत में एक निश्चिंतता दिखाई देती थी, किसी सादा खाओ और स्वस्थ रहो. पर आज दाल रोटी खाकर वास्तव में प्रभु ही याद आ रहे हैं.

चार लोगों के एक मध्यमवर्गीय परिवार में करीब एक कटोरी दाल हर रोज बना करती थी. लेकिन अब आम आदमी हर रोज दाल नहीं खा पाता. अब दाल हफ्ते में एक दो बार से ज्यादा नहीं बनती. एक कटोरी दाल की बजाए अब घर चलाने वाली महिलाएं दो मुट्ठी में ही काम चला लेती हैं. घर में सबके खाना खाने के बाद खाना खाने वाली महिलाओं ने तो ये कहकर दाल खाना बंद कर दिया है कि- 'पता नहीं क्यों, दाल अब अच्छी नहीं लगती मुझको.' 

70 से 80 रुपए में मिलने वाली दाल आज 180 से 200 रुपए किलो मिल रही है. ऐसे में लोग सोचते हैं कि दाल पर पैसे क्यों लगाएं जाएं, जब 150 रुपए में किलो भर चिकन दो दिन आराम से चल सकता है. लोग महंगाई के इस उलटफेर से परेशान हैं, और इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ रही है शाकाहारियों पर. शाकाहार करने वाले लोग सादी दाल, रोटी और चावल में खुश रहा करते थे. लेकिन बेलगाम महंगाई का कहर सब्जियों पर भी बराबरी से पड़ रहा है. फल और सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं और रही सही कसर दाल में लगे इस तड़के ने पूरी कर दी है. यही हालात रहे तो अच्छे दिन के सपनों के साथ-साथ दाल खाने का सपना भी सपना ही बनकर रह जाएगा और दाल रोटी सिर्फ अमीरों की थाली में नजर आएगी.

देश इन दिनों भयंकर महंगाई की मार झेल रहा है, ये आम आदमी का सबसे कठिन दौर है. सोना तपकर ही कुंदन बनता है...शायद इससे लोगों में कम खाकर जिंदा रहने की प्रवृत्ति भी उत्पन्न हो जाए. लेकिन आम आादमी है न, सपने देखना कभी नहीं छोड़ता... वाह रे अच्छे दिन. 

 

 

 

 

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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