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सफाई सोच में होनी चाहिए...

    • नरेंद्र सैनी
    • Updated: 02 अक्टूबर, 2015 06:32 PM
  • 02 अक्टूबर, 2015 06:32 PM
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बेशक भारत में शौचालयों की कमी और कूडेदान का अभाव गंदगी की एक बड़ी वजह हो सकती है, लेकिन सबसे बड़ी चीज सिविक सेंस का घोर अभाव है.

एक छह साल का बच्चा अपने माता-पिता के साथ चॉकलेट खाता हुआ बड़े मजे से चला जा रहा था. मैं उससे कुछ ही दूरी पर घूम रहा था. उसकी चॉकलेट लगभग खत्म होने वाली थी, और मैं उत्सुकता से देख रहा था कि वह चॉकलेट का रैपर को कहां फेंकेगा. थोड़ी देर बाद उसने चॉकलेट खत्म की, इधर-उधर देखा और उसे कोई डस्टबीन नजर नहीं आया. उसके पिता ने जेब से टिश्यू पेपर निकाला और रैपर को उसमें लपेटकर जेब में रख लिया. थोड़ा आगे मुड़ने पर डस्टबीन आया तो पिता ने वह रैपर उसमें डाल दिया.

यह मिसाल अमेरिका के कैलिफोर्निया के एक शहर की है. जहां सड़कों पर कड़ा या कचरा कतई नजर नहीं आता है. पॉश से लेकर मध्यवर्गीय इलाकों तक में साफ-सफाई ऐसी की हैरत में पड़ जाएं. पार्क हो या बाजार, घर हो या बाहर, जंगल हो या खाली सड़क. कचरा कहीं भी नहीं. हॉलीवुड की गलियों से लेकर लॉस एंजिलिस के चाइना टाउन तक या फिर सुनसान ग्रैंड कैनयन हो या फिर रोमांच और रंगीनियों से भरा शहर लॉस वेगास.

हर जगह चकाचक. सार्वजनिक स्थानों पर स्त्री-पुरुषों के लिए पर्याप्त रूप से मुफ्त में शौचालय और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रखे डस्टबीन, इस सफाई को आगे बढ़ाने में काफी योगदान करते हैं.

बतौर भारतीय यह बात मेरे लिए काफी हैरान करने वाली थी क्योंकि सभी लोग कानून का सम्मान करते नजर आए. कह सकते हैं कि एक विकासशील देश होने के नाते या फिर क्षेत्रफल के आधार पर छोटे और जनसंख्या के आधार पर दुनिया में दूसरे नंबर पर होने की वजह से हम अमेरिका से तुलना नहीं कर सकते, लेकिन हरेक भारतीय के दिल में अमेरिकी ख्वाब जरूर होता है.

भारत में पिछले एक साल में स्वच्छ भारत के नाम पर करोड़ों रुपये विज्ञापनों और कई तरह के प्रतीकात्मक कार्यक्रमों पर खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन नतीजा अब भी सिफर ही है. सिर्फ एक अमेरिकी ख्वाब दिया जा रहा है.

कैलिफोर्निया की साफ-सुथरी सड़क पर चलते हुए, यह सब विचार मेरे अंदर हिलोरे मार रहे थे. तभी दिमाग में कौंधा, बेशक भारत में शौचालयों की कमी और कूडेदान का अभाव गंदगी की एक बड़ी वजह हो सकती है,...

एक छह साल का बच्चा अपने माता-पिता के साथ चॉकलेट खाता हुआ बड़े मजे से चला जा रहा था. मैं उससे कुछ ही दूरी पर घूम रहा था. उसकी चॉकलेट लगभग खत्म होने वाली थी, और मैं उत्सुकता से देख रहा था कि वह चॉकलेट का रैपर को कहां फेंकेगा. थोड़ी देर बाद उसने चॉकलेट खत्म की, इधर-उधर देखा और उसे कोई डस्टबीन नजर नहीं आया. उसके पिता ने जेब से टिश्यू पेपर निकाला और रैपर को उसमें लपेटकर जेब में रख लिया. थोड़ा आगे मुड़ने पर डस्टबीन आया तो पिता ने वह रैपर उसमें डाल दिया.

यह मिसाल अमेरिका के कैलिफोर्निया के एक शहर की है. जहां सड़कों पर कड़ा या कचरा कतई नजर नहीं आता है. पॉश से लेकर मध्यवर्गीय इलाकों तक में साफ-सफाई ऐसी की हैरत में पड़ जाएं. पार्क हो या बाजार, घर हो या बाहर, जंगल हो या खाली सड़क. कचरा कहीं भी नहीं. हॉलीवुड की गलियों से लेकर लॉस एंजिलिस के चाइना टाउन तक या फिर सुनसान ग्रैंड कैनयन हो या फिर रोमांच और रंगीनियों से भरा शहर लॉस वेगास.

हर जगह चकाचक. सार्वजनिक स्थानों पर स्त्री-पुरुषों के लिए पर्याप्त रूप से मुफ्त में शौचालय और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रखे डस्टबीन, इस सफाई को आगे बढ़ाने में काफी योगदान करते हैं.

बतौर भारतीय यह बात मेरे लिए काफी हैरान करने वाली थी क्योंकि सभी लोग कानून का सम्मान करते नजर आए. कह सकते हैं कि एक विकासशील देश होने के नाते या फिर क्षेत्रफल के आधार पर छोटे और जनसंख्या के आधार पर दुनिया में दूसरे नंबर पर होने की वजह से हम अमेरिका से तुलना नहीं कर सकते, लेकिन हरेक भारतीय के दिल में अमेरिकी ख्वाब जरूर होता है.

भारत में पिछले एक साल में स्वच्छ भारत के नाम पर करोड़ों रुपये विज्ञापनों और कई तरह के प्रतीकात्मक कार्यक्रमों पर खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन नतीजा अब भी सिफर ही है. सिर्फ एक अमेरिकी ख्वाब दिया जा रहा है.

कैलिफोर्निया की साफ-सुथरी सड़क पर चलते हुए, यह सब विचार मेरे अंदर हिलोरे मार रहे थे. तभी दिमाग में कौंधा, बेशक भारत में शौचालयों की कमी और कूडेदान का अभाव गंदगी की एक बड़ी वजह हो सकती है, लेकिन सबसे बड़ी चीज सिविक सेंस का घोर अभाव है. भारत में जहां बच्चों को होश संभालते ही इंजीनियर, डॉक्टर बनने के लिए कहा जाता है, और अंग्रेजी, साइंस और मैथ्स जैसे विषयों पर जोर रहता है.

साथ ही समाज और उससे जुड़ी चीजों को बहुत ही संकुचित सोच के साथ पढ़ाया जाता है वहीं अमेरिकी बच्चों को सबसे पहली बात उनके मौलिक कर्तव्यों और अधिकारों की बात ही पढ़ाई जाती है. माता-पिता और स्कूल की कोशिश बच्चों को कामयाब के साथ एक जिम्मेदार नागरिक बनाने की भी होती है.

यह सिविक सेंस का अभाव हमें अक्सर मेट्रो ट्रेन आते ही क्यू को भूलकर भागकर चढ़ने या फिर ऑफिस की लिफ्ट के आने पर किसी दूसरे को ओवरटेक कर खुद सवार हो जाने या फिर जरा-सा यह भाव आना कि हमें कोई नहीं देख रहा के समय साफ झलक जाता है.

यह सब बातें मैं सोचता ही जा रहा था कि तभी सामने सड़क पार करने वालों की रेड लाइट ग्रीन हो गई और एक किशोर जो मुझे वहां पहले से खड़ा देख नहीं सका मुझ से पहले सड़क पार करने लगा. मैं भी चलने लगा तो अचानक वह रुका, उसे अपनी गलती का एहसास हुआ, वह मेरी ओर मुड़ा और उसने मुझे सॉरी कहा और मेरे पीछे चला गया ताकि मैं पहले सड़क पार करूं क्योंकि मैं पहले आया था...

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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