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मातृत्व महान हो या नहीं पर सहज जरुर होना चाहिए

    • सोनाली मिश्र
    • Updated: 14 मई, 2017 02:03 PM
  • 14 मई, 2017 02:03 PM
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मां बनते समय स्त्री एक ऐसे दौर से गुजरती है, जिसमें मिक्स्ड इमोशन होते हैं. भगवान के लिए, माँ को भगवान का दर्जा दें या न दें, उसे यह अधिकार तो दें, कि वह कब माँ बनना चाहती है.

माँ, एक ऐसा शब्द है जो चाशनी घोलता है. माँ एक ऐसा शब्द जिसके आगे सारे शब्द और सारा संसार बौना हो जाता है. और माँ एक ऐसा शब्द है, दुर्भाग्य से जो स्त्री के लिए सबसे अनमोल होते हुए भी कहीं न कहीं उसके अस्तित्व को एक छलावे में छलने वाला है. स्त्री और उसके बच्चे के बीच प्यार एक ऐसी कड़ी है, जिसकी तुलना किसी भी प्रेम से नहीं हो सकती है.

स्त्री अपना बना बनाया कैरियर छोड़कर सहज ही अपने बच्चे के लिए घर बैठ जाती है. वहां वह यह नहीं सोचती कि उसकी एक पहचान थी, उसका अपना एक कैरियर था या उसके लिए एक खुला आकाश था. वह बस अपने बच्चे की सही परवरिश के लिए सब कुछ छोड़ देती है, यहाँ तक कि कभी कभी अपनी सोच भी! स्त्री के मन में शुरू से ही यह बात दिमाग का स्क्रू खोल खोल डाली जाती है कि उसके जीवन की सार्थकता केवल विवाह करने और माँ बनने में है. उसके अपने सपने और अपना अस्तित्व केवल एक शब्द के इर्दगिर्द ही सीमित कर दिए जाते हैं. उसका कितना भी अच्छा कैरियर हो, उसकी सारी सफलता केवल इसी बात पर निर्भर करती है कि रोटियाँ कितनी गोल बनाई और बच्चे के मार्क्स कैसे आए! बाकी उसकी हर उपलब्धि सवालों के घेरे में! अगर बच्चा ऊंची जुबान में बात करता है, वहीं उसकी सारी शिक्षा समाज की निगाहों में बेकार!

मां बनना आसान नहीं

आज मदर्स डे पर मैं हर उस लड़की को सलाम करना चाहती हूँ, जो अपने सारे सपने भुलाकर, अपनी सारी कुंठाओं को खुद तक ही समेट कर, खुद को धुंआ धुंआ कर लेती है. उसके धुंआ धुंआ होने में बहुत कुछ भस्म होता है, उसकी आज़ादी! माँ बनते ही उसकी गोद में एक सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी डाल दी जाती है. माँ के त्याग के किस्से उसके कानों में डाले जाने लगते हैं 'फलाने के बहू तो पच्चास हज़ार कमा रही थी, मगर देखो बच्चा होते ही छोड़ दिया सब कुछ, अब कैसे घर पर दिन भर रहती है!' 'अरे बहू, पैसा...

माँ, एक ऐसा शब्द है जो चाशनी घोलता है. माँ एक ऐसा शब्द जिसके आगे सारे शब्द और सारा संसार बौना हो जाता है. और माँ एक ऐसा शब्द है, दुर्भाग्य से जो स्त्री के लिए सबसे अनमोल होते हुए भी कहीं न कहीं उसके अस्तित्व को एक छलावे में छलने वाला है. स्त्री और उसके बच्चे के बीच प्यार एक ऐसी कड़ी है, जिसकी तुलना किसी भी प्रेम से नहीं हो सकती है.

स्त्री अपना बना बनाया कैरियर छोड़कर सहज ही अपने बच्चे के लिए घर बैठ जाती है. वहां वह यह नहीं सोचती कि उसकी एक पहचान थी, उसका अपना एक कैरियर था या उसके लिए एक खुला आकाश था. वह बस अपने बच्चे की सही परवरिश के लिए सब कुछ छोड़ देती है, यहाँ तक कि कभी कभी अपनी सोच भी! स्त्री के मन में शुरू से ही यह बात दिमाग का स्क्रू खोल खोल डाली जाती है कि उसके जीवन की सार्थकता केवल विवाह करने और माँ बनने में है. उसके अपने सपने और अपना अस्तित्व केवल एक शब्द के इर्दगिर्द ही सीमित कर दिए जाते हैं. उसका कितना भी अच्छा कैरियर हो, उसकी सारी सफलता केवल इसी बात पर निर्भर करती है कि रोटियाँ कितनी गोल बनाई और बच्चे के मार्क्स कैसे आए! बाकी उसकी हर उपलब्धि सवालों के घेरे में! अगर बच्चा ऊंची जुबान में बात करता है, वहीं उसकी सारी शिक्षा समाज की निगाहों में बेकार!

मां बनना आसान नहीं

आज मदर्स डे पर मैं हर उस लड़की को सलाम करना चाहती हूँ, जो अपने सारे सपने भुलाकर, अपनी सारी कुंठाओं को खुद तक ही समेट कर, खुद को धुंआ धुंआ कर लेती है. उसके धुंआ धुंआ होने में बहुत कुछ भस्म होता है, उसकी आज़ादी! माँ बनते ही उसकी गोद में एक सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी डाल दी जाती है. माँ के त्याग के किस्से उसके कानों में डाले जाने लगते हैं 'फलाने के बहू तो पच्चास हज़ार कमा रही थी, मगर देखो बच्चा होते ही छोड़ दिया सब कुछ, अब कैसे घर पर दिन भर रहती है!' 'अरे बहू, पैसा तो फिर भी कमा लोगी, ये बच्चा उसका क्या?'

स्त्री एक अच्छी माँ का तमगा पाने के लिए क्या नहीं करती, वह अच्छी औरत बनने के लिए क्या क्या नहीं करती, मगर सब व्यर्थ? सब जैसे थाली में फैले पानी की तरह हो जाता है, एकदम बेकार! माँ एक असहनीय प्रसव पीड़ा के बाद जब अपने बच्चे को गोद में लेती है, तो उसकी आँखों से निकलने वाले आंसू को सहज समझा नहीं जा सकता है. हमारे समाज में इस भावना को कोई भी नाम देने से बचा जाता है, हमारे यहाँ यह भी परिवार के प्रति स्त्री का उत्तरदायित्व है कि वह एक बच्चा दे. माँ बनने के बाद उसे एक उच्च पदवी प्रदान कर दी जाती है, बच्चों में मूल्यों की संवाहक के रूप में उसे स्थापित किया जाता है.

मुझे मातृत्व को लार्जर देन लाइफ घोषित करने से दिक्कत है. मैं चाहती हूँ, कि माँ बनना एक स्त्री के लिए सहज क्रिया हो, जीवन के एक चरण से दूसरे चरण में सहज परावर्तन! जिस तरह शादी कहीं न कहीं सामाजिक दबाव का हिस्सा होती है, उसी तरह मातृत्व भी सामाजिक दबाव के चलते न हो! आज की स्थिति में कितनी स्त्रियाँ दिमाग से माँ बनने के लिए तैयार होती हैं? माँ बनने का रोमांटिसिज्म उनके दिमाग में भर दिया जाता है, वे उससे कब बाहर निकलती हैं? कितनी शादियों में स्त्री के माँ बनने के बाद दरार नहीं आती? कितने पुरुष हैं जो इस परिवर्तन के चरण को सहज लेते हैं? सरिता और गृहशोभा जैसी पत्रिकाओं में उलझन में पुरुषों का एक ही सवाल कई बरसों से चला आ रहा है 'बच्चा होने के बाद बीवी सेक्स नहीं करने देती! मैं बहुत परेशान हूँ!'

पुरुष के पास पूरी आज़ादी है परेशान होने की! मगर स्त्री के पास? उसके पास समाज के द्वारा और खुद उसके पति के द्वारा थोपे गए इस मातृत्व की कितनी परेशानी है? माँ बनना एक स्त्री के लिए एक पुनर्जन्म की तरह होता है, जरा सी लापरवाही उसकी जान ले सकती है. कभी बच्चे में प्रोटीन की कमी, कभी बच्चा पेट में टेढा और कभी उसकी जान केवल इसलिए खतरे में पड़ती है क्योंकि आज के समय में कॉम्प्लिकेशन के चलते डॉ. ऑपरेशन करना चाहती है और पति ने सुन रखा है, ऑपरेशन के बाद मजा नहीं आता तो वह येन केन प्रकारेण बच्चे को नॉर्मल करना चाहता है. ऐसी स्थिति में दाई ही हाथ डालकर बच्चे की स्थिति का पता करती है, और उसके पंद्रह दिनों के बाद ही पति सरिता और गृह शोभा जैसी पत्रिकाओं में सेक्स में पत्नी का मन न लगे तो क्या करें जैसे लेख पढ़ने लग जाता है.

स्त्री उस समय एक ऐसे दौर से गुजरती है, जिसमें मिक्स्ड इमोशन होते हैं. भगवान के लिए, माँ को भगवान का दर्जा दें या न दें, उसे यह अधिकार तो दें, कि वह कब माँ बनना चाहती है. उससे पूछें कि क्या वह माँ बनने के लिए मन से या शरीर से तैयार है?

स्त्री के लिए एक पत्नी से माँ बनना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है. उसे इस चरण में रूपांतरित होने की प्रक्रिया को समाज को सहज करना चाहिए, मातृत्व महान हो या नहीं, यह तो नहीं पता मगर मातृत्व सहज होना चाहिए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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