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देश में आज ही मर गए 3000 बच्चे ! कोई खबर मिली...

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 16 अगस्त, 2017 02:10 PM
  • 16 अगस्त, 2017 02:10 PM
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गोरखपुर में जो होना था हो चुका है. और इसी बीच हम न्यू इंडिया की तरफ बढ़ रहे हैं. न्यू इंडिया की तरफ बढ़ते हुए हमने चिकित्सा, स्वास्थ्य जैसी उन बातों को नकार दिया जो हमारे लिए बहुत जरूरी थी.

गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में, शासन की लापरवाही के चलते जापानी इन्सेफेलाइटिस से 60 से ऊपर बच्चों की मौत हो चुकी है. इन मौतों के बाद इस देश के एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर हम लगातार उत्तर प्रदेश सरकार, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और लचर तंत्र को कोसे जा रहे हैं और ये मान बैठे हैं कि जो हुआ है वो लापरवाही की पराकाष्ठा है. एक हद तक देखा जाए तो ये वो सच है जिसे नाकारा नहीं जा सकता.

न्यू इंडिया की बड़ी-बड़ी बातों के बीच, अगर हम ये सुनें कि गोरखपुर में दो दिन में 70 बच्‍चे मर गए तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. लेकिन यदि इसी के साथ यह बात भी बताई जाए कि भारत में 3000 बच्चे रोज कुपोषण से मरते हैं तो शायद लगेगा कि ऐसा तो वर्षों से हो रहा है. अगर हम ये सुनें कि साफ पानी न मिलने के चलते इस देश में लाखों बच्चे रोज दस्त का शिकार होते हैं तो शायद हम सिहर उठें. अगर हमारे पास ये खबर आए कि भारत में प्रतिदिन हजारों महिलाएं प्रसव के दौरान मर जाती हैं तो हमारी सांसें थमना लाजमी है.

न्यू इंडिया में कुछ यूं है अस्पतालों का हाल

जी हां आपने ऊपर जो भी बातें सुनी वो कोरी लफ्फाजी न महज लिखने के उद्देश्य से नहीं लिखी गयी हैं. कई संस्थाओं के ये वो आंकड़ें हैं जो किसी भी देशवासी के माथे पर चिंता के बल लाने के लिए काफी हैं. इन आंकड़ों को देखकर और गोरखपुर को समझते हुए बस यही कहा जा सकता है कि, देश का हर एक शहर बीमार है. देश का हर एक शहर गोरखपुर है. वो गोरखपुर जो यूं तो छुपा रहता है मगर फिर एक दिन ऐसा आता है जब वो खुल के बाहर आता है और हमें सच्चाई से रू-ब-रू कराता है.

मैंने आज प्रधानमंत्री का भाषण सुना, उसमें वो न्यू इंडिया की बात कर रहे थे. वो भीड़ से संबोधित थे, मैं उस भीड़ को देख रहा था. उसी भीड़ से एक चेहरा मुझे मुंह चिढ़ाते हुए दिखा. ये चेहरा दाना...

गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में, शासन की लापरवाही के चलते जापानी इन्सेफेलाइटिस से 60 से ऊपर बच्चों की मौत हो चुकी है. इन मौतों के बाद इस देश के एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर हम लगातार उत्तर प्रदेश सरकार, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और लचर तंत्र को कोसे जा रहे हैं और ये मान बैठे हैं कि जो हुआ है वो लापरवाही की पराकाष्ठा है. एक हद तक देखा जाए तो ये वो सच है जिसे नाकारा नहीं जा सकता.

न्यू इंडिया की बड़ी-बड़ी बातों के बीच, अगर हम ये सुनें कि गोरखपुर में दो दिन में 70 बच्‍चे मर गए तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. लेकिन यदि इसी के साथ यह बात भी बताई जाए कि भारत में 3000 बच्चे रोज कुपोषण से मरते हैं तो शायद लगेगा कि ऐसा तो वर्षों से हो रहा है. अगर हम ये सुनें कि साफ पानी न मिलने के चलते इस देश में लाखों बच्चे रोज दस्त का शिकार होते हैं तो शायद हम सिहर उठें. अगर हमारे पास ये खबर आए कि भारत में प्रतिदिन हजारों महिलाएं प्रसव के दौरान मर जाती हैं तो हमारी सांसें थमना लाजमी है.

न्यू इंडिया में कुछ यूं है अस्पतालों का हाल

जी हां आपने ऊपर जो भी बातें सुनी वो कोरी लफ्फाजी न महज लिखने के उद्देश्य से नहीं लिखी गयी हैं. कई संस्थाओं के ये वो आंकड़ें हैं जो किसी भी देशवासी के माथे पर चिंता के बल लाने के लिए काफी हैं. इन आंकड़ों को देखकर और गोरखपुर को समझते हुए बस यही कहा जा सकता है कि, देश का हर एक शहर बीमार है. देश का हर एक शहर गोरखपुर है. वो गोरखपुर जो यूं तो छुपा रहता है मगर फिर एक दिन ऐसा आता है जब वो खुल के बाहर आता है और हमें सच्चाई से रू-ब-रू कराता है.

मैंने आज प्रधानमंत्री का भाषण सुना, उसमें वो न्यू इंडिया की बात कर रहे थे. वो भीड़ से संबोधित थे, मैं उस भीड़ को देख रहा था. उसी भीड़ से एक चेहरा मुझे मुंह चिढ़ाते हुए दिखा. ये चेहरा दाना मांझी का था, हां वही दाना मांझी जो बीते अगस्त, खबरों की सुर्खियों में था. हां वही अगस्त जिसमें हर साल उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में बच्चे मरते हैं. वो अगस्त जिसमें दाना मांझी ने पूरे दस किलोमीटर अपनी बीवी की लाश अपने कन्धों पर उठाई थी वजह बस इतनी कि अस्पताल उसे एम्बुलेंस मुहैया नहीं करा पाया था.

कह सकते हैं कि चिकित्सा सेवा और स्वास्थ्य के मामले में हमारा देश दो धड़ों में बंटा है पहला वो जहां बड़े-बड़े रिसर्च इंस्टिट्यूट हैं, एसी लगे ऑपरेशन थिएटर हैं, समस्त सुविधाओं से लैस लैंब्स हैं तो वहीं दूसरा वो धड़ जहां आज भी बुनियादी सेवाओं का आभाव है. जहां आज भी मरीज कीचड़ से भचभचाती नालियों के किनारे नहाने पर मजबूर है. वो धड़ जिसके पास अपने मरीजों के इलाज के लिए न तो अच्छे डॉक्टर हैं न दवाइयां हैं न नर्सिंग स्टाफ है. आज भले ही देश मेडिकल टूरिज्म के नाम पर करोड़ों कमा रहा हो और विदेशी मरीजों की सेवा कर रहा हो मगर कड़वी सच्चाई यही है कि हम अपने मरीजों को बचा नहीं पा रहे हैं.

कहा जा सकता है न्यू इंडिया में सरकार ने चिकित्सा को बिल्कुल नकार दिया है

इस बात को आप 2016 में, कराए गए द वीक-नीलसन बेस्ट अस्पताल सर्वेक्षण से समझिये. ये सर्वे निश्चित तौर पर आपको हैरत में डाल देगा. इस सर्वे के अनुसार हमारे पास विश्वस्तरीय निजी अस्पतालों की कहीं से भी कोई कमी नहीं है. मगर हमारे सरकारी अस्पतालों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है. भारत में प्राथमिक और तृतीयक स्वास्थ्य प्रणालियों के बीच एक बड़ा अंतर है.

गौरतलब है कि, देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के साथ सबसे बड़ी समस्या ये भी दिखती है कि इसकी प्राथमिक और माध्यमिक स्वास्थ्य प्रणालियों के बुनियादी ढांचे, जनशक्ति और आवश्यक कौशल की कमी है. इसके पीछे की वजहों पर गौर करें तो मिलता है कि भले ही सरकार एक बड़ा स्वास्थ्य बजट बनाती है मगर वो बजट फाइलों के कागजों से अस्पताल तक नहीं पहुंच पाता और नतीजे के तौर पर हम वो देखते हैं जो बीते दिनों हमने गोरखपुर में देखा, जहां केवल इसलिए मासूम बच्चे अपनों को छोड़कर चले गए क्योंकि अस्पताल उन्हें पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं दे पाया.

अगर हम केवल स्वास्थ्य पर केन्द्रित रहें और ये जानने का प्रयास करें कि आखिर वो कौन से कारण हैं जिनके चलते हर साल लाखों लोग मर जाते हैं तो जो इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह निकल कर सामने आती है वो ये कि इस देश में ऑपरेशन, दवाइयों, जांच समेत कई ऐसी चीजें हैं जिनके चलते एक आदमी अपना इलाज नहीं करा सकता. ज्ञात हो कि आज भी भारत की एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे वास कर रही है जिस कारण, आज एक आम आदमी के लिए अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं लेना एक टेढ़ी खीर है.

भारत में चिकित्सा का हाल क्या है ये हमें गोरखपुर ने बता दिया है

स्वास्थ्य सेवाओं के मद्देनजर, यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन की बातों पर गौर करें तो मिलता है कि किसी भी देश की सरकार को देश केस्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी का कम से कम 5 प्रतिशत खर्च करना चाहिए. इसे अगर भारत के सन्दर्भ में देखें तो मिलता है कि भारत इसमें भी कहीं पीछे हैं और वो स्वास्थ्य पर जीडीपी का केवल 1.2 प्रतिशत खर्च करता है. शायद इसी कारण आज भारत में एक आम आदमी के लिए चिकित्सा का स्तर इतना गिर चुका है.

बात जब चिकित्सा और स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर हो रही है और अगर ऐसे में हम ग्रामीण भारत की स्थिति देखें तो मिलता है कि वहां स्थिति और ज्यादा गंभीर है. शहरों के मुकाबलें, गावों में हालात बद से बदतर हैं. वहां न तो अस्पताल हैं न डॉक्टर और दवाइयां जिस कारण गाँवों के मरीजों को शहर के मरीजों के मुकाबले कड़ी मशक्कतों का सामना करना पड़ता है.

आज हमें आजाद हुए 71 साल हो चुके हैं और अगर इन 71 सालों में हम अपने मरीजों को सही स्वास्थ्य सेवाएं नहीं दे पा रहे हैं तो ये बात उन बातों और दावों पर करारा तमाचा है जो ये कहती हैं कि हम विकासशील से विकसित राष्ट्र की तरफ बढ़ रहे हैं. हमारे राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक लगातार न्यू इंडिया की बात करी जा रही है और अगर ऐसे में हम थोक के भावों में कैम्प और उन कैम्पों में होता इलाज देख रहे हैं तो हमें समझ लेना चाहिए कि शायद ही इस देश की सरकार को अपने देश के एक नागरिक के स्वास्थ्य की फिक्र है.

यदि भारत को न्यू इंडिया में प्रवेश करना है तो उसे स्वास्थ्य की दिशा में बहुत काम करना है

आज भी इस देश के लोगों का पोलियो, खसरे, मियादी बुखार, डायरिया, कैंसर से मरना इस बात की ओर साफ इशारा करता है कि भले ही हमारी सरकार बजट सत्र में या फिर सदन में चिकित्सा को लेकर लाख दावे कर ले मगर जमीनी हकीकत यही है कि इस दिशा में कहीं भी, कोई भी काम नहीं हो रहा और हमारा देश कई ऐसी मौतें देख रहा है जिनको समय रहते टाला जा सकता था.

अंत में हम अपनी बात खत्म करते हुए बस यही कहेंगे कि सरकार को देश के नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति गंभीर हो जाना चाहिए. चाहे उत्तर प्रदेश का गोरखपुर हो या फिर बिहार का सहरसा आज भारत के हर एक राज्य के सामने अपने अलग स्वास्थ्य संकट हैं जिसपर सरकार को हर हाल में गंभीर हो जाना चाहिए.

यदि ऐसा हो गया तो वाकई ये न्यू इंडिया के लिए एक बहुत अच्छी बात होगी. अगर ऐसा नहीं हो पाया तो तमाम बीमारियां लिए विश्व मानचित्र पर न्यू इंडिया बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगेगा. हम इस आशा के साथ अपनी बात खत्म करते हैं कि केंद्र सरकार उत्तर प्रदेश के गोरखपुर मामले को एक उदाहरण मानते हुए अपने नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति गंभीर होगी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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