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एक पोर्न प्रेमी की छोटी सी कहानी

    • नरेंद्र सैनी
    • Updated: 04 अगस्त, 2015 01:46 PM
  • 04 अगस्त, 2015 01:46 PM
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यह किस्सा सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले पप्पू का है. बात 1990 के दशक की शुरुआत की है. अभी उदारीकरण दस्तक दे ही रहा था और सब कुछ काफी दबा सिमटा हुआ करता था. पप्पू ने अभी 14वें साल में कदम रखा था

यह किस्सा सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले पप्पू का है. बात 1990 के दशक की शुरुआत की है. अभी उदारीकरण दस्तक दे ही रहा था और सब कुछ काफी दबा सिमटा हुआ करता था. पप्पू ने अभी 14वें साल में कदम रखा था और उसके अंदर बाकी किशोरों की तरह जिज्ञासाएं हिलोरें मारने लगी थीं. अक्सर वह हिंदी फिल्मों में फूल टकराने का मतलब और दीया बुझने के मायने ढूंढता फिरता. एक दिन उसे अपने इन सारों का जवाब मिल गया और यह जवाब से मिला अपने दोस्त से मिली मस्तराम और डेबोनेयर की फटी-पुरानी कॉपी से.


अब वह स्कूल के लड़कों की उस रसिक टोली का हिस्सा बन चुका था. इस टोली के सभी साथी अपनी-अपनी पॉकेट मनी एक जगह एकत्र करते और फिर बस अड्डे या रेलवे स्टेशन जाते. वहां से पीली पन्नी वाली किताबें लेकर आते. जिसमें 84 रंगीन आसनों सहित पोर्न सामग्री परोसे जाने की बात होती. अंदर बेशक रंगीन न सही श्वेत-श्याम चित्र ही मिलते लेकिन पप्पू और उसके दोस्तों की जिज्ञासा शांत करने के लिए काफी थे. डेबोनेयर का सेंटरफोल्ड उनका पसंदीदा पन्ना हुआ करता था.

पप्पू पहली पायदान चढ़ चुका था. उसकी जिज्ञासा खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी, और इस तर्ज पर बढ़ रही थी कि एक बार देखा है, बार-बार देखना है. उसने अगली पायदान चढ़ी. उसने अपने दोस्तों की टोली के साथ मॉर्निंग शो का रुख किया. सिनेमाघर के बाहर के गर्मागर्म पोस्टर से उनको मजा आ जाता और अंदर इक्का-दुक्का सीन से पैसा वसूल हो जाता. पप्पू बताते हैं कि उनका यादगार फिल्म माय ट्यूटर रही, जिसके मॉर्निंग शो हाउस फुल चलते थे.

फिर समय ने करवट ली. बात 2001 की है. टेक्नोलॉजी ने तरक्की कर ली थी. सीडी बाजार में आ गई थीं. पालिका बाजार और लाजपत राय मार्केट में इनका अंबार मिलता और पप्पू कॉलेज पास कर चुका था और नौकरी करने लगा था. चोरी-छिपे मसाला फिल्में यहां से खरीदता और अपने कंप्यूटर पर देखता और इस तरह रातें कटतीं. उस समय तक, सीडी की इस आवक ने मॉर्निंग शो खत्म कर दिए और पीली पन्नी वाली किताबों की दुकान ही बंद कर डाली. अब बस अड्डे पर बोरी में अश्लील किताबें...

यह किस्सा सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले पप्पू का है. बात 1990 के दशक की शुरुआत की है. अभी उदारीकरण दस्तक दे ही रहा था और सब कुछ काफी दबा सिमटा हुआ करता था. पप्पू ने अभी 14वें साल में कदम रखा था और उसके अंदर बाकी किशोरों की तरह जिज्ञासाएं हिलोरें मारने लगी थीं. अक्सर वह हिंदी फिल्मों में फूल टकराने का मतलब और दीया बुझने के मायने ढूंढता फिरता. एक दिन उसे अपने इन सारों का जवाब मिल गया और यह जवाब से मिला अपने दोस्त से मिली मस्तराम और डेबोनेयर की फटी-पुरानी कॉपी से.


अब वह स्कूल के लड़कों की उस रसिक टोली का हिस्सा बन चुका था. इस टोली के सभी साथी अपनी-अपनी पॉकेट मनी एक जगह एकत्र करते और फिर बस अड्डे या रेलवे स्टेशन जाते. वहां से पीली पन्नी वाली किताबें लेकर आते. जिसमें 84 रंगीन आसनों सहित पोर्न सामग्री परोसे जाने की बात होती. अंदर बेशक रंगीन न सही श्वेत-श्याम चित्र ही मिलते लेकिन पप्पू और उसके दोस्तों की जिज्ञासा शांत करने के लिए काफी थे. डेबोनेयर का सेंटरफोल्ड उनका पसंदीदा पन्ना हुआ करता था.

पप्पू पहली पायदान चढ़ चुका था. उसकी जिज्ञासा खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी, और इस तर्ज पर बढ़ रही थी कि एक बार देखा है, बार-बार देखना है. उसने अगली पायदान चढ़ी. उसने अपने दोस्तों की टोली के साथ मॉर्निंग शो का रुख किया. सिनेमाघर के बाहर के गर्मागर्म पोस्टर से उनको मजा आ जाता और अंदर इक्का-दुक्का सीन से पैसा वसूल हो जाता. पप्पू बताते हैं कि उनका यादगार फिल्म माय ट्यूटर रही, जिसके मॉर्निंग शो हाउस फुल चलते थे.

फिर समय ने करवट ली. बात 2001 की है. टेक्नोलॉजी ने तरक्की कर ली थी. सीडी बाजार में आ गई थीं. पालिका बाजार और लाजपत राय मार्केट में इनका अंबार मिलता और पप्पू कॉलेज पास कर चुका था और नौकरी करने लगा था. चोरी-छिपे मसाला फिल्में यहां से खरीदता और अपने कंप्यूटर पर देखता और इस तरह रातें कटतीं. उस समय तक, सीडी की इस आवक ने मॉर्निंग शो खत्म कर दिए और पीली पन्नी वाली किताबों की दुकान ही बंद कर डाली. अब बस अड्डे पर बोरी में अश्लील किताबें छिपाकर बेचने वाले भी खत्म हो गए थे.

वक्त सरपट दौड़ रहा था. नई सदी की सबसे बड़ी देन इंटरनेट और मोबाइल रहा. शुरुआती दौर में इंटरनेट महंगा था लेकिन 2004-05 आते यह सस्ता होने लगा था और पप्पू ने भी अपने घर में कनेक्शन लगवा लिया. अकसर समय मस्त चैटिंग या फिर पोर्न साइट देखने पर गुजरता. अगर पप्पू 100 फीसदी टाइम इंटरनेट पर गुजारता तो उसमें से वह 60-70 फीसदी समय पोर्न साइट्स खंगालने पर निकलता.

साल 2010 आ गया था. टेक्नोलॉजी की अँगड़ाई जारी थी और फिर स्मार्टफोन आ गया. इस समय तक वाइ-फाइ भी घर-घर में लग चुके थे और पप्पू भी इससे लैस थे. पप्पू ने फोन पर वाइ-फाइ के जरिये सोते, उठते और जब मन करता, पोर्न के मजे लेने शुरू कर दिए थे. मोबाइल के अलावा वह हार्ड डिस्क का इस्तेमाल करना सीख गया था. वह टोरेंट साइट्स का ज्ञाता बन चुका था और उसकी पोर्न की अधिकतर परमानेंट खुराक अगर स्मार्टफोन से देखने को मिलती थी तो काफी फिल्में टोरेंट साइट से लोड कर लेता था.

बात वर्तमान की करते हैं. अब जब देश में पोर्न साइट्स बैन हो गई हैं तो पप्पू का यही कहना है, “यह फैसला कुछ अजीब है. लेकिन क्या कर सकते हैं. इस बैन से फिर से पालिका बाजार और लाजपत राय ठप पड़ा धंधा गर्मा जाएगा. उन बेचारों का कारोबार चल निकलेगा. मोबाइल मेमोरी कार्ड में 10 रुपये में क्लिप लोड करवाले का चलन और जोर पकड़ लेगा. हो सकता है हमारे जमाने वाली किताबें फिर से बिकने लगें. वैसे जो टोरेंट के जानकार हैं, उनकी दुनिया तो आज भी मुट्ठी में है. वे तो अपने पांव पर खड़े हैं, चलिए सीधे क्लिप न सही डाउनलोड करके ही, वे तो जुगाड़ कर ही लेंगे. कुछ लोग प्रॉक्सी सर्वर के जरिए भी जुगाड़ कर सकते हैं. हालांकि आज टेक्नोलॉजी है, सब कुछ है, लेकिन हम भारतीयों की एक गड़बड़ है, हम एक कदम आगे बढ़ते हैं तो चार कदम पीछे चले जाते हैं.” क्या पप्पू सही कह रहा है?

(पप्पू एक काल्पनिक पात्र है.)

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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