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क्यों समाज और राजनीति के लिए बड़ी चुनौती है दादरी

    • शेखर गुप्ता
    • Updated: 03 अक्टूबर, 2015 06:52 PM
  • 03 अक्टूबर, 2015 06:52 PM
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दादरी हत्याकांड हमारी राजनीति में खौफनाक मोड़ है. इससे हिंदुओं को सर्वोच्च मानने वाली भीड़ का आतंकवाद बढ़ने का संकेत मिलता है, जिसका भाजपा स्पष्ट स्वर में न तो निंदा करेगी और न ही अस्वीकार करेगी.

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को देश की सबसे बड़ी पार्टी बनते हुए करीब से देखने के बाद भी मैं यकीन के साथ नहीं कह सकता कि 'फ्रिंज एलीमेंट्स' (अनुषंगी तत्त्व) शब्द का इस्तेमाल कब और कैसे शुरू हुआ. शायद 1992 की सर्दियों में अयोध्या विध्वंस से पहले यह शब्द आया होगा. लेकिन यह बात हम यकीन से कह सकते हैं कि नरम नेतृत्व अगर अनुषंगी को चुनौती नहीं देगा तो यह पनपता जाएगा, बढ़ता जाएगा और मुख्यधारा में शामिल हो जाएगा.

विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और बजरंग दल किसी वक्त अनुषंगी थे, आज वे 'सहयोगी' संगठन हैं. आज सनातन संस्था, समाधान सेना और अभिनव भारत अनुषंगी हैं. दादरी हत्याकांड हमारी राजनीति में खौफनाक मोड़ है. इससे हिंदुओं को सर्वोच्च मानने वाली भीड़ का आतंकवाद बढ़ने का संकेत मिलता है, जिसका भाजपा स्पष्ट स्वर में न तो निंदा करेगी और न ही अस्वीकार करेगी.

वह हत्या की आलोचना करेगी, लेकिन कई तरीकों से उसे सही ठहराएगी. जानना चाहते हैं, कैसे? शुक्रवार के इंडियन एक्सप्रेस में मेरे मित्र और भाजपा के सांसद तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बुद्धिजीवी तरुण विजय का लेख देख लीजिए. वह कहते हैं कि भीड़ द्वारा हत्या हिंदुत्व और भारत की भावना के खिलाफ है क्योंकि मुहम्मद अखलाक की हत्या 'केवल संदेह के कारण' की गई और अखलाक की बेटी ने बिल्कुल वाजिब सवाल किया कि अगर साबित हो गया कि उसके पिता ने गोमांस नहीं खाया था तो क्या कोई उन्हें वापस ले आएगा?

इसका मतलब है कि अगर उसने वाकई गोमांस खाया होता और अगर भीड़ के पास साफ सबूत होते तो यह सजा एकदम जायज होती. मुद्दा तो यह होना चाहिए कि उसने गोमांस खा भी लिया तो क्या हुआ? उत्तर प्रदेश में यह गैर कानूनी तो नहीं है और जहां है, वहां अपराधी से निपटने के लिए सख्त कानून हैं.

चलिए, मामला समझते हैं. एक मंदिर का पुजारी वहीं के लाउडस्पीकर से कथित तौर पर हिंदुओं को इकट्ठा करता है ताकि बदला लिया जा सके. स्थानीय सांसद और केंद्रीय संस्कृति मंत्री उसी तरह निंदा करते हैं, जैसे तरुण विजय या दूसरे भाजपा नेता कर रहे हैं....

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को देश की सबसे बड़ी पार्टी बनते हुए करीब से देखने के बाद भी मैं यकीन के साथ नहीं कह सकता कि 'फ्रिंज एलीमेंट्स' (अनुषंगी तत्त्व) शब्द का इस्तेमाल कब और कैसे शुरू हुआ. शायद 1992 की सर्दियों में अयोध्या विध्वंस से पहले यह शब्द आया होगा. लेकिन यह बात हम यकीन से कह सकते हैं कि नरम नेतृत्व अगर अनुषंगी को चुनौती नहीं देगा तो यह पनपता जाएगा, बढ़ता जाएगा और मुख्यधारा में शामिल हो जाएगा.

विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और बजरंग दल किसी वक्त अनुषंगी थे, आज वे 'सहयोगी' संगठन हैं. आज सनातन संस्था, समाधान सेना और अभिनव भारत अनुषंगी हैं. दादरी हत्याकांड हमारी राजनीति में खौफनाक मोड़ है. इससे हिंदुओं को सर्वोच्च मानने वाली भीड़ का आतंकवाद बढ़ने का संकेत मिलता है, जिसका भाजपा स्पष्ट स्वर में न तो निंदा करेगी और न ही अस्वीकार करेगी.

वह हत्या की आलोचना करेगी, लेकिन कई तरीकों से उसे सही ठहराएगी. जानना चाहते हैं, कैसे? शुक्रवार के इंडियन एक्सप्रेस में मेरे मित्र और भाजपा के सांसद तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बुद्धिजीवी तरुण विजय का लेख देख लीजिए. वह कहते हैं कि भीड़ द्वारा हत्या हिंदुत्व और भारत की भावना के खिलाफ है क्योंकि मुहम्मद अखलाक की हत्या 'केवल संदेह के कारण' की गई और अखलाक की बेटी ने बिल्कुल वाजिब सवाल किया कि अगर साबित हो गया कि उसके पिता ने गोमांस नहीं खाया था तो क्या कोई उन्हें वापस ले आएगा?

इसका मतलब है कि अगर उसने वाकई गोमांस खाया होता और अगर भीड़ के पास साफ सबूत होते तो यह सजा एकदम जायज होती. मुद्दा तो यह होना चाहिए कि उसने गोमांस खा भी लिया तो क्या हुआ? उत्तर प्रदेश में यह गैर कानूनी तो नहीं है और जहां है, वहां अपराधी से निपटने के लिए सख्त कानून हैं.

चलिए, मामला समझते हैं. एक मंदिर का पुजारी वहीं के लाउडस्पीकर से कथित तौर पर हिंदुओं को इकट्ठा करता है ताकि बदला लिया जा सके. स्थानीय सांसद और केंद्रीय संस्कृति मंत्री उसी तरह निंदा करते हैं, जैसे तरुण विजय या दूसरे भाजपा नेता कर रहे हैं. मंगलूरु में युवा जोड़ों की पिटाई हो, महाराष्ट्र और कर्नाटक में अंधविश्वास विरोधी कार्यकर्ताओं की हत्या हो या 'रामजादे बनाम हरामजादे' से लेकर 'मुसलमान होने के बावजूद' और 'पाकिस्तान चले जाओ' जैसे भड़काऊ बयान हों, उन पर प्रतिक्रिया बेहद स्पष्ट और सोची समझी होती है.

इसमें उग्र हिंदुओं की कथित लिप्तता वाले आतंकवादी मामलों पर धीमी कार्रवाई को भी शामिल कर लीजिए. अगर अभिनव भारत वास्तव में छोटा सा शरारती अनुषंगी गुट था तो उसे इस तरह बचाया क्यों जा रहा है, जैसे वही पीडि़त हो? मैं दादरी कांड को हमारी राजनीति में ऐतिहासिक मोड़ केवल इसीलिए नहीं कह रहा हूं क्योंकि विभाजन के समय हुए दंगों के बाद शायद पहली बार भीड़ को भड़काने के लिए मंदिर के लाउडस्पीकर का इस्तेमाल किया गया. हालांकि यह अहम बात है क्योंकि मंदिरों से धर्मावलंबियों को पुकारे जाने की परंपरा भी हिंदुओं में नहीं है.

ज्यादा अहम है स्वयंभू धर्मनिरपेक्ष ताकतों की हल्की प्रतिक्रिया. दिल्ली से केवल 40 मिनट में उस गांव तक पहुंचा जा सकता है, लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने न तो वहां तक पदयात्रा की और न ही मामला जानने के लिए कोई दल भेजा. धर्मनिरपेक्ष वोटों पर दावा ठोकने वाले लालू, नीतीश और ममता भी गाय से जुड़े मसले में उलझने से डर रहे हैं. गाय की पवित्रता को भी अब उसी तरह सबका समर्थन मिल रहा है, जैसे पाकिस्तान के खिलाफ तीखे तेवरों को. हिंदू बहुल राज्य हरियाणा में गोवध की कोई घटना नहीं हुई है और गायों के संरक्षण के लिए कानून पहले से मौजूद है, लेकिन इस वर्ष मार्च में उसने गोवंश संरक्षण और गोसंवर्धन अधिनियम कानून बना डाला.

सबसे पहले तो इससे गोवध पर प्रतिबंध लगाने के बजाय बात गायों को बढ़ावा देने तक पहुंच गई. इस तरह एक पशु को केवल पवित्र दर्जा ही नहीं मिला बल्कि हमारे प्रशासन में संवैधानिक दर्जा भी मिल गया. दूसरा, इससे आयातित, डिब्बाबंद गोमांस खाना भी कानूनी तौर पर दंडनीय हो गया, गायों को 'गोवध के लिए' (इसे साबित कौन करेगा?) राज्य से बाहर भेजने पर प्रतिबंध लग गया, सजा की अवधि बढ़ाकर 10 साल कर दी गई और उसके बाद बलात्कार संबंधी नए सख्त कानून की तर्ज पर अपनी बेगुनाही साबित करने का जिम्मा भी आरोपित व्यक्ति के ऊपर ही डाल दिया गया.

इतना रहम कर दिया गया कि गाय के बयान को जरूरी नहीं बनाया गया. इतना ही नहीं, कानून में कहा गया है कि जब्त हुए मांस के नमूने जांचने के लिए प्रयोगशालाओं का नेटवर्क तैयार किया जाएगा. अगर आपको यह अतिशयोक्ति लग रही है तो कानून का पूरा मसौदा पढ़ लीजिए. अब मुझे इंतजार है कि कोई पुलिसवाला किसी जापानी या कोरियाई बहुराष्ट्रीय कंपनी के गुडग़ांव में रहने वाले अधिकारी के घर छापा कब मारता है और उसके फ्रिज से मांस के टुकड़े इन प्रयोगशालाओं में कब भेजता है. हंसिए मत क्योंकि ऐसा होता है. उस समय बेहद नाजुक कूटनीतिक संकट खड़ा हो जाएगा, जो दुनिया भर में सुर्खियों में होगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा नहीं चाहेंगे.

यहां अहम बात यह भी है कि तमाम बेतुकी बातों के बावजूद वह कानून एकमत से पारित हो गया. कांग्रेस के विधायकों ने इसका समर्थन किया और उनके सबसे वरिष्ठ नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने मुख्यमंत्री को बधाई दी. हिंदुत्ववादी संगठनों को पता चल गया है कि गाय की राजनीति का कोई विरोध नहीं करेगा. सबसे हैरत भरी प्रतिक्रिया तो मुलायम-अखिलेश सरकार की है. उनकी पुलिस ने मांस को जांच के लिए भेज दिया और मुझे नहीं पता कि कहां भेजा क्योंकि पड़ोसी राज्य हरियाणा में अभी तक प्रयोगशालाएं नहीं बनी हैं. आप पशु के मांस को जांचकर उसकी प्रजाति का पता ऐसे देश में लगाना चाहते हैं, जहां फोरेंसिक प्रणाली इतनी घटिया है कि सुनंदा थरूर के विसरा के नमूने उनकी मौत के करीब दो साल बाद जांच के लिए अमेरिका भेजने पड़ते हैं!

यह लिखते हुए मुझे अप्रैल, 2007 की वह दोपहर याद आती है, जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बिजनौर के बाहर धामपुर गांव में पारा 43 डिग्री तक चढ़ गया था. धामपुर भी दादरी और मुजफ्फरनगर की ही तरह सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील है. राज्य विधानसभा चुनाव हो रहे थे. भारतीय जनता युवा मोर्चा के अपेक्षाकृत छोटे कार्यकर्ता अशोक कटारिया एक सभा में बोल रहे थे. उन्होंने कहा कि हिंदू महिलाएं खतरे में हैं, आईएसआई की शाखाएं सक्रिय हैं, राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में है क्योंकि जिले की आबादी में मुसलमानों की संख्या 41 फीसदी से भी ज्यादा है. उसके बाद वह मांस खाने की बात करने लगे.

कटारिया ने हिकारत भरे लहजे में कहा, 'वे कुत्ता खाएं, बिल्ली, घोड़ा, ऊंट, हाथी, सांप खाएं. भगवान और कुदरत ने जो भी बनाया है, उसे खा लें. लेकिन उन्हें गोमांस से दूर रहना होगा क्योंकि गाय हमारी मां है. और अगर कोई गाय की हत्या करता है तो हम उसकी हत्या कर देंगे.' तब तक राजनाथ सिंह वहां पहुंच गए थे और असहमति में सिर हिला रहे थे. हालांकि बाद में हमारे सामने उन्होंने बात संभाली और कहा, 'जवान खून है, गरम हो जाता है.' मुझे उम्मीद है कि इस हफ्ते हुई उस हत्या से भी वह असहमति जताएंगे. कटारिया भी अब साध्वी निरंजन ज्योति की तरह राज्य भाजपा के उपाध्यक्ष हैं.

शुक्रवार की सुबह मैं यह लिख रहा हूं. टीवी पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ऑरेगन गोलीबारी के बारे में बोल रहे हैं. अमेरिका में संघीय ढांचा सबसे मजबूत है और कानून-व्यवस्था में राष्ट्रपति की बिल्कुल नहीं चलती. लेकिन वह बोल रहे हैं. पखवाड़े भर पहले उन्होंने घड़ी लेकर स्कूल पहुंचे अहमद के मामले में भी दखल दिया था. वह किसी का तुष्टिकरण नहीं कर रहे थे बल्कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों को दिलासा देकर अपना राजधर्म निभा रहे थे. हमें पता है कि मोदी को मीडिया की सलाह पसंद नहीं है. उन्हें अपने दोस्त बराक से कुछ सीखना चाहिए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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