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यूपी चुनाव में निर्णायक भूमिका में कौन - जाति, धर्म या विकास?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 16 फरवरी, 2017 06:23 PM
  • 16 फरवरी, 2017 06:23 PM
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कहां जातियों के बगैर चुनाव की चर्चा भी बेमानी हुआ करती रही, कहां धर्म इतना प्रभावी हो गया कि सारी बातें यूं ही दरकिनार होने लगीं. कम से कम चुनाव के दो चरणों में तो चर्चा इसी बात को लेकर रही कि मुस्लिम वोट का ही बड़ा रोल लग रहा है.

क्या यूपी चुनाव ऐसे दौर में पहुंच चुका है जब जातीय समीकरण पीछे छूटने लगे हैं? या जातीय वोटों को नेता खानदानी जायदाद जैसे हक समझ कर चुनाव जीतने के लिए नये टूल्स और टेकनीक अपनाने लगे हैं. बीजेपी पर सोशल मीडिया प्रोपेगैंडा के मायावती के आरोप क्या इसी ओर इशारा नहीं कर रहे हैं?

कहां जातियों के बगैर चुनाव की चर्चा भी बेमानी हुआ करती रही, कहां धर्म इतना प्रभावी हो गया कि सारी बातें यूं ही दरकिनार होने लगीं. कम से कम चुनाव के दो चरणों में तो चर्चा इसी बात को लेकर रही कि मुस्लिम वोट का ही बड़ा रोल लग रहा है.

जाति ही पूछो...

यूपी और बिहार की सामाजिक संरचना लगभग एक जैसी है और चुनाव में नेताओं के तौर तरीके करीब समान ही रहते हैं. बिहार चुनाव में लालू प्रसाद अपने जातीय जनाधार के चलते ही नीतीश कुमार पर भारी पड़ रहे थे - और नीतीश पर वो जो भी दबाव बना सके या अब भी ऐसी कोशिशें चल रही हैं - उसका आधार भी उनका अपना यादव वोट बैंक ही है. जीतन राम मांझी भले नहीं चल पाये लेकिन वोट पड़ने तक उनके अहम बने रहने की बस इतनी ही वजह थी कि वो एक जाति विशेष से आते हैं.

यूपी में मुलायम सिंह और मायावती के नेता बनने और लंबे समय तक मैदान में टिके रहने की भी यही वजह है. बीते सालों में जाट वोटों से हाथ धो चुके अजीत सिंह की पुनर्वापसी की वजह भी जातीय आधार ही होने जा रहा है. बीजेपी भी गैर यादव ओबीसी और सवर्ण तबके को ही अपना वोट मान कर चलती रही - और इसीलिए उसने केशव मौर्य से लेकर स्वामी प्रसाद मौर्य तक को फ्रंट फुट पर तैनात किया.

"मेरा उत्तराधिकारी दलित के बाद मुस्लिम ही होगा..."

यूपी में दलित और सवर्ण वोट आपस में बराबर हैं - और इन दोनों को मिला दें तो आंकड़ा ओबीसी वोट के बराबर हो जाता है. आंकड़े देखें तो दलित 21.1 फीसदी, सवर्ण...

क्या यूपी चुनाव ऐसे दौर में पहुंच चुका है जब जातीय समीकरण पीछे छूटने लगे हैं? या जातीय वोटों को नेता खानदानी जायदाद जैसे हक समझ कर चुनाव जीतने के लिए नये टूल्स और टेकनीक अपनाने लगे हैं. बीजेपी पर सोशल मीडिया प्रोपेगैंडा के मायावती के आरोप क्या इसी ओर इशारा नहीं कर रहे हैं?

कहां जातियों के बगैर चुनाव की चर्चा भी बेमानी हुआ करती रही, कहां धर्म इतना प्रभावी हो गया कि सारी बातें यूं ही दरकिनार होने लगीं. कम से कम चुनाव के दो चरणों में तो चर्चा इसी बात को लेकर रही कि मुस्लिम वोट का ही बड़ा रोल लग रहा है.

जाति ही पूछो...

यूपी और बिहार की सामाजिक संरचना लगभग एक जैसी है और चुनाव में नेताओं के तौर तरीके करीब समान ही रहते हैं. बिहार चुनाव में लालू प्रसाद अपने जातीय जनाधार के चलते ही नीतीश कुमार पर भारी पड़ रहे थे - और नीतीश पर वो जो भी दबाव बना सके या अब भी ऐसी कोशिशें चल रही हैं - उसका आधार भी उनका अपना यादव वोट बैंक ही है. जीतन राम मांझी भले नहीं चल पाये लेकिन वोट पड़ने तक उनके अहम बने रहने की बस इतनी ही वजह थी कि वो एक जाति विशेष से आते हैं.

यूपी में मुलायम सिंह और मायावती के नेता बनने और लंबे समय तक मैदान में टिके रहने की भी यही वजह है. बीते सालों में जाट वोटों से हाथ धो चुके अजीत सिंह की पुनर्वापसी की वजह भी जातीय आधार ही होने जा रहा है. बीजेपी भी गैर यादव ओबीसी और सवर्ण तबके को ही अपना वोट मान कर चलती रही - और इसीलिए उसने केशव मौर्य से लेकर स्वामी प्रसाद मौर्य तक को फ्रंट फुट पर तैनात किया.

"मेरा उत्तराधिकारी दलित के बाद मुस्लिम ही होगा..."

यूपी में दलित और सवर्ण वोट आपस में बराबर हैं - और इन दोनों को मिला दें तो आंकड़ा ओबीसी वोट के बराबर हो जाता है. आंकड़े देखें तो दलित 21.1 फीसदी, सवर्ण 22 फीसदी और ओबीसी वोट 40 फीसदी हैं. ओबीसी के 40 फीसदी वोटों में 9 फीसदी यादव वोट हैं जबकि 22 फीसदी सवर्णों में 13 फीसदी ब्राह्मण और 8 फीसदी ठाकुर हैं.

ये आंकड़े कागज पर तो साथ रहते हैं लेकिन वोट डालने की बारी आती है तो आपस में ही इधर उधर बिखर जाते हैं. जैसे दुनिया के हर नियम का अपवाद होता है यहां भी है - दलित और यादव वोट अमूमन नहीं बंटते. इन एकजुट वोटों का जिन्हें सपोर्ट मिलता है वो उस वोट बैंक का क्षत्रप बन जाता है.

दलित वोटों के लिए तो बीजेपी ने भी कोई कसर बाकी न रखी. अंबेडकर जयंती समारोहों से लेकर धम्म चक्र यात्रा तक, लेकिन ऊना कांड ने इस कदर पानी फेरा कि अमित शाह का सद्भावना स्नान और दलित दावत से लगे उम्मीदों पर भी पानी फिर गया.

बदलते दौर में जातीय वोटों पर ज्यादा जोर न तो समाजवादी पार्टी का दिखता है और न ही मायावती का. अखिलेश यादव जहां यादव वोटों के दायरे से आगे बढ़ कर सभी वर्गों का समर्थन हासिल करने की कोशिश में जुटे हैं, वहीं मायावती दलितों से ज्यादा मुस्लिम समुदाय से संवाद स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं.

ये कौन सा धर्म युद्ध है?

क्या एग्जिट पोल से भी ज्यादा बड़ा इशारा मुस्लिम समुदाय के फीडबैक करने लगे हैं? एग्जिट पोल तो उन लोगों से बातचीत के आधार पर तैयार किये जाते हैं जो वोट देने के बाद बाहर आते हैं. मुस्लिम वोटों का रुख तो उससे पहले ही मजबूत संकेत देने लगा है.

यूपी चुनाव की तैयारियों के मामले में बीएसपी सबसे आगे है. जब समाजवादी पार्टी परिवार के झगड़े में उलझी रही और कांग्रेस अपने जमीनी आधार की पैमाइश कर रही थी जबकि बीजेपी यही नहीं तय कर पा रही थी कि टिकट किसे दिया जाये कि बवाल न हो, मायावती अपने उम्मीदवार तय कर चुकी थीं. बीएसपी के दलित उम्मीदवार तो पहले ही तय हो गये थे - थोड़े अदला बदली के बाद मुस्लिम उम्मीदवार भी फाइनल हो गये. कुछ फेरबदल बाद में भी हुए जब समाजवादी पार्टी के कुछ नेताओं ने हाथी पर सवारी का फैसला किया या अंसारी बंधुओं ने भी शरणागत होना जरूरी समझा.

अब तो तीन सौ पार...

मायावती की चुनावी रैलियों पर गौर करें तो वहां दलितों की बात कम और मुस्लिम समुदाय की ज्यादा होने लगी. जिस मायावती के लिए पहले दलित, मनुवादी और दलित की बेटी कीवर्ड हुआ करते थे वो गायब लगने लगे और टॉप ट्रेंड मुस्लिम वोट बन गया. आगरा से लेकर इलाहाबाद और सहारनपुर होते हुए लखनऊ पहुंचकर भी मायावती सिर्फ मुस्लिम समुदाय की बात करती रहीं. कभी उन्हें अयोध्या का नाम लेकर डरातीं तो कभी मुजफ्फरनगर और दादरी का नाम लेकर.

बाद में तो साफ साफ ये कहना भी शुरू कर दिया कि अगर मुस्लिम समुदाय ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया तो बेकार जाएगा. मायावती बार बार यही समझातीं कि बीजेपी को सत्ता में आने से रोक पाने में सिर्फ वही सक्षम हैं.

जातीय वोट बैंक को जागीर समझने वाले नेताओं में अखिलेश भी नजर आये और घर के झगड़े से उबरने के बाद से ही कांग्रेस गठबंधन की बात करने लगे. गठबंधन के पीछे वजह साफ थी - मुलायम सिंह द्वारा डेढ़ दशक से पाल पोस कर अपने पाले में रखे मुस्लिम वोट कहीं छिटक न जाये. वैसे कांग्रेस से गठबंधन के बाद ऐसा लग रहा है कि अखिलेश के वोट बैंक को यूपी के लड़कों का साथ पसंद आ रहा है. मुस्लिम वोट पूरी तरह मायावती से मुखातिब नहीं है.

और वो विकास की बातें?

चुनाव की औपचारिक प्रक्रिया शुरू होने से पहले तो यही लग रहा था कि इस बार विकास बड़ा मुद्दा होगा. मायावती भले ही कभी कभार कानून व्यवस्था का जिक्र कर अपने दलित-मुस्लिम एजेंडे पर आगे बढ़ रही थीं, लेकिन अखिलेश यादव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यही जताने की कोशिश कर रहे थे कि उनके लिए सबसे अहम है - सबका साथ, सबका विकास.

अखिलेश तो बाद में भी एक्सप्रेस-वे और मेट्रो के साथ यूपी में विकास की बात करते रहे, लेकिन बीजेपी के स्टार प्रचारकों के अंदाज बिलकुल बदल गये. कहां सर्जिकल स्ट्राइक से मजबूत इरादे और नोटबंदी से स्वच्छ प्रशासन और भ्रष्टाचार की बात शुरू हुई थी, कहां अखिलेश यादव के गोत्रोचार पर जाकर टिक गयी. ये नोटबंदी से उपजी खीझ से लोगों का ध्यान हटाने की रणनीति भी हो सकती है.

लड़ाई बीएसपी से लेकिन बात समाजवादी गठबंधन की!

दो चरणों के वोटिंग के इर्द गिर्द प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और केशव मौर्य के भाषणों पर गौर करें तो पाते हैं कि बात विकास से ज्यादा अखिलेश यादव निजी हमले और उन्हें जेल भेजने पर पहुंच गयी.

मोदी और शाह की बातें सुनें तो बीजेपी की अलग ही रणनीति समझ में आती है. मोदी अखिलेश को लगातार टारगेट करते हैं तो शाह समझाते हैं कि उनकी लड़ाई बीएसपी से है.

तो क्या जिसे चुनावी महाभारत कहा जाता रहा उसमें अब जम्हूरियत की जंग जैसी बात नहीं बची, बल्कि हर कोई नये जमाने का धर्म युद्ध लड़ रहा है?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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