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यूपी उपचुनावों में आरएलडी को जेडीयू का सपोर्ट क्या कहता है?

    • आईचौक
    • Updated: 02 फरवरी, 2016 10:45 PM
  • 02 फरवरी, 2016 10:45 PM
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अगर 2017 के लिए महागठबंधन जैसी कोई इमारत खड़ी होनी है तो ये उपचुनाव उसकी नींव की ईंट तो साबित हो ही सकता है.

उपचुनावों के नतीजे अमूमन पूर्वानुमानित होते हैं. वजह चाहे जब भी और जो भी रहे हों, सत्ताधारी पार्टी ही फायदे में देखी जाती रही है. हो सकता है लोगों को लगता हो वोट उसी को दिया जाए जिसकी सत्ता है, बाकियों के जीतने पर भी शोर शराबे से ज्यादा कुछ तो मिलने वाला नहीं.

13 फरवरी को यूपी में हो रहे उपचुनाव भी उतने अहम नहीं होते - अगर अगले साल विधानसभा चुनाव नहीं होने होते. इस उपचुनाव में पार्टियों की भागीदारी और नतीजों में हिस्सेदारी हर किसी के मिशन 2017 की दशा और दिशा दोनों तय करने वाले हैं.

बस कहने को उपचुनाव

जिन तीन सीटों पर चुनाव होने हैं वे निवर्तमान विधायकों की मौत से खाली हुई हैं. ये तीनों ही समाजवादी पार्टी के विधायक थे. फैजाबाद के बीकापुर विधायक मित्रसेन यादव, मुजफ्फरनगर की सदर सीट से चितरंजन स्वरुप और सहारनपुर के देवबंद से राजेंद्र सिंह राणा की मौत के बाद ये सीटें खाली थीं.

ये तीनों सीटें समाजवादी पार्टी के लिए महत्वपूर्ण तो हैं ही, अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के लिए ज्यादा अहम हो गये हैं. मुजफ्फरनगर को किसान राजनीति का गढ़ माना जाता है और वहां की सदर सीट पर उपचुनाव अजीत सिंह के लिए अग्नि परीक्षा जैसा माना जा रहा है. मुजफ्फरनगर की सदर सीट इसलिए भी खास हो जाती है क्योंकि आरएलडी अति पिछड़ों, जाट और अल्पसंख्यकों को लेकर अपना खोया जनाधार जुटाने की जीतोड़ कोशिश कर रहा है.

इतना ही नहीं इस सीट का नतीजा आरएलडी के लिए चुनावी महागठबंधन की राह भी दिखा सकता है. नतीजों के हिसाब से ही संभावित गठबंधन में आरएलडी की भूमिका भी निर्धारित होगी - अर्थात् सीटों पर दावेदारी बनेगी.

महागठबंधन की नींव

अगर 2017 के लिए महागठबंधन जैसी कोई इमारत खड़ी होनी है तो ये उपचुनाव उसकी नींव की ईंट तो साबित हो ही सकता है.

जेडीयू ने तो घोषणा कर ही दी है कि वो इस उपचुनाव में आरएलडी के उम्मीदवारों को समर्थन दे रहा है. फिर तो इतना तो माना ही जा सकता है कि अगले साल के विधानसभा...

उपचुनावों के नतीजे अमूमन पूर्वानुमानित होते हैं. वजह चाहे जब भी और जो भी रहे हों, सत्ताधारी पार्टी ही फायदे में देखी जाती रही है. हो सकता है लोगों को लगता हो वोट उसी को दिया जाए जिसकी सत्ता है, बाकियों के जीतने पर भी शोर शराबे से ज्यादा कुछ तो मिलने वाला नहीं.

13 फरवरी को यूपी में हो रहे उपचुनाव भी उतने अहम नहीं होते - अगर अगले साल विधानसभा चुनाव नहीं होने होते. इस उपचुनाव में पार्टियों की भागीदारी और नतीजों में हिस्सेदारी हर किसी के मिशन 2017 की दशा और दिशा दोनों तय करने वाले हैं.

बस कहने को उपचुनाव

जिन तीन सीटों पर चुनाव होने हैं वे निवर्तमान विधायकों की मौत से खाली हुई हैं. ये तीनों ही समाजवादी पार्टी के विधायक थे. फैजाबाद के बीकापुर विधायक मित्रसेन यादव, मुजफ्फरनगर की सदर सीट से चितरंजन स्वरुप और सहारनपुर के देवबंद से राजेंद्र सिंह राणा की मौत के बाद ये सीटें खाली थीं.

ये तीनों सीटें समाजवादी पार्टी के लिए महत्वपूर्ण तो हैं ही, अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के लिए ज्यादा अहम हो गये हैं. मुजफ्फरनगर को किसान राजनीति का गढ़ माना जाता है और वहां की सदर सीट पर उपचुनाव अजीत सिंह के लिए अग्नि परीक्षा जैसा माना जा रहा है. मुजफ्फरनगर की सदर सीट इसलिए भी खास हो जाती है क्योंकि आरएलडी अति पिछड़ों, जाट और अल्पसंख्यकों को लेकर अपना खोया जनाधार जुटाने की जीतोड़ कोशिश कर रहा है.

इतना ही नहीं इस सीट का नतीजा आरएलडी के लिए चुनावी महागठबंधन की राह भी दिखा सकता है. नतीजों के हिसाब से ही संभावित गठबंधन में आरएलडी की भूमिका भी निर्धारित होगी - अर्थात् सीटों पर दावेदारी बनेगी.

महागठबंधन की नींव

अगर 2017 के लिए महागठबंधन जैसी कोई इमारत खड़ी होनी है तो ये उपचुनाव उसकी नींव की ईंट तो साबित हो ही सकता है.

जेडीयू ने तो घोषणा कर ही दी है कि वो इस उपचुनाव में आरएलडी के उम्मीदवारों को समर्थन दे रहा है. फिर तो इतना तो माना ही जा सकता है कि अगले साल के विधानसभा चुनाव में कम से कम जेडीयू और आरएलडी तो साथ साथ मैदान में उतर ही सकते हैं.

इससे एक और संकेत मिलता है कि जेडीयू और आरएलडी के साथ अगर कोई महागठबंधन जैसी कोशिश होती है तो उसमें कांग्रेस भी शामिल हो सकती है. क्योंकि ऐसा तो नामुमकिन जैसा है कि जेडीयू फिलहाल किसी ऐसी पार्टी के साथ हाथ मिला पाएगा जो कांग्रेस के खिलाफ हो. जेडीयू और कांग्रेस के साथ आरजेडी का भी हक बनता है. वैसे भी आरजेडी के साथ वैसी मजबूरी नहीं है जैसी जेडीयू के सामने कांग्रेस को लेकर है.

लखनऊ पहुंचे जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव संकेत दे ही चुके हैं कि इस महागठबंधन का हिस्सा मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी नहीं होगी. बिहार में महागठबंधन छोड़ते हुए मुलायम सिंह ने कांग्रेस को टारगेट किया था.

ऐसी हालत में लालू प्रसाद के सामने थोड़ी निजी मुश्किल हो सकती है कि वो अपने रिश्तेदार मुलायम के खिलाफ चुनाव प्रचार करें या नहीं. लालू खुद ही इसका फैसला करेंगे. नीतीश मंत्रिमंडल के शपथग्रहण समारोह से दूरी बनाकर मुलायम ने लालू का ये बोझ पहले ही हल्का कर दिया है. लालू ने भी मुलायम के जन्मदिन पर सैफई न जाकर तात्कालिक हिसाब बराबर कर ही लिया है. जब बात चुनाव प्रचार की आएगी तब भी लालू पर किसी के लिए दबाव बनाना मुश्किल होगा क्योंकि फिलहाल महागठबंधन में लालू का ही दबदबा है.

चर्चा है कि जिस तरह असम में बदरुद्दीन अजमल को महागठबंधन में लाने की नीतीश कोशिश कर रहे हैं, उसी तरह यूपी में मायावती को भी जोड़ने की कोशिशें जारी हैं.

इन सारी कवायद का मकसद बीजेपी के खिलाफ धर्म निरपेक्ष दलों को एकजुट करना है. तो क्या सारी पार्टियां बीजेपी को ही बड़ा फैक्टर मान रही हैं, मायावती को नहीं. अगर ऐसा है तो ये बड़ी भूल भी साबित हो सकती है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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