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अपर्णा यादव की मेनका गांधी से तुलना की वजह बहुत वाजिब है

    • आईचौक
    • Updated: 21 सितम्बर, 2017 08:12 PM
  • 21 सितम्बर, 2017 08:12 PM
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अपर्णा की बीजेपी से नजदीकियों पर इसलिए भी कम ही लोगों को हैरानी हो रही होगी क्योंकि आइडियोलॉजी के हिसाब से वो बीजेपी के काफी करीब लगती हैं.

सोशल मीडिया पर वो तस्वीर खूब शेयर हो रही है. लखनऊ के कान्हा उपवन के गोशाला में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी गाय को खिला रहे हैं - और उनकी बगल में अपर्णा यादव खड़ी हैं. इस तस्वीर के सियासी मायने निकाले जा रहे हैं और उसकी खास वजह भी है. कई जगह तस्वीर के साथ लिखा है - ये तस्वीर कुछ कह रही है. सही बात है, हर तस्वीर कुछ कहती है - ये वाली कुछ ज्यादा कह रही हो सकती है.

मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव की मेनका गांधी से तुलना हो रही है और ये तुलना अनायास नहीं है.

वो शिष्टाचार मुलाकात

यूपी के मुख्यमंत्री के शपथग्रहण के मौके पर अखिलेश यादव मौजूद रहे और मुलायम सिंह ने तो मौका लगते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कान में फुसफुसा भी दिया जिसको लेकर चर्चाओं के दौर चलते रहे. यहां तक कि संसद में भी मुलायम सिंह से एक सांसद ने पूछ ही लिया - अब बता भी दीजिए. अपर्णा यादव भी अगर उस मंच पर होतीं तो बात कुछ और होती. अगर होतीं तो प्रधानमंत्री के साथ एक सेल्फी तो पक्की थी. खैर, अपर्णा ने अपनी ओर से पहल की और पति प्रतीक यादव के साथ मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी से मिलने पहुंचीं. बाहर निकलीं तो सवाल इंतजार कर रहे थे, उन्हें अंदाजा रहा होगा इसलिए जवाब भी तैयार था - बस एक शिष्टाचार मुलाकात रही. इस शिष्टाचार मुलाकात के पीछे की सियासत तब चर्चा में आई जब योगी अपर्णा के बुलावे पर उनके एनजीओ के गोशाला पहुंचे थे. शिष्टाचार की सियासत कहां तक पहुंची है ये अभी साफ नहीं है.

फिर भी अपर्णा यादव अगर बीजेपी को लेकर कोई फैसला करती हैं तो मेनका गांधी उनके लिए बेहतरीन केस स्टडी हो सकती हैं. अपर्णा को मेनका की तरह बीजेपी में काफी कुछ मिल सकता है लेकिन उसका एक सीमित दायरा भी है. मेनका गांधी का मंत्री बने रहना और उनके बेटे वरुण गांधी का मुख्यमंत्री पद के लिए पत्ता कट जाना ऐसे उदाहरण हैं जो अपर्णा को फैसले लेने में मददगार साबित हो सकते हैं.

सोशल मीडिया पर वो तस्वीर खूब शेयर हो रही है. लखनऊ के कान्हा उपवन के गोशाला में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी गाय को खिला रहे हैं - और उनकी बगल में अपर्णा यादव खड़ी हैं. इस तस्वीर के सियासी मायने निकाले जा रहे हैं और उसकी खास वजह भी है. कई जगह तस्वीर के साथ लिखा है - ये तस्वीर कुछ कह रही है. सही बात है, हर तस्वीर कुछ कहती है - ये वाली कुछ ज्यादा कह रही हो सकती है.

मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव की मेनका गांधी से तुलना हो रही है और ये तुलना अनायास नहीं है.

वो शिष्टाचार मुलाकात

यूपी के मुख्यमंत्री के शपथग्रहण के मौके पर अखिलेश यादव मौजूद रहे और मुलायम सिंह ने तो मौका लगते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कान में फुसफुसा भी दिया जिसको लेकर चर्चाओं के दौर चलते रहे. यहां तक कि संसद में भी मुलायम सिंह से एक सांसद ने पूछ ही लिया - अब बता भी दीजिए. अपर्णा यादव भी अगर उस मंच पर होतीं तो बात कुछ और होती. अगर होतीं तो प्रधानमंत्री के साथ एक सेल्फी तो पक्की थी. खैर, अपर्णा ने अपनी ओर से पहल की और पति प्रतीक यादव के साथ मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी से मिलने पहुंचीं. बाहर निकलीं तो सवाल इंतजार कर रहे थे, उन्हें अंदाजा रहा होगा इसलिए जवाब भी तैयार था - बस एक शिष्टाचार मुलाकात रही. इस शिष्टाचार मुलाकात के पीछे की सियासत तब चर्चा में आई जब योगी अपर्णा के बुलावे पर उनके एनजीओ के गोशाला पहुंचे थे. शिष्टाचार की सियासत कहां तक पहुंची है ये अभी साफ नहीं है.

फिर भी अपर्णा यादव अगर बीजेपी को लेकर कोई फैसला करती हैं तो मेनका गांधी उनके लिए बेहतरीन केस स्टडी हो सकती हैं. अपर्णा को मेनका की तरह बीजेपी में काफी कुछ मिल सकता है लेकिन उसका एक सीमित दायरा भी है. मेनका गांधी का मंत्री बने रहना और उनके बेटे वरुण गांधी का मुख्यमंत्री पद के लिए पत्ता कट जाना ऐसे उदाहरण हैं जो अपर्णा को फैसले लेने में मददगार साबित हो सकते हैं.

एक शिष्टाचार मुलाकात और...

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ सेल्फी को लेकर अपर्णा खूब चर्चा में रहीं है. एक बार जब उनसे इस बारे में पूछा गया तो सीधा सा जवाब था - इसमें गलत क्या है? बात तो सही है, प्रधानमंत्री वैसे भी देश का होता है भले ही वो किसी पार्टी से होकर आता हो. राहुल गांधी जब भी ये बात भूल जाते हैं - आपके प्रधानमंत्री बोलने लगते हैं. लेकिन जैसे ही बीजेपी नेता उन्हें याद दिलाते हैं वो तुरंत मान भी जाते हैं और कहते हैं - हमारे प्रधानमंत्री.

अपर्णा की बीजेपी से नजदीकियों पर इसलिए भी कम ही लोगों को हैरानी हो रही होगी क्योंकि आइडियोलॉजी के हिसाब से वो बीजेपी के काफी करीब लगती हैं.

शिष्टाचार की राजनीति

सवाल ये है कि क्या बीजेपी को अपर्णा की अब कोई जरूरत है? या अगर अपर्णा बीजेपी में आना चाहती हैं तो वो यूं ही स्वागत करेगी? अपर्णा ने यही शिष्टाचार अगर चुनाव से पहले दिखाया होता तो तय था बीजेपी उन्हें हाथों हाथ लेती. ठीक वैसे ही जैसे स्वामी प्रसाद मौर्य और रीता बहुगुणा जोशी को लिया. संभव था, अपर्णा को भी लखनऊ की किसी और सीट से टिकट मिलता और वो भी मंत्री बन चुकी होतीं. अब बीजेपी को अपर्णा को लेकर वैसी जरूरत नहीं होगी. लेकिन अगर उसे लगता है कि अपर्णा के बीजेपी में आने से समाजवादी पार्टी को कुछ और चोट पहुंचाई जा सकती है तो बात और है.

वैसे तो जब भी कोई अहम नेता किसी बड़ी पार्टी से निकलता है विपक्षी पार्टियां कम से कम उस वक्त तो हाथों हाथ ही लेती हैं. बीजेपी में तो फिलहाल इनकी बहार ही देखी जा रही है. मणिपुर में कुछ ही महीने पहले बीजेपी ज्वाइन करने वाले को सीएम की कुर्सी मिल गयी तो उत्तराखंड में पुराने कांग्रेसी मंत्री बन चुके हैं. यूपी कैबिनेट का हाल भी तकरीबन वैसा ही है. बीजेपी में अपने बुजुर्गों के लिए भले ही मार्गदर्शक मंडल बना हुआ हो, लेकिन बाहरी बुजुर्गों का तो तहे दिल से स्वागत है - ताजा मिसाल कर्नाटक में एसएम कृष्णा हैं.

अब ये देखा जाये कि अपर्णा के लिए फिलहाल बीजेपी में जाना ठीक रहेगा या समाजवादी पार्टी में बने रहना? समाजवादी पार्टी में फिलहाल उन्हें कोई दिक्कत नहीं है. अंतर बस इतना है कि पार्टी सत्ता से बाहर है और संभावनाएं भी पांच साल दूर हैं. ये भी साफ है कि अपर्णा की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को लेकर अखिलेश यादव बहुत सहत तो नहीं ही होंगे. वो भी तब जबकि उनकी सास साधना यादव बहू ही नहीं बेटे प्रतीक के लिए भी राजनीति में जगह बनाने को लेकर बेचैन हैं. कह भी चुकी हैं - अब और अपमान नहीं सहने वाली.

अपर्णा को वैसे भी शिवपाल गुट का माना जाता रहा, लेकिन उनके चुनाव प्रचार के लिए अखिलेश यादव और डिंपल यादव दोनों पहुंचे थे. असल में, मुलायम के कहने पर अखिलेश ने कई टिकट दिये थे जिनमें अपर्णा और शिवपाल यादव का टिकट भी शामिल था.

तो क्या अपर्णा और योगी की ये मुलाकातें ऐसी किसी स्ट्रैटेजी के तहत हो रही हैं? क्या अपर्णा यादव भी नीतीश कुमार की तरह कुछ ऐसा कर रही हैं कि बीजेपी से उनकी नजदीकियों की चर्चा हो और समाजवादी पार्टी में उनका प्रभाव बढ़े? ऐसी तमाम संभावनाएं हैं जिनकी असलियत शिष्टाचार मुलाकात की ही तरह बाद में सामने आएगी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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