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म्यांमार की दिलचस्प राजनीति जिसे जानना आपके लिए जरूरी है

    • अभिषेक पाण्डेय
    • Updated: 15 नवम्बर, 2015 05:51 PM
  • 15 नवम्बर, 2015 05:51 PM
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लगभग दो दशक तक सैन्य शासन के खिलाफ लड़ने वाली आंग सान के संघर्षों का नतीजा म्यांमार में लोकतंत्र बहाली के रूप में सामने आया है. इस जीत से लगभग पांच दशक से चले आ रहे है सैन्य शासन के अंत की शुरुआत हो गई है.

म्यांमार ने सैन्य शासन के चंगुल से निकलकर लोकतंत्र बहाली की तरफ ऐतिहासिक कदम बढ़ा दिए हैं. नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और म्यांमार की लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की की पार्टी नैशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) को हाल ही मे म्यामांर में हुए चुनावों में मिली भारी जीत से यहां लगभग पांच दशक से चले आ रहे है सैन्य शासन के अंत की शुरुआत हो गई है.

इस भारी जीत से न सिर्फ सू की पार्टी को सैन्य शासकों को सत्ता से बेदखल करने का मौका मिलेगा बल्कि राष्ट्रपति पद पर भी उनकी ही पार्टी का दांव होगा. दशकों तक सैन्य शासन का दंश झेलने वाले इस दक्षिण पूर्वी एशियाई देश के लिए लोकतंत्र की बहाली के क्या मायने हैं और कैसे यह दुनिया के बाकी सैन्य शासित देशों के लिए भी उम्मीद की किरण जगाते हैं, जानिए.

आंग सान सू के यादगार संघर्ष की जीतः
लगभग दो दशक तक सैन्य शासन के खिलाफ लड़ने वाली आंग सान के संघर्षों का नतीजा म्यांमार में लोकतंत्र बहाली के रूप में सामने आया है. सूकी के अदम्य संघर्ष और साहस का ही नतीजा है कि लगभग पांच दशक के सैन्य शासन का अंत होने जा रहा है. 1842 से 1948 तक अंग्रेजी शासन के अधीन रहने के बाद 1962 से ही म्यांमार को सैन्य तानाशाही का दंश झेलना पड़ा. सैन्य शासन के दौरान म्यांमार में लंबे समय तक गृह युद्ध छिड़ा रहा. इस दौरान मानवाधिकार हनन की घटनाएं चरम पर पहुंच गईं. 90 के दशक में आंग सान सू की के उभार वहां लोकतंत्र की बहाली की उम्मीद जगी. 1988 में सू की ने एनएलडी नामक पार्टी का गठन किया, 1990 में हुए चुनावों में सू की एनएलडी को भारी जीत हासिल हुई लेकिन सैन्य शासकों ने इन नतीजों को मानने से इनकार करते हुए सत्ता पर फिर से कब्जा जमा लिया और सू की को नजरबंद कर दिया गया.

1988 में म्यामांर पर कब्जा जमाने वाले सैन्य शासन को जुंटा नाम से जाना जाता है. जिसे SPDC (स्टेट पीस एंड डेवलेपमेंट काउंसिल ) भी कहा जाता है. मानवाधिकारों और लोकतंत्र की लड़ाई के लिए सू को वर्ष 1991 में नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया. 2010 में...

म्यांमार ने सैन्य शासन के चंगुल से निकलकर लोकतंत्र बहाली की तरफ ऐतिहासिक कदम बढ़ा दिए हैं. नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और म्यांमार की लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की की पार्टी नैशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) को हाल ही मे म्यामांर में हुए चुनावों में मिली भारी जीत से यहां लगभग पांच दशक से चले आ रहे है सैन्य शासन के अंत की शुरुआत हो गई है.

इस भारी जीत से न सिर्फ सू की पार्टी को सैन्य शासकों को सत्ता से बेदखल करने का मौका मिलेगा बल्कि राष्ट्रपति पद पर भी उनकी ही पार्टी का दांव होगा. दशकों तक सैन्य शासन का दंश झेलने वाले इस दक्षिण पूर्वी एशियाई देश के लिए लोकतंत्र की बहाली के क्या मायने हैं और कैसे यह दुनिया के बाकी सैन्य शासित देशों के लिए भी उम्मीद की किरण जगाते हैं, जानिए.

आंग सान सू के यादगार संघर्ष की जीतः
लगभग दो दशक तक सैन्य शासन के खिलाफ लड़ने वाली आंग सान के संघर्षों का नतीजा म्यांमार में लोकतंत्र बहाली के रूप में सामने आया है. सूकी के अदम्य संघर्ष और साहस का ही नतीजा है कि लगभग पांच दशक के सैन्य शासन का अंत होने जा रहा है. 1842 से 1948 तक अंग्रेजी शासन के अधीन रहने के बाद 1962 से ही म्यांमार को सैन्य तानाशाही का दंश झेलना पड़ा. सैन्य शासन के दौरान म्यांमार में लंबे समय तक गृह युद्ध छिड़ा रहा. इस दौरान मानवाधिकार हनन की घटनाएं चरम पर पहुंच गईं. 90 के दशक में आंग सान सू की के उभार वहां लोकतंत्र की बहाली की उम्मीद जगी. 1988 में सू की ने एनएलडी नामक पार्टी का गठन किया, 1990 में हुए चुनावों में सू की एनएलडी को भारी जीत हासिल हुई लेकिन सैन्य शासकों ने इन नतीजों को मानने से इनकार करते हुए सत्ता पर फिर से कब्जा जमा लिया और सू की को नजरबंद कर दिया गया.

1988 में म्यामांर पर कब्जा जमाने वाले सैन्य शासन को जुंटा नाम से जाना जाता है. जिसे SPDC (स्टेट पीस एंड डेवलेपमेंट काउंसिल ) भी कहा जाता है. मानवाधिकारों और लोकतंत्र की लड़ाई के लिए सू को वर्ष 1991 में नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया. 2010 में 15 सालों तक नजरंबद रखने के बाद भारी अंतर्राष्ट्रीय दबावों के बाद आखिरकार जुंटा शासन ने सू की को रिहा किया. 2011 में म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली की ओर कदम बढ़ाते हुए सेना के पूर्व जनरल थियान सेन को राष्ट्रपति बनाकर अर्ध असैन्य सरकार का गठन किया. हालांकि इस सरकार में ज्यादातर पद सेना के ही लोगों ने संभाल रखा था. 2012 में हुए संसदीय उपचुनावों सू की पार्टी ने 45 में से 43 सीटों पर जोरदार जीत हासिल की. इसके बाद इस साल नवंबर में हुए चुनावों में सू की के एनएलडी को भारी बहुमत हासिल हुआ और म्यांमार में पांच दशक लंबे सैन्य शासन के अंत का रास्ता साफ हो गया.

आंग सान सू के बारे में कम ही लोग जानते हैं कि उन्होंने दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से पढ़ाई की है और 1987 में कुछ समय शिमला के इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी में फेलो के तौर पर भी बिताया है. सू की के पिता महान स्वतंत्रता सेनानी और म्यांमार सेना के संस्थापर आंग सान हैं जबकि उनकी मां डाउ यीन खीं भारत में राजदूत थीं.

म्यांमार में अब कौन संभालेगा सत्ता?
म्यांमार की राजनीति में आंग सान सू की के विशालकाय कद को देखते हुए उनका नाम ही सबसे ऊपर है. हालांकि सू की के देश का राष्ट्रपति बनने की राह में सबसे बड़ी बाधा का वह संवैधानिक नियम है जिसके मुताबिक किसी विदेशी नागरिक से शादी करने वाला कोई भी शख्स देश का राष्ट्रपति नहीं बन सकता है. सू की ने ब्रिटिश नागरिक से शादी की है और उनके बच्चों के पास ब्रिटेन का पासपोर्ट है. सू की ने कहा है कि सरकार चलाने के लिए अपना प्रतिनिधि चुनेंगी लेकिन नीति निर्माण को अपने हाथ में रखेंगी.

पाकिस्तान जैसे देशों के लिए भी उम्मीद की किरणः
म्यांमार में लंबे समय से जारी सैन्य शासन के अंत के बाद दुनिया के कुछ अन्य देशों में भी ऐसा ही होने की उम्मीद है. इनमें लीबिया, थाईलैंड और कुछ वर्षों पहले तक सद्दाम हुसैन के शासन में रहे इराक का नाम लिया जा सकता है. लीबिया में 1969 से, थाईलैंड में 2006 से, इराक में 1979 से 2003 तक और 1947 में पाकिस्तान के गठन के बाद से ही वहां कभी लोकतंत्र ज्यादा दिन जी नहीं सका है और वहां ज्यादातर समय सत्ता पर सैन्य तानाशाहों का ही कब्जा रहा है. म्यांमार में सैन्य शासन के दौरान देश की अर्थव्यवस्था पंगु हो गई थी. यही हाल पाकिस्तान समेत दुनिया के उन सभी देशों का हुआ है जहां लंबे समय से सैन्य शासन लागू रहा है. इन सभी देशों में सैन्य शासन के तहत नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन, अल्पसंख्यकों पर अत्याचार, आर्थिक विकास में गिरावट, गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी में बढ़ोतरी जैसी समस्याएं सामने आती रही हैं. म्यांमार में लोकतंत्र की वापसी से इन सभी देशों में भी देर-सबेर ऐसा ही होने की उम्मीद की जा रही है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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