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अखिलेश यादव के साहस से ये बातें सीख सकते हैं राहुल गाँधी

    • अभिनव राजवंश
    • Updated: 02 जनवरी, 2017 01:19 PM
  • 02 जनवरी, 2017 01:19 PM
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जो कड़े कदम अखिलेश यादव ने लिए हैं उनसे आज देश भर में उन्हें एक विश्वसनीय युवा नेता के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन राहुल अब तक ये छवि नहीं बना पाए.

उत्तर प्रदेश में घमासान मचा है, समाजवादी पार्टी दो फाड़ में बंटती दिख रही है. मगर सत्ता के इस दंगल में जो सबसे बड़े विजेता के रूप में उभरें हैं अखिलेश यादव. अखिलेश अपनी शर्तों पर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की एक अलग छवि गढ़ते नजर आ रहे हैं. आज अखिलेश की स्वीकार्यता उनके पार्टी से इत्तर आम लोगों के बीच भी है. हालाँकि, अखिलेश ने अपनी छवि गढ़ने के लिए कुछ कड़े फैसले भी लिए और साथ ही अपने बाप-चाचा को नाराज़ करने से भी गुरेज नहीं की. आज अखिलेश ने अपनी पार्टी से ऊपर अपनी अलग छाप छोड़ी है. आज देश भर में उन्हें एक विश्वसनीय युवा नेता के रूप में देखा जा रहा है.

ये भी पढ़ें-राजनीति का ऊँट: किस्सए टिकट - संग्राम

वहीं अगर बात करें एक और युवा नेता राहुल गाँधी की जिनसे पूरे देश को बहुत उम्मीदें थी, अब तक कोई खास छाप छोड़ने में नाकामयाब रहे हैं. राहुल गाँधी अपनी अलग छवि गढ़ने के बजाय अब तक अपने परिवार की ही संस्कृति को आगे बढ़ाते नजर आए हैं. राहुल कड़े फैसले लेने से अब तक बचते रहे हैं जो उनके और उनकी पार्टी के लिए आवश्यक है. ऐसे में वर्तमान में अखिलेश द्वारा अपनी छवि गढ़ने के लिए लिए गए कठोर फैसले राहुल गाँधी के लिए भी एक सीख हो सकती है, जो उनके और उनकी पार्टी के लिए संजीवनी का काम कर सकती है.

अखिलेश यादव : परिवार के साए से निकल बनाई खुद की पहचान...

साल 2012 में अखिलेश यादव ने जिस आक्रामक तरीके से उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचारों में बढ-चढ़ कर हिस्सा लिया था उसके बाद ये उम्मीद जाग गई थी कि प्रदेश को एक बेहतर युवा नेता मिला है. मगर अपने शुरूआती 2-3 सालों में अखिलेश समाजवादी पार्टी की परंपरा को ही आगे बढ़ाते दिखे, अखिलेश अपने बाप- चाचा की राजनीती से बाहर निकलते नहीं दिखे. मगर अखिलेश के युवा राजनीतिज्ञ दिमाग ने ये जल्दी ही भांप लिया की अगर राजनीति में लंबी पारी खेलनी...

उत्तर प्रदेश में घमासान मचा है, समाजवादी पार्टी दो फाड़ में बंटती दिख रही है. मगर सत्ता के इस दंगल में जो सबसे बड़े विजेता के रूप में उभरें हैं अखिलेश यादव. अखिलेश अपनी शर्तों पर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की एक अलग छवि गढ़ते नजर आ रहे हैं. आज अखिलेश की स्वीकार्यता उनके पार्टी से इत्तर आम लोगों के बीच भी है. हालाँकि, अखिलेश ने अपनी छवि गढ़ने के लिए कुछ कड़े फैसले भी लिए और साथ ही अपने बाप-चाचा को नाराज़ करने से भी गुरेज नहीं की. आज अखिलेश ने अपनी पार्टी से ऊपर अपनी अलग छाप छोड़ी है. आज देश भर में उन्हें एक विश्वसनीय युवा नेता के रूप में देखा जा रहा है.

ये भी पढ़ें-राजनीति का ऊँट: किस्सए टिकट - संग्राम

वहीं अगर बात करें एक और युवा नेता राहुल गाँधी की जिनसे पूरे देश को बहुत उम्मीदें थी, अब तक कोई खास छाप छोड़ने में नाकामयाब रहे हैं. राहुल गाँधी अपनी अलग छवि गढ़ने के बजाय अब तक अपने परिवार की ही संस्कृति को आगे बढ़ाते नजर आए हैं. राहुल कड़े फैसले लेने से अब तक बचते रहे हैं जो उनके और उनकी पार्टी के लिए आवश्यक है. ऐसे में वर्तमान में अखिलेश द्वारा अपनी छवि गढ़ने के लिए लिए गए कठोर फैसले राहुल गाँधी के लिए भी एक सीख हो सकती है, जो उनके और उनकी पार्टी के लिए संजीवनी का काम कर सकती है.

अखिलेश यादव : परिवार के साए से निकल बनाई खुद की पहचान...

साल 2012 में अखिलेश यादव ने जिस आक्रामक तरीके से उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचारों में बढ-चढ़ कर हिस्सा लिया था उसके बाद ये उम्मीद जाग गई थी कि प्रदेश को एक बेहतर युवा नेता मिला है. मगर अपने शुरूआती 2-3 सालों में अखिलेश समाजवादी पार्टी की परंपरा को ही आगे बढ़ाते दिखे, अखिलेश अपने बाप- चाचा की राजनीती से बाहर निकलते नहीं दिखे. मगर अखिलेश के युवा राजनीतिज्ञ दिमाग ने ये जल्दी ही भांप लिया की अगर राजनीति में लंबी पारी खेलनी है तो अपनी एक अलग लकीर खींचनी होगी जो की अपने परिवार के साए से बाहर निकल कर ही संभव है. इसके बाद अखिलेश ने काफी परिपक्व तरीके से पिता से बगावत करने से पहले अपनी छवि गढ़ने की ओर कदम बढ़ाए.

 शुरुआत में अखिलेश ने भी अपनी छवी पार्टी की छवी के साथ चले, लेकिन अब उनकी रणनीति बदल गई है

अखिलेश ने अपने कार्यकाल के आखिरी डेढ़ -दो सालों में पूरे प्रदेश में जम कर काम किया. अखिलेश ने इस दौरान बड़ी सतर्कता से अपने सलाहकार मंडली में ईमानदार लोगों को जगह दी. अपने बेहतर नेतृत्व क्षमता के बल पर अखिलेश ने न केवल अपने प्रशंसकों को बल्कि विरोधियों को भी दबे जुबान में सही यह कहने पर मजबूर कर दिया की उन्होंने हाल के वर्षों में अच्छा काम किया है. आज जब समाजवादी पार्टी टूट के कगार पर है तो अखिलेश की यही छवि उनकी सबसे बड़ी ताकत बन कर उभरी है. लोगों को उनमें एक कर्मठ युवा नेता दिख रहा है. हो सकता है आगामी विधानसभा चुनावों में अखिलेश सत्ता से दूर हो जाएँ मगर अखिलेश इसमें भी विजेता ही कहे जाएंगे क्योंकि वो अपनी एक अलग लकीर खींचने में कामयाब रहे हैं. अखिलेश ने अपने को लंबी रेस का घोड़ा तो मनवा ही लिया है.

ये भी पढ़ें- सियासी ड्रामे से विफलताओं पर परदेदारी

अपनी छाप छोड़ने में अब तक विफल रहे हैं राहुल गाँधी..

राहुल गाँधी ने जब राजनीति में अपना पदार्पण किया तब कांग्रेस के साथ पूरे देश को उनसे काफी उम्मीदें थी. लोगों को उनमें एक युवा नेता दिख रहा था, कुछ लोग तो उनमें राजीव गाँधी का रूप देख रहे थे. राहुल गाँधी को अपनी प्रतिभा साबित करने के लिए बेहतर समय भी मिला, जब 2004 के आम चुनावों में अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार को पटखनी दे दी. PA सरकार ने अपने कार्यकाल में कुछ अच्छे काम किए जिसके फलस्वरूप PA ने दूसरी बार भी सत्ता में वापसी कर ली. और इस कार्यकाल में कांग्रेस और देश को राहुल की बहुत जरुरत थी. PA के दूसरे कार्यकाल में आए दिन भ्रष्टाचार के खुलासे हो रहे थे. मगर राहुल गाँधी उस दौरान कहीं नजर नहीं आए.

 राहुल गांधी अभी भी युवा नेता की छवी नहीं बना पाए

यही वो समय था जब राहुल अपनी एक अलग छवि गढ़ सकते थे, मगर राहुल ने अपने परिवार के छत्रछाया से बाहर आने की जरुरत ही नहीं समझी. इस दौरान कांग्रेस की छवि मलिन होती गई मगर राहुल ने आगे बढ़ कर उसकी बेहतरी के लिए कुछ विशेष प्रयास नहीं किए. राहुल उस दौर में भी अपने दादी, पिता की कहानियां ही सुनाते रहे जबकि उनके पास मौका एक अलग छवि गढ़ने का था. जब अक्सर सोनिया के अस्वस्थ रहने की ख़बरें आने लगी तब भी राहुल कांग्रेस अद्यक्ष का पद संभालने से बचते ही रहे. कभी पूरे देश भर के सत्ता में काबिज कांग्रेस आज दो चार राज्यों तक सिमट कर रह गई है. इनमें कई चुनावों में राहुल ने काफी आक्रामक हो कर प्रचार भी किया मगर हार की जिम्मेदारी लेने के समय वो कांग्रेसी संस्कृति निभाते ही दिखे. राहुल आगे बढ़ कर जिम्मेदारी लेते नहीं दिखे. अभी भी राहुल गाँधी अखिलेश से सीख ले अपनी और अपने पार्टी की एक बेहतर छवि गढ़ सकते हैं, ये कांग्रेस के साथ साथ देश के लिए भी बेहतर स्थिति होगी.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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