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समय आ गया है राज्य सभा की शक्तियां कम करने का

    • बैजयंत जय पांडा
    • Updated: 26 नवम्बर, 2015 06:49 PM
  • 26 नवम्बर, 2015 06:49 PM
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जनता द्वारा चुने हुए सदस्यों से बनी लोकसभा द्वारा पारित बिल मनोनीत सदस्योंर वाली राज्यतसभा में अटके रहें, यह कैसी विडंबना है?

पिछले महीने इटली की संसद में अपर हाउस सीनेट ने एक प्रस्ताव पारित किया. सीनेट ने सदस्यों की संख्या में कमी करते हुए अपनी शक्तियों में कटौती कर दी ताकि संविधान संशोधन और अन्य अहम कानून बनाने में वह बाधक न बन जाए. हालांकि, सीनेट के इस फैसले को रेफेरेंडम और लोअर हाउस से अनुमोदन लेना बाकी है, लेकिन एक बात साफ है कि लोकतंत्र में दशकों से चले आ रहे गवर्नेंस क्राइसिस के खत्म होने की शुरुआत हो चुकी है. बहरहाल, जब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अगस्त में राज्य सभा की शक्तियों पर पुनर्विचार करने की इच्छा जाहिर की तो हंगामा शुरू हो गया. विरोध होना स्वाभाविक है लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि यह उचित समय है कि इस बात पर बिना भावुक हुए चर्चा की जानी चाहिए.

सबसे पहले हमें एक बात स्पष्टता के साथ समझ लेना चाहिए कि लोकतांत्रिक सरकारें चेक और बैलेंस के सिद्धांत पर आधारित हैं. लिहाजा, लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था में दो सदनों का होना अहम है. जहां एक सदन लोकप्रिय इच्छा का प्रतीक हो और दूसरा सदन किसी तरह की भीड़तंत्र वाली मानसिकता को रोकने का काम करे.

लेकिन इटली की तरह ही भारत में भी गवर्नेंस ऐसे पसोपेश में फंसा है जहां चेक तो बहुत हैं लेकिन पर्याप्त मात्रा में बैलेंस नहीं है. दुनिया के किसी अन्य लोकतंत्र में भारत की तरह लोकप्रिय मत पर इतना अंकुश देखने को नहीं मिलता. संसद का ज्वाइंट सेशन इस समस्या का कोई विकल्प नहीं है क्योंकि न तो हम इसे बार-बार बुला सकते हैं और न ही यह संविधान में संशोधन कर सकता है. वहीं महज राज्य सभा की अड़चनों से बचने के लिए हम प्रत्येक अहम कानूनी प्रस्ताव को मनी बिल भी नहीं घोषित कर सकते.

अब यह जान लेना जरूरी है कि दुनिया के अन्य लोकतंत्र ऐसी समस्याओं से कैसे बचते हैं. सबसे पहले इंग्लैंड में संसदीय लोकतंत्र के वेस्टमिनस्टर मॉडल को देखें क्योंकि यह हमारे अपने मॉडल के लिए प्रेरणा का श्रोत रहा है. लगभग सौ साल पहले तक इंग्लैंड का हाउस ऑफ लॉर्ड्स हमारी राज्य सभा की तरह मनी बिल को छोड़कर सभी कानून के सभी प्रस्तावों को...

पिछले महीने इटली की संसद में अपर हाउस सीनेट ने एक प्रस्ताव पारित किया. सीनेट ने सदस्यों की संख्या में कमी करते हुए अपनी शक्तियों में कटौती कर दी ताकि संविधान संशोधन और अन्य अहम कानून बनाने में वह बाधक न बन जाए. हालांकि, सीनेट के इस फैसले को रेफेरेंडम और लोअर हाउस से अनुमोदन लेना बाकी है, लेकिन एक बात साफ है कि लोकतंत्र में दशकों से चले आ रहे गवर्नेंस क्राइसिस के खत्म होने की शुरुआत हो चुकी है. बहरहाल, जब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अगस्त में राज्य सभा की शक्तियों पर पुनर्विचार करने की इच्छा जाहिर की तो हंगामा शुरू हो गया. विरोध होना स्वाभाविक है लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि यह उचित समय है कि इस बात पर बिना भावुक हुए चर्चा की जानी चाहिए.

सबसे पहले हमें एक बात स्पष्टता के साथ समझ लेना चाहिए कि लोकतांत्रिक सरकारें चेक और बैलेंस के सिद्धांत पर आधारित हैं. लिहाजा, लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था में दो सदनों का होना अहम है. जहां एक सदन लोकप्रिय इच्छा का प्रतीक हो और दूसरा सदन किसी तरह की भीड़तंत्र वाली मानसिकता को रोकने का काम करे.

लेकिन इटली की तरह ही भारत में भी गवर्नेंस ऐसे पसोपेश में फंसा है जहां चेक तो बहुत हैं लेकिन पर्याप्त मात्रा में बैलेंस नहीं है. दुनिया के किसी अन्य लोकतंत्र में भारत की तरह लोकप्रिय मत पर इतना अंकुश देखने को नहीं मिलता. संसद का ज्वाइंट सेशन इस समस्या का कोई विकल्प नहीं है क्योंकि न तो हम इसे बार-बार बुला सकते हैं और न ही यह संविधान में संशोधन कर सकता है. वहीं महज राज्य सभा की अड़चनों से बचने के लिए हम प्रत्येक अहम कानूनी प्रस्ताव को मनी बिल भी नहीं घोषित कर सकते.

अब यह जान लेना जरूरी है कि दुनिया के अन्य लोकतंत्र ऐसी समस्याओं से कैसे बचते हैं. सबसे पहले इंग्लैंड में संसदीय लोकतंत्र के वेस्टमिनस्टर मॉडल को देखें क्योंकि यह हमारे अपने मॉडल के लिए प्रेरणा का श्रोत रहा है. लगभग सौ साल पहले तक इंग्लैंड का हाउस ऑफ लॉर्ड्स हमारी राज्य सभा की तरह मनी बिल को छोड़कर सभी कानून के सभी प्रस्तावों को नकार सकता था. लेकिन 1911 में इंग्लैंड ने इसे बदलते हुए नया कानून बना दिया कि हाउस ऑफ लॉर्ड्स किसी प्रस्ताव को नकार नहीं सकता और वह महज दो साल तक किसी प्रस्ताव को टाल सकता है. इसके बाद 1949 में एक बार फिर संशोधन किया गया जिसके बाद से अब तक हाउस ऑफ लॉर्ड्स किसी प्रस्ताव को महज एक साल तक टाल सकता है.

इंग्लैंड का हाउस ऑफ लॉर्ड्स एक मनोनीत सदस्यों की संस्था है. हालांकि इग्लैंड में अब इस पक्ष को भी बदलने की तैयारी हो रही है. हाउस ऑफ लॉर्ड्स का यह पक्ष भारत में राज्य सभा की भूमिका पर जारी बहस में भ्रम पैदा कर रहा है. जो लोग राज्य सभा की भूमिका पर सवाल उठा रहे हैं उनकी दलील है कि यह भी हाउस ऑफ लॉर्ड्स की तरह मनोनीत सदस्यों की संस्था है. लिहाजा, राज्य सभा में ज्यादा शक्तियां निहित होना अनुचित है. जबकि सच्चाई यह है कि राज्य सभा के 245 सदस्यों में महज 12 मनोनीत सदस्य है और बाकी सदस्यों का चुनाव होता है, भले ही यह चुनाव देश की जनता की जगह राज्यों की विधानसभाएं करती हैं. यह एक अहम अंतर है और इसीलिए इस विषय पर ज्यादा बारीकी से बहस होनी चाहिए.

हकीकत यह है कि राज्य सभा के चुनावों में पार्टी के मनोनीत सदस्यों का आना तय होता है. पिछले कुछ वर्षों में एंटी डिफेक्शन कानून और पार्टी व्हिप के चलते राज्यों में मजबूत पार्टियां राज्य सभा में अपना दबदबा कायम रखती हैं. सिद्धांत भी यही कहता है कि संसद में राज्य सभा राज्यों के पक्ष को रखती है लेकिन सच्चाई यह है कि पार्टी अथवा पार्टी नेतृत्व का पक्ष ज्यादा मजबूती के साथ रखा जाता है.

ऐसी समस्या से जूझ रहे दुनिया के कुछ और लोकतंत्रों ने इससे बचने का रास्ता निकाल लिया है. मिसाल के लिए अमेरिका के सिनेट में भी राज्य सभा की तरह सदस्यों का चुनाव राज्यों से किया जाता था. लेकिन 1913 में अमेरिका ने संविधान संशोधन करते हुए इस चुनाव को सीधे राज्यों की जनता से कराना शुरू कर दिया था.

राजनीति पर इस फैसले का नाटकीय प्रभाव पड़ा. इससे पार्टी नेतृत्व अपने उन साथियों को सदन पर नहीं थोप पाए जिनका राज्यों की जमीनी हकीकत से कोई वास्ता नहीं था. लिहाजा, भारत को भी इन दोनो तरीकों में से एक का चुनाव कर गवर्नेंस की इस क्राइसिस से निजात पाने की जरूरत है. एक तरफ इंग्लैंड या फिर इटली का अनुसरण करने पर राज्य सभा के चुनाव का तरीका वैसा ही रहेगा बस उसकी शक्तियों में कमी आ जाएगी जिससे वह अहम कानून को बनने से रोकने में असमर्थ होंगे. बहरहाल, इस दिशा में जाने पर राज्य सभा के पास अहम कानून को बनने में देरी कराने का मौका जरूर रहेगा.

वहीं अमेरिका की राह पर जाने राज्य सभा की शक्तियां बरकरार रहेंगी लेकिन उसके सदस्यों को भी लोकसभा की तरह जनता से वोट मांग कर आना होगा. इससे लोकसभा सदस्यों की तरह राज्य सभा के सदस्य भी जमीन से जुड़े रहेंगे और कानून बनाने की प्रक्रिया में उनके सामने भी लोकसभा जैसी चुनौती रहेगी.

इन दोनों विकल्पों में से एक का चुनाव करने के लिए जरूरी है कि भारत को भी अमेरिका के एक शताब्दी पहले के राष्ट्रपति थियोडोर रूसवेल्ट या फिर दो साल पहले इटली के प्रधानमंत्री माटियो रेंजी जैसा नेतृत्व मिले. ऐसा करने के लिए मौजूदा नेतृत्व को विपक्ष का विश्वास जीतना होगा. कम से कम उस विपक्ष का जो भविष्य में सत्ता में आने की सोच रहा है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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