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गुजरात : मोदी-शाह की अग्नि परीक्षा, कांग्रेस के अस्तित्व पर सवाल

    • कन्‍हैया कोष्‍टी
    • Updated: 26 अगस्त, 2017 05:33 PM
  • 26 अगस्त, 2017 05:33 PM
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इस बार का गुजरात विधानसभा चुनाव कई मायनों में बेहद खास और दिलचस्प रहने वाला है. कह सकते हैं कि ये एक ऐसा चुनाव होगा जब पूरे देश की निगाह मोदी-शाह की प्रतिष्ठा पर रहेगी क्योंकि ये चुनाव उनकी प्रतिष्ठा का चुनाव है.

लोकसभा चुनाव 2019 को अभी देर है, परंतु इससे पहले गुजरात एक सबसे बड़ा पड़ाव है. संभव है कि लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी दोबारा जीत हासिल कर ले, परंतु यदि 2017 का गुजरात पड़ाव पार न कर सकी, तो यह जीत उसके लिए फीकी मानी जाएगी. तो दूसरी तरफ कांग्रेस के लिए अब गुजरात में अपना अस्तित्व बचाए रखने का सवाल पैदा हो गया है, क्योंकि जिस तरह का घटनाक्रम पिछले दिनों हुआ, वह कांग्रेस के लिए अच्छे संकेत नहीं माने जा सकते.

हाँ जी, हम बात कर रहे हैं दिसम्बर-2017 में होने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव की. गुजरात में पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से सत्तारूढ़ भाजपा के लिए सत्ता में वापसी शायद आसान है, परंतु उसका मिशन 150+ उतना आसान नहीं है, जितना कि वह सोच रही है. वैसे तो हर चुनाव को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अग्नि परीक्षा के रूप में लिया जा सकता है, परंतु गुजरात की पूरी बात ही अलग है.

गुजरात का ये चुनाव मोदी और शाह की प्रतिष्ठा का चुनाव है

सबसे अहम बात यह है कि गुजरात मोदी और शाह का गृह राज्य है और इसीलिए यहाँ चुनावी समर में महाविजय हासिल करना मोदी और शाह के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न है. गुजरात में 1989 से भाजपा का जोर रहा है और 1995 से लगातार भाजपा विधानसभा चुनाव जीतती आ रही है. पूर्व के चुनावों के खेवैया कई नेता रहे होंगे, परंतु उस समय राज्य में भाजपा को एक तरफ राम लहर और दूसरी तरफ कांग्रेस विरोधी लहर का फायदा मिला और भाजपा आसानी से चुनाव जीतती रही. यह सिलसिला 2002 के गुजरात दंगों के बाद भी चलता रहा, क्योंकि राम मंदिर मुद्दे के बाद गुजरात दंगों ने हिन्दू मतों का ध्रुवीकरण में और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

2002 से बदला परिदृश्य

2002 से पहले भाजपा ने गुजरात में 1995 और 1998 में दो तिहाई...

लोकसभा चुनाव 2019 को अभी देर है, परंतु इससे पहले गुजरात एक सबसे बड़ा पड़ाव है. संभव है कि लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी दोबारा जीत हासिल कर ले, परंतु यदि 2017 का गुजरात पड़ाव पार न कर सकी, तो यह जीत उसके लिए फीकी मानी जाएगी. तो दूसरी तरफ कांग्रेस के लिए अब गुजरात में अपना अस्तित्व बचाए रखने का सवाल पैदा हो गया है, क्योंकि जिस तरह का घटनाक्रम पिछले दिनों हुआ, वह कांग्रेस के लिए अच्छे संकेत नहीं माने जा सकते.

हाँ जी, हम बात कर रहे हैं दिसम्बर-2017 में होने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव की. गुजरात में पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से सत्तारूढ़ भाजपा के लिए सत्ता में वापसी शायद आसान है, परंतु उसका मिशन 150+ उतना आसान नहीं है, जितना कि वह सोच रही है. वैसे तो हर चुनाव को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अग्नि परीक्षा के रूप में लिया जा सकता है, परंतु गुजरात की पूरी बात ही अलग है.

गुजरात का ये चुनाव मोदी और शाह की प्रतिष्ठा का चुनाव है

सबसे अहम बात यह है कि गुजरात मोदी और शाह का गृह राज्य है और इसीलिए यहाँ चुनावी समर में महाविजय हासिल करना मोदी और शाह के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न है. गुजरात में 1989 से भाजपा का जोर रहा है और 1995 से लगातार भाजपा विधानसभा चुनाव जीतती आ रही है. पूर्व के चुनावों के खेवैया कई नेता रहे होंगे, परंतु उस समय राज्य में भाजपा को एक तरफ राम लहर और दूसरी तरफ कांग्रेस विरोधी लहर का फायदा मिला और भाजपा आसानी से चुनाव जीतती रही. यह सिलसिला 2002 के गुजरात दंगों के बाद भी चलता रहा, क्योंकि राम मंदिर मुद्दे के बाद गुजरात दंगों ने हिन्दू मतों का ध्रुवीकरण में और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

2002 से बदला परिदृश्य

2002 से पहले भाजपा ने गुजरात में 1995 और 1998 में दो तिहाई बहुमत हासिल किया, परंतु उस समय इस विजय का श्रेय व्यक्ति विशेष को नहीं देने की परम्परा नहीं थी, परंतु 2002 के बाद हालात बदले और केशुभाई पटेल के स्थान पर मुख्यमंत्री बनाए गए नरेन्द्र मोदी एक नायक के रूप में उभरे. गुजरात दंगों के बाद समग्र देश में आलोचनाओं की आंधी से जूझने के बावजूद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात में भाजपा ने 2002 का विधानसभा चुनाव जीता और यहीं से शुरू हुआ व्यक्तिवाद. इसके बाद 2007 और 2012 के विधानसभा चुनावों में भी भाजपा ने जीत हासिल की और जीत का शेहरा मोदी के सिर बांधा गया.

2017 आसान नहीं

हालाँकि विधानसभा चुनाव 2017 भाजपा के लिए कड़ी चुनौती है. न तो अब यहाँ नरेन्द्र मोदी का जादुई नेतृत्व है और न ही भाजपा के पक्ष में कोई विशेष लहर चल रही है. यद्यपि भाजपा के समक्ष कोई बड़ी राजनीतिक चुनौती भी नहीं है. इसीलिए राजनीतिक विश्लेषक यह तो फौरी तौर पर कह सकते हैं कि चुनाव में भाजपा को बहुमत मिल जाएगा, परंतु बात केवल बहुमत की नहीं है. बात मोदी और शाह की प्रतिष्ठा की है. पूरे देश की नजर गुजरात चुनाव पर है, क्योंकि मोदी और शाह दोनों ही गुजरात से आते हैं. यदि मोदी-शाह अपने ही गढ़ में भारी बहुमत से नहीं जीते, तो विरोधीओ को उन्हें घेरने का मौका मिल जाएगा. इसीलिए अमित शाह ने गुजरात विधानसभा की 182 में से 150 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है.

ये एक ऐसा चुनाव है जिसके असर सीधे लोकसभा पर देखने को मिलेंगे

हालाँकि गुजरात की जनता ने इससे पहले केवल एक ही बार किसी पार्टी को 150 सीटों का भारी बहुमत दिया था और वह पार्टी थी कांग्रेस. 1984-85 में पूरे देश में चल रही इंदिरा लहर पर सवार कांग्रेस ने 1985 के विधानसभा चुनाव में यह रिकॉर्ड सीटें हासिल की थीं, परंतु राज्य में भाजपा के लिए मिशन 150+ को हासिल कर पाना बड़ी चुनौती है, क्योंकि न तो राज्य में भाजपा के प्रति कोई भारी लहर है और न ही नरेन्द्र मोदी जैसा कोई जादुई नेतृत्व है यहाँ. मोदी के रहते भी भाजपा इतनी सीटें कभी नहीं जीत पाई. उल्टे इस बार तो भाजपा के सामने कई सामाजिक चुनौतियाँ हैं, जिसमें सबसे बड़ी चुनौती पाटीदार समाज की नाराजगी है.

फिलहाल पाटीदार शांत हैं, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव निकट आएँगे, पाटीदार समाज का पुनः लामबंद होना संभव है. गुजरात में पाटीदार समाज भाजपा का मजबूत वोट बैंक है. भाजपा सरकार ने अब तक पाटीदारों के आरक्षण मुद्दे को हवा में लटकाए रखा है और इसका खामियाजा उसे विधानसभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है.  दूसरी तरफ ओबीसी समाज भी भाजपा के खिलाफ चुनौती बना हुआ है. ऐसे में तमाम सामाजिक धड़ों को एक साथ लेकर चलना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती होगी.

कांग्रेस मृत्युशैय्या पर ?

उधर कांग्रेस की हालत बहुत अच्छी नहीं है. यही कारण है कि राज्य में भाजपा की साधारण बहुमत से जीत तो आसान दिखाई देती है. राज्यसभा चुनावों में पिछले दिनों कांग्रेस के विधायकों का जो ड्रामा हुआ, उससे कांग्रेस की भारी फजीहत हुई. इससे पहले बड़ा झटका तब लगा, जब गुजरात की राजनीति में बापू के नाम से विख्यात दिग्गज नेता शंकरसिंह वाघेला ने बीस साल बाद पार्टी छोड़ दी. वाघेला ने भले ही भाजपा में न जाने का निर्णय किया हो, परंतु उन्होंने कांग्रेस का खेल बिगाड़ने की पूरी तैयारी कर ली है. कांग्रेस हालाँकि राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल को जितवा कर अपनी लाज बचाने में कामयाब रही, परंतु यह उसके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है.

कांग्रेस के लिए ये चुनाव इस लिए भी खास है कि उन्हें अपनी खोई इज्जत वापस लानी है वास्तविकता यह है कि कांग्रेस के पास कोई दमदार स्थानीय नेतृत्व नहीं है. कांग्रेस पूरी तरह सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर निर्भर रहती आई है और हर चुनाव में उसे हार का सामना करना पड़ता रहा है. कांग्रेस गुटबाजी से भी परेशान है. वर्तमान कांग्रेस में भाजपा गोत्र के शंकरसिंह वाघेला तो चले गए, परंतु चिमनभाई पटेल गोत्र और मूल कांग्रेसी गोत्र के नेताओं के भी अलग-अलग गुट हैं. कांग्रेस के पास स्थानीय तौर पर भरतसिंह सोलंकी, शक्तिसिंह गोहिल, अर्जुन मोढवाडिया और सिद्धार्थ पटेल जैसे ही कुछ गिने-चुने चेहरे हैं, जिन्हें कांग्रेस घुमा-फिरा के जिम्मेदारियाँ बाँटती रहती है, लेकिन इनमें से एक भी चेहरा जीत की गारंटी नहीं देता और न ही किसी नेता के पास भारी जनमत है.

ये सभी अपने-अपने क्षेत्र के बंटाधारक हैं. ऐसे में कांग्रेस में एक सामूहिक नेतृत्व का अभाव दिखता है, जो भाजपा के लिए किसी भी रूप में चुनौती पेश करने की स्थिति में नहीं है. गुजरात में कांग्रेस आखिरी बार 1984 का विधानसभा चुनाव 150 सीटों के साथ जीती थी. उसके बाद वह 1985, 1990, 1995, 1998, 2002, 2005, 2007 और 2012 यानी लगातार 8 विधानसभा चुनाव हार चुकी है, तो लोकसभा की बात करें, तो कांग्रेस का प्रदर्शन 1984 में 24 सीटों के साथ सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा था, परंतु 1989, 1991, 1996, 1998, 1999, 2004, 2009 और 2014 यानी लगातार आठ चुनावों में खराब रहा. स्थिति यह रही कि 2014 में कांग्रेस को 26 में से एक भी सीट नहीं मिली.

इस प्रकार गुजरात विधानसभा का इस बार का चुनाव बहुत ही दिलचस्प रहने वाला है. पूरे देश की निगाह इस चुनाव पर रहेगी, क्योंकि इस बार के मुकाबले में मोदी-शाह की प्रतिष्ठा राष्ट्रीय स्तर तक दाव पर लगी होगी. यदि भाजपा सम्मानजनक सीटों के साथ चुनाव नहीं जीतेगी, तो भी विरोधियों को आलोचना करने का अवसर मिलेगा और इसका सीधा प्रभाव अन्य राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों और यहाँ तक कि लोकसभा चुनावों पर भी पड़ सकता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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