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परिवार की नहीं, ये लड़ाई है मुखिया और असली बॉस के लिए

    • रीमा पाराशर
    • Updated: 15 सितम्बर, 2016 02:19 PM
  • 15 सितम्बर, 2016 02:19 PM
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साढ़े चार साल के अंदर सपा सरकार में लगातार बनती सुर्खियां ये संकेत देती रहीं कि पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह बेटे, भाई और करीबियों के बीच चल रही अहम की लड़ाई को सुलझा नहीं पा रहे

समाजवादी पार्टी के कुनबे में मचे इस घमासान की नींव दरअसल 15 मार्च 2012 को ही पड़ गई थी जब अखिलेश यादव ने मुखयमंत्री पद की शपथ ली. लखनऊ में सपा मुख्यालय पर पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच चर्चा होने लगी थी कि कैसे राजनीति में कच्चे अखिलेश भैया पार्टी के मंझे हुए नेताओं और अपने परिवार के दिग्गजों को साथ लेकर चल पाएंगे. लेकिन सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव का हाथ बेटे के सर पर होना इन सब बातों का जवाब था.

 बेटे, भाई और करीबियों के बीच चल रही अहम की लड़ाई को सुलझा नहीं पा रहे मुलायम सिंह

लेकिन साढ़े चार साल के अंदर सपा सरकार में लगातार बनती सुर्खियां ये संकेत देती रहीं कि पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह बेटे, भाई और करीबियों के बीच चल रही अहम की लड़ाई को सुलझा नहीं पा रहे. अखिलेश यादव ने बार-बार अपने फैसलों से ये तो साबित कर दिया की कभी राजनीति में बच्चे कहलाने वाले मुख्यमंत्री किसी से भी टक्कर लेने को तैयार हैं. फिर चाहे अपने पिता के करीबी आज़म खान को उनकी जगह दिखाना हो या फिर खुद अपने चाचा शिवपाल यादव से दो-दो हाथ करने हों, अखिलेश ने अपनी संवैधानिक शक्ति को पहचानते हुए उसका भरपूर राजनितिक इस्तेमाल किया.

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इस वक्त जब सारे राजनितिक दल उत्तर प्रदेश की चुनावी बिसात में गणित बिठा रहे हैं तो समाजवादी पार्टी में मचा...

समाजवादी पार्टी के कुनबे में मचे इस घमासान की नींव दरअसल 15 मार्च 2012 को ही पड़ गई थी जब अखिलेश यादव ने मुखयमंत्री पद की शपथ ली. लखनऊ में सपा मुख्यालय पर पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच चर्चा होने लगी थी कि कैसे राजनीति में कच्चे अखिलेश भैया पार्टी के मंझे हुए नेताओं और अपने परिवार के दिग्गजों को साथ लेकर चल पाएंगे. लेकिन सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव का हाथ बेटे के सर पर होना इन सब बातों का जवाब था.

 बेटे, भाई और करीबियों के बीच चल रही अहम की लड़ाई को सुलझा नहीं पा रहे मुलायम सिंह

लेकिन साढ़े चार साल के अंदर सपा सरकार में लगातार बनती सुर्खियां ये संकेत देती रहीं कि पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह बेटे, भाई और करीबियों के बीच चल रही अहम की लड़ाई को सुलझा नहीं पा रहे. अखिलेश यादव ने बार-बार अपने फैसलों से ये तो साबित कर दिया की कभी राजनीति में बच्चे कहलाने वाले मुख्यमंत्री किसी से भी टक्कर लेने को तैयार हैं. फिर चाहे अपने पिता के करीबी आज़म खान को उनकी जगह दिखाना हो या फिर खुद अपने चाचा शिवपाल यादव से दो-दो हाथ करने हों, अखिलेश ने अपनी संवैधानिक शक्ति को पहचानते हुए उसका भरपूर राजनितिक इस्तेमाल किया.

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इस वक्त जब सारे राजनितिक दल उत्तर प्रदेश की चुनावी बिसात में गणित बिठा रहे हैं तो समाजवादी पार्टी में मचा पारिवारिक तूफान कई बातों की तरफ इशारा कर रहा है.

टाइमिंग पर सवाल

चुनाव से ऐन पहले अखिलेश और शिवपाल के बीच छिड़ी जंग ये सवाल खड़ा करती है कि साढ़े चार साल से जो बातें अंदरखाने चल रही थीं उन्हें सतह पर लाने के लिए चुनाव का समय ही क्यों चुना गया. सपा के जानकार मानते हैं कि एंटी incumbency फैक्टर और विरोधियों से मिल रही चुनौती का जवाब देने के लिए ये सब एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा हो सकता है. जनता के बीच सन्देश दिया जाए की अखिलेश की छवि किसी भी मुद्दे पर समझौता न करने वाले मुख्यमंत्री की है जो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपनों से भी लड़ सकता है. भ्रष्टाचार के आरोपी मंत्रियों और अधिकारियों की छुट्टी इसी गेम प्लान का हिस्सा थी.

क्या अखिलेश बनेंगे पार्टी के सर्वे सर्वा

युवाओं के बीच लोक लुभावन और आधुनिक घोषणाएं कर इस कार्यकाल में अखिलेश ने ये जता दिया कि वो सपा को पुरानी और रूढ़िवादी पार्टी से निकालकर ऐसी पार्टी में तब्दील कर रहे हैं जो वक़्त के साथ चले. जिसमे भृष्ट और दबंग छवि को सुधारने की दिशा में बढ़ना सबसे बड़ा कदम था. मुलायम सिंह भले ही अलग-अलग मंच से अपने बेटे को डांट फटकार लगाते रहे लेकिन चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश पार्टी अध्यक्ष पद से अखिलेश को हटाकर अपने भाई शिवपाल को बैठाना पार्टी के लिए भविष्य की दिशा तय कर रहा है.

 अखिलेश ने ये जता दिया कि वो सपा को पुरानी और रूढ़िवादी पार्टी से निकालकर ऐसी पार्टी में तब्दील कर रहे हैं जो वक़्त के साथ चले

मुलायम भले ही पार्टी के मुखिया हों लेकिन उम्रदराज़ होते हुए बिगड़ती तबियत उनके लिए एक चुनौती है. और इसलिए पार्टी में अगले राष्ट्रिय अध्यक्ष के लिए रास्ता अभी से खाली करना उनके एजेंडे पर है ज़ाहिर है इस कुर्सी पर अखिलेश के सिवा किसी और के लिए जगह नहीं. 2017 के चुनाव के बाद सपा में बड़े फेरबदल से इंकार नहीं किया जा सकता.

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फिलहाल कुनबे को साथ लेकर चलना मुलायम की मजबूरी

मुलायम ये जानते हैं कि शिवपाल यादव की पार्टी पर पकड़ है और अखिलेश भले ही उनके बेटे हो लेकिन नेताजी उन पर भी चेक न बैलेंस रखना चाहते हैं. इसलिए मुस्लिम वोट बैंक की खातिर ही सही अखिलेश के ना चाहते हुए भी आज़म खान को बार-बार मनाया जाता है और शिवपाल भले ही मंच से अपने मुख्यमंत्री के खिलाफ बयानबाजी करें लेकिन नेताजी अपने प्रिय भाई के साथ खड़े नजर आते हैं. इस लड़ाई में भी पब्लिक परसेप्शन जो भी बनाया गया लेकिन अंत में मुलायम से मिलते ही शिवपाल ने सुर बदल दिए और ना तो बचे हुए मंत्री पदों से इस्तीफा दिया, न ही अखिलेश के खिलाफ बाहर मुंह खोला बार-बार कहा कि सब कुछ ठीक है.

सैफई में भी बदले सुर

मुलायम परिवार के पैतृक गांव सैफई में बुधवार को शिवपाल यादव के आते ही जो समर्थक "चचा तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं" के नारे लगा रहे थे आज खामोशी से इस पूरे मामले को परिवार की नोक झोंक कह रहे हैं. अब ना कोई नारा है ना कोई नाराज़गी. जो बुज़ुर्ग सालों से इस परिवार को देख रहे हैं उन्हें लगता है ये एक जनरेशन से दूसरी जनरेशन में सत्ता के हस्तांतरण के बीच का समय है जिसमें किसी भी परिवार के बाकी सदस्यों का अहम टकराता है और सभी उसमें अपनी अहमियत साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं. लेकिन पीढ़ियों से जो होता रहा वही यहां भी हो रहा है, पिता के बाद कमान बेटे के हाथ.

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फिलहाल चुनाव में 3 महीने का वक्त है उससे पहले पार्टी में ऐसे कुछ और धमाको से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि चुनाव बाद की तस्वीर के लिए सपा के अगले मुखिया और असली बॉस साबित होने तक आर पार की ये लड़ाई यूं ही जारी रहेगी.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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