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भारत में भूमि अधिग्रहण के तीन दौर

    • अरुण फरेरा और वेरनॉन गोनजाल्विस
    • Updated: 26 मार्च, 2015 09:29 AM
  • 26 मार्च, 2015 09:29 AM
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भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन को लेकर भले ही विरोध हो रहा है लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली इस विधेयक को किसान हित में बताकर सहमति बनाने की कोशिश में लगे हैं.

भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन को लेकर भले ही विरोध हो रहा है लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली इस विधेयक को किसान हित में बताकर सहमति बनाने की कोशिश में लगे हैं. हालांकि इस विधेयक में संशोधन को व्यापक रूप से उद्योगपति लॉबी की मांगों को पूरा करने के लिए एक उपाय के रूप में देखा जा रहा है. जबकि सरकार किसानों के हित में इसे भूमि सुधार के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही है. भारत में भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर अलग-अलग दौर रहे हैं.

बड़े निगमों के लिए भूमि का जबरन अधिग्रहण"जबरन भूमि अधिग्रहण भारत में हमेशा से किसानों ही नहीं बल्कि खेतों में काम करने वाले मजदूरों और मछली पालन करने वाले लाखों लोगों के लिए भी जिन्दगी और मौत का मुद्दा रहा है." यह बयान उन संगठनों का है जो भूमि अधिग्रहण विधेयक 2013 में संशोधन के खिलाफ हजारों की तादाद में देश के कोने-कोने से खासकर ग्रामीण इलाकों से आकर दिल्ली में जुट रहे हैं. इस विधेयक में संशोधन करके भूमि अधिग्रहण कानून को इतना आसान कर दिया जाएगा कि बड़े औद्योगिक घराने कृषि योग्य भूमि और वन भूमि को खनन योजानाओं, विशेष आर्थिक जोन, इंड्रस्टीयल कॉरिडोर, स्मार्ट सिटी और ऐसे ही प्रोजेक्ट्स के लिए जबरन हासिल कर लेंगे. जेटली के हास्यास्पद तर्कों में से एक है राष्ट्रीय सुरक्षा. इसी सरकार ने रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दी है. ऐसे में यह बात गले नहीं उतरती कि किसान के लिए पाकिस्तान से खतरा ज्यादा बड़ा मुद्दा है या विदेशी निवेशक. दिल्ली में किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाली मेधा पाटकर का कहना है कि "असली लड़ाई किसानों और भूमि हथियाने वाले कॉर्पोरेट घरानों के बीच है, भारत और पाकिस्तान के बीच नहीं.

भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन को लेकर भले ही विरोध हो रहा है लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली इस विधेयक को किसान हित में बताकर सहमति बनाने की कोशिश में लगे हैं. हालांकि इस विधेयक में संशोधन को व्यापक रूप से उद्योगपति लॉबी की मांगों को पूरा करने के लिए एक उपाय के रूप में देखा जा रहा है. जबकि सरकार किसानों के हित में इसे भूमि सुधार के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही है. भारत में भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर अलग-अलग दौर रहे हैं.

बड़े निगमों के लिए भूमि का जबरन अधिग्रहण"जबरन भूमि अधिग्रहण भारत में हमेशा से किसानों ही नहीं बल्कि खेतों में काम करने वाले मजदूरों और मछली पालन करने वाले लाखों लोगों के लिए भी जिन्दगी और मौत का मुद्दा रहा है." यह बयान उन संगठनों का है जो भूमि अधिग्रहण विधेयक 2013 में संशोधन के खिलाफ हजारों की तादाद में देश के कोने-कोने से खासकर ग्रामीण इलाकों से आकर दिल्ली में जुट रहे हैं. इस विधेयक में संशोधन करके भूमि अधिग्रहण कानून को इतना आसान कर दिया जाएगा कि बड़े औद्योगिक घराने कृषि योग्य भूमि और वन भूमि को खनन योजानाओं, विशेष आर्थिक जोन, इंड्रस्टीयल कॉरिडोर, स्मार्ट सिटी और ऐसे ही प्रोजेक्ट्स के लिए जबरन हासिल कर लेंगे. जेटली के हास्यास्पद तर्कों में से एक है राष्ट्रीय सुरक्षा. इसी सरकार ने रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दी है. ऐसे में यह बात गले नहीं उतरती कि किसान के लिए पाकिस्तान से खतरा ज्यादा बड़ा मुद्दा है या विदेशी निवेशक. दिल्ली में किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाली मेधा पाटकर का कहना है कि "असली लड़ाई किसानों और भूमि हथियाने वाले कॉर्पोरेट घरानों के बीच है, भारत और पाकिस्तान के बीच नहीं.

 

1947 में "जोतने वाले के लिए जमीन"यह लड़ाई उस युद्ध का केवल एक दौर है जो लम्बे समय से जमीन के लिए इस देश में लड़ी जा रही है. किसानों, विशेषकर भूमिहीन और सीमांत किसानों की जमीनी भूख, ब्रिटिश राज से आजादी के लिए किए गए संघर्ष के प्रमुख पहलुओं में से एक थी. "जोतने वाले के लिए जमीन" उन किसान संगठनों के लिए लोकप्रिय नारा था जो स्वतंत्रता आंदोलन की रीढ़ मजबूत करने में शामिल थे. यह नारा ब्रिटिश समर्थक जमींदारों का विरोध करने वाली ग्रामीण जनता ने दिया था. वो जमींदार खेती के लिए कोई योगदान दिए बिना ही फसल का एक बड़ा हिस्सा ले लिया करते थे. स्वतंत्रता सेनानियों की मांग थी कि जो भूमि जोतता है भूमि उसी की होनी चाहिए. इस मुद्दे को लेकर 1946 से तेलंगाना में सशस्त्र संघर्ष चल रहा था, जिसका नेतृत्व भारत की कम्युनिस्ट पार्टी कर रही थी. यह सब कांग्रेस और 1947 के बाद उसकी सरकार के भूमि सुधार कार्यक्रम के लिए खुद को प्रतिबद्ध दिखाने के लिए था.लेकिन, कांग्रेस के नेतृत्व पर बड़े जमींदारों की मजबूत पकड़ होने की वजह से भूमि सुधार के मामले में कांग्रेस की ईमानदारी हमेशा शक के घेरे में रही. कई विधेयक जमींदारी उन्मूलन, जमीन की किरायेदारी और छत की सुरक्षा के लिए बनाए गए लेकिन कानूनों में कई कमियां छोड़ दी गईं जो इस बात को साबित करने के लिए काफी थी कि भूमि का कोई वास्तविक पुनर्वितरण नहीं होगा. साठ के दशक के अंत में और सत्तर के दशक की शुरुआत में अशांति का एक दूसरा दौर शुरू हुआ जिसमें नक्सली आंदोलन ने भूमि से जुड़े शोषण के मामलों को फिर से देश के एजेंडे में शामिल करने के लिए सरकार को मजबूर कर दिया. 1972 में नक्सलवाद पर मुख्यमंत्रियों की एक बैठक में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री वाईबी चव्हाण ने चेतावनी देते हुए कहा था कि हरित क्रांति नक्सलवादी आंदोलन में बदल सकती है. इस बैठक में लिए गए एक फैसले से भूमि सुधार का एक नया दौर शुरू हुआ.

उदारीकरण के बाद भूमि सुधारअस्सी के दशक के मध्य में उदारीकरण की नीतियों की शुरुआत के साथ ही नए भूमि सुधार एजेंडा को भुला दिया गया. भूमि सुधार पर 2006 में योजना आयोग की एक रिपोर्ट आई. जिसमें सरकार ने पाया कि "कुछ मामलों में बाजार के संचालक देश के भूमि बाजार में किसी भी सरकार के हस्तक्षेप से डरते हैं." इसी रिपोर्ट से निकलकर सामने आया कि यह नक्सलियों के नेतृत्व में ग्रामीण हिंसा का एक नया दौर था जो भूमि सुधार के मुद्दे को कार्रवाई के लिए राष्ट्रीय एजेंडे में वापस लाने के लिए शुरू हुआ था. उदारीकरण की नीति ने जमीन के भूखे कॉर्पोरेट वर्ग की एक नई नस्ल पैदा कर दी जो अस्थायी कीमतों पर अपनी परियोजनाओं के लिए प्रधानमंत्री से कृषि और वन भूमि की मांग कर रहे थे. औपनिवेशिक युग 1894 का भूमि अधिग्रहण अधिनियम जबरन निजी संस्थाओं के लिए भूमि का अधिग्रहण करने के लिए राज्यों के काम आ गया. अनुपात के हिसाब से बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण के नाम पर जमीन हड़प ली गई थी. वर्ष 2009 में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक सरकारी रिपोर्ट में कहा गया कि कोलंबस के बाद यह सबसे बड़ा अधिग्रहण था. कई स्थानों पर बड़ी परियोजनाओं, सेज, परमाणु संयंत्रों के खिलाफ सिंगुर और नंदीग्राम जैसे हिंसक विरोध आंदोलनों ने राज्य सरकारों को हिलाकर रख दिया और सरकार चलाने वालों को इस कानून पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ा. साल 2013 में केन्द्र सरकार ने 1894 के भूमि अधिनियम कानून में बदलाव कर अधिग्रहण के लिए स्थानीय जनता की सहमति के अधिकार को मान्यता दे दी. और साथ ही मुआवजे और पुनर्वास का प्रावधान कर दिया. अब 2013 के इसी कानून में संशोधन के लिए संसद में बहस की जा रही है.

 

मोदी पर दबाव और उसके परिणामदुनिया के बड़े व्यापारी भी मोदी के समर्थक होते जा रहे हैं. जनवरी के अंत में ओबामा की भारत यात्रा के दौरान भारत-अमेरिका के सीईओ की बैठक सीधे एक ही मुद्दे पर हुई. मोदी अब डिलिवर करें. इसी में सबका फायदा है. सीआईआई और एसोचैम जैसे बड़े औद्योगिक संगठनों ने सर्वसम्मति से भूमि अधिग्रहण कानून में परिवर्तन का स्वागत किया था और अब वे इस कानून को किसी भी तरह संसद के माध्यम से पारित होते देखना चाहते हैं. मोदी ने इस भूमि अधिग्रहण कानून के संशोधन को पारित कराने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी है. अब यह पारित हो जाएगा.यह कानून समाज और खासकर ग्रामीणों, गरीब किसानों को भी मंजूर होगा कि नहीं, यह अलग बात है. अधिग्रहण के लिए चुप रहकर मौन स्वीकृति अब पुरानी बात हो गई है. आज के आधुनिक दौर में ग्रामीण भारत में गरीबों के लिए निर्वाह करना ज्यादा से ज्यादा अनिश्चित हो गया है. कुछ लोग चाहते हैं कि जमीन और जंगल से जो सुरक्षा उन्हें मिलती है वो मिलती रहे. लगभग हर बड़ी परियोजना को समाज के व्यापक वर्गों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है.इस मामले से निपटने के लिए सरकार की रणनीति राज्य के आक्रामक हथियारों पर लगभग पूरी तरह से निर्भर है. पर्यावरण कार्यकर्ताओं और गैर सरकारी संगठनों के लिए यात्रा प्रतिबंध और अनुदान नियंत्रण, विरोध करने वाले परियोजना प्रभावित लोगों पर लाठी-चार्ज और यहां तक कि गोलीबारी तक की तैयारी है. नागरिक युद्ध शैली की तरह सैन्य बल साफ-थामों-पकड़ों नीति माओवादियों के लिए बना रहे हैं. इसी तरह से बहुत कुछ है सरकार के पास. अब देखने वाली बात यह होगी कि सरकार का यह चमत्कार क्या इन वंचितों के गुस्से और हताशा को रोकने के लिए पर्याप्त होगा?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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