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सरकारें हमेशा खुद से हारती हैं, अगर हारी तो मोदी सरकार भी खुद से हारेगी!

    • अभिरंजन कुमार
    • Updated: 08 अक्टूबर, 2017 06:17 PM
  • 08 अक्टूबर, 2017 06:17 PM
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मोदी अगर जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, तो उन्हें कोई भी हरा सकता है. और यह बात सिर्फ़ सोनिया - राहुल - मनमोहन या नरेंद्र मोदी की सरकार पर लागू नहीं होती, बल्कि किसी भी सरकार पर लागू होती है. नेता तब तक है जब तक जनता है.

अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि मोदी को कौन हरा सकता है. मैं कहता हूं कि मोदी को सिर्फ मोदी ही हरा सकते हैं. जैसे सोनिया-राहुल-मनमोहन सोनिया-राहुल-मनमोहन से ही हारे. जब तक कोई सरकार जनता की नज़रों में अच्छा और साफ-सुथरा काम करती रहती है, तब तक उसे कोई नहीं हरा पाता. जब वह जनता की नजरों से गिर जाती है, तो उसे कोई भी हरा सकता है.

आडवाणी कभी भी मोदी से छोटे नेता नहीं थे, देश के उप-प्रधानमंत्री रह चुके थे, लेकिन 2009 के चुनाव में वह सोनिया-राहुल-मनमोहन को नहीं हरा पाए, क्योंकि जनता का तब तक सोनिया-राहुल-मनमोहन से मोहभंग नहीं हुआ था. 2014 में सोनिया-राहुल-मनमोहन बुरी तरह हारे, क्योंकि टूजी, कॉमनवेल्थ, कोलगेट इत्यादि बड़े घोटालों, कमरतोड़ महंगाई और पॉलिसी पैरालाइसिस के चलते न सिर्फ भारतीय मतदाताओं में, बल्कि दुनिया भर में उनकी थू-थू होने लगी थी.

आज प्रधानमंत्री के इर्द गिर्द कई समस्याएं हैं जो उन्हें भविष्य में संकट में डाल सकती है

मजेदार बात यह है कि सोनिया-राहुल-मनमोहन की अलोकप्रिय होती सरकार के खिलाफ सबसे बड़े लड़ाकों में नरेंद्र मोदी दूर-दूर तक नहीं थे. संसद के भीतर नेता प्रतिपक्ष के तौर पर लोकसभा में सुषमा स्वराज और राज्यसभा में अरुण जेटली ने इस लड़ाई की कमान संभाल रखी थी. संसद से बाहर यह लड़ाई अन्ना हज़ारे, बाबा रामदेव और अरविंद केजरीवाल सरीखे लोग लड़ रहे थे.

इसलिए यह एक बहुत बड़ी भ्रांति है कि 2014 में सोनिया-राहुल-मनमोहन को नरेंद्र मोदी ने हराया. इसी तरह यह भी एक बहुत बड़ी भ्रांति है कि नरेंद्र मोदी को राहुल गांधी या कोई और नेता नहीं हरा सकता. अगर वे जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, तो उन्हें भी कोई भी हरा सकता है. और यह जो मैं कह रहा हूं वह सिर्फ़ सोनिया-राहुल-मनमोहन या नरेंद्र मोदी की सरकार पर लागू नहीं होता, बल्कि किसी...

अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि मोदी को कौन हरा सकता है. मैं कहता हूं कि मोदी को सिर्फ मोदी ही हरा सकते हैं. जैसे सोनिया-राहुल-मनमोहन सोनिया-राहुल-मनमोहन से ही हारे. जब तक कोई सरकार जनता की नज़रों में अच्छा और साफ-सुथरा काम करती रहती है, तब तक उसे कोई नहीं हरा पाता. जब वह जनता की नजरों से गिर जाती है, तो उसे कोई भी हरा सकता है.

आडवाणी कभी भी मोदी से छोटे नेता नहीं थे, देश के उप-प्रधानमंत्री रह चुके थे, लेकिन 2009 के चुनाव में वह सोनिया-राहुल-मनमोहन को नहीं हरा पाए, क्योंकि जनता का तब तक सोनिया-राहुल-मनमोहन से मोहभंग नहीं हुआ था. 2014 में सोनिया-राहुल-मनमोहन बुरी तरह हारे, क्योंकि टूजी, कॉमनवेल्थ, कोलगेट इत्यादि बड़े घोटालों, कमरतोड़ महंगाई और पॉलिसी पैरालाइसिस के चलते न सिर्फ भारतीय मतदाताओं में, बल्कि दुनिया भर में उनकी थू-थू होने लगी थी.

आज प्रधानमंत्री के इर्द गिर्द कई समस्याएं हैं जो उन्हें भविष्य में संकट में डाल सकती है

मजेदार बात यह है कि सोनिया-राहुल-मनमोहन की अलोकप्रिय होती सरकार के खिलाफ सबसे बड़े लड़ाकों में नरेंद्र मोदी दूर-दूर तक नहीं थे. संसद के भीतर नेता प्रतिपक्ष के तौर पर लोकसभा में सुषमा स्वराज और राज्यसभा में अरुण जेटली ने इस लड़ाई की कमान संभाल रखी थी. संसद से बाहर यह लड़ाई अन्ना हज़ारे, बाबा रामदेव और अरविंद केजरीवाल सरीखे लोग लड़ रहे थे.

इसलिए यह एक बहुत बड़ी भ्रांति है कि 2014 में सोनिया-राहुल-मनमोहन को नरेंद्र मोदी ने हराया. इसी तरह यह भी एक बहुत बड़ी भ्रांति है कि नरेंद्र मोदी को राहुल गांधी या कोई और नेता नहीं हरा सकता. अगर वे जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, तो उन्हें भी कोई भी हरा सकता है. और यह जो मैं कह रहा हूं वह सिर्फ़ सोनिया-राहुल-मनमोहन या नरेंद्र मोदी की सरकार पर लागू नहीं होता, बल्कि किसी भी सरकार पर लागू होता है.1971 की 'दुर्गा' इंदिरा गांधी जब 1977 में हारीं, तो अपने ही कर्मों से हारीं. 1977 में संपूर्ण क्रांति लाने वाली जनता पार्टी के लोग 1980 में अपनी ही टूट से टूट गए.

इसी तरह, 1984 में 415 लोकसभा सीटें जीतने वाले राजीव गांधी 1989 में वीपी सिंह के नहीं, बल्कि अपने ही अपयशों और अनुभवहीनता का शिकार बन गए. 1996, 1998 और 1999 में क्रमशः अधिक जोर लगाते हुए जिस अटल बिहारी वाजपेयी को जनता ने प्रधानमंत्री बनाया, उन्हें 2004 में एक कथित विदेशी महिला ने हरा दिया, क्योंकि स्वदेशी सरकार के इंडिया शाइनिंग के नारे को लोगों ने वास्तविकता के करीब नहीं पाया. इसलिए, जो लोग सरकार की शल्य चिकित्सा करने में जुटे हों, उन्हें 'शल्य' नहीं, 'शल्य चिकित्सक' कहा जाना चाहिए. व्यक्ति से बड़ा दल, दल से बड़ा देश... भूल गए? लोकतंत्र में 'शल्य चिकित्सकों' का आदर होना चाहिए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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