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सीबीआई के इस छापे में जीत केजरीवाल की

    • कमलेश सिंह
    • Updated: 16 दिसम्बर, 2015 08:11 PM
  • 16 दिसम्बर, 2015 08:11 PM
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अरविंद केजरीवाल राजनीति में नए नहीं हैं. वह हमेशा से एक्टिविस्ट की खाल में छिपे एक ऐसे राजनीतिज्ञ रहे हैं जिसे विरोधी से मौका मिलने पर भरपूर फायदा उठाना आता है. पहले शकूर बस्ती में बुलडोजर मामला फिर सीएम ऑफिस में सीबीआई का छापा...जीत केजरीवाल की ही है.

पहले तो सीबीआई दिल्ली के मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव के दफ्तर पर छापा मारती है और फिर सफाई देती है कि उसकी कार्रवाई मुख्यमंत्री के दफ्तर पर नहीं बल्कि सीएमओ के एक अधिकारी पर की गई है. इसका क्या मतलब है? इसमें कोई शक नहीं है कि सीबीआई के पास लंबे समय से भ्रष्टाचार में लिप्त किसी अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार है.

अब तक मोदी को यह समझ में आ जाना चाहिए था कि उन्हें अरविंद केजरीवाल को पीड़ित बनने का मौका नहीं देना होगा. ऐसे में आप मनोरोगी करार दिए जाएंगे और केजरीवाल ईश्वर की दी हुई ईमानदार आदमी की छवि को आगे बढ़ा लेंगे. अब भला केजरीवाल को यह क्यों नहीं पसंद आएगा? आप किसी आदमी की राजनीति पर असंतोष नहीं जाहिर कर सकते, खासतौर से जब वह आदमी राजनीतिज्ञ हो.

पीड़ित बनने का स्वांग तो वैध राजनीतिक हथियार है और नरेन्द्र मोदी खुद इसके माहिर खिलाड़ी है. याद कीजिए वह वक्त जब नरेन्द्र मोदी की भर्त्सरना करना देश के पांच करोड़ गुजरातियों की भर्त्ससना करने जैसा था. पीड़ित बनना तो छोड़ दीजिए, मृतक बनने का खेल संभव होता तो केजरीवाल को उसे भी खेलने से कोई गुरेज नहीं होता.

केजरीवाल अब राजनीति में नए नहीं है और न ही उनकी आम आदमी पार्टी एक स्टार्ट-अप है. वे शुरू से ही एक्टिविस्ट की खाल ओढ़े एक राजनीतिज्ञ थे. अब उन्होंने उस खाल का मफलर बना लिया है या फिर जैसा कुछ लोग दावा करते हैं कि उस मफलर से उन्होंने दिल्ली की आंख मूंद दी है. लिहाजा, मिले हुए मौके पर चूकना उनकी फितरत नहीं और फिर सीबीआई का छापा तो स्वर्णिम मौका है.

अब शकूर बस्ती में झुग्गियों को उजाड़ने का मामला देख लीजिए. इस कड़ाके की सर्दी में हजारों घरों को उजाड़ना निसंदेह एक क्रूर और अमानवीय काम है. दिल्ली सरकार जान रही थी कि रेलवे के बुलडोजर निकलने वाले हैं. यह महज दिल्ली से गैरकानूनी कब्जे को हटाने का मामला नहीं था. ऐसी हजारों झुग्गियां और स्लम दिल्ली में कई सालों से जस का तस बनी हैं क्योंकि कोई भी पार्टी इन्हें हटाकर गरीबों के वोटबैंक को खतरे में नहीं डाल सकती. ठीक...

पहले तो सीबीआई दिल्ली के मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव के दफ्तर पर छापा मारती है और फिर सफाई देती है कि उसकी कार्रवाई मुख्यमंत्री के दफ्तर पर नहीं बल्कि सीएमओ के एक अधिकारी पर की गई है. इसका क्या मतलब है? इसमें कोई शक नहीं है कि सीबीआई के पास लंबे समय से भ्रष्टाचार में लिप्त किसी अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार है.

अब तक मोदी को यह समझ में आ जाना चाहिए था कि उन्हें अरविंद केजरीवाल को पीड़ित बनने का मौका नहीं देना होगा. ऐसे में आप मनोरोगी करार दिए जाएंगे और केजरीवाल ईश्वर की दी हुई ईमानदार आदमी की छवि को आगे बढ़ा लेंगे. अब भला केजरीवाल को यह क्यों नहीं पसंद आएगा? आप किसी आदमी की राजनीति पर असंतोष नहीं जाहिर कर सकते, खासतौर से जब वह आदमी राजनीतिज्ञ हो.

पीड़ित बनने का स्वांग तो वैध राजनीतिक हथियार है और नरेन्द्र मोदी खुद इसके माहिर खिलाड़ी है. याद कीजिए वह वक्त जब नरेन्द्र मोदी की भर्त्सरना करना देश के पांच करोड़ गुजरातियों की भर्त्ससना करने जैसा था. पीड़ित बनना तो छोड़ दीजिए, मृतक बनने का खेल संभव होता तो केजरीवाल को उसे भी खेलने से कोई गुरेज नहीं होता.

केजरीवाल अब राजनीति में नए नहीं है और न ही उनकी आम आदमी पार्टी एक स्टार्ट-अप है. वे शुरू से ही एक्टिविस्ट की खाल ओढ़े एक राजनीतिज्ञ थे. अब उन्होंने उस खाल का मफलर बना लिया है या फिर जैसा कुछ लोग दावा करते हैं कि उस मफलर से उन्होंने दिल्ली की आंख मूंद दी है. लिहाजा, मिले हुए मौके पर चूकना उनकी फितरत नहीं और फिर सीबीआई का छापा तो स्वर्णिम मौका है.

अब शकूर बस्ती में झुग्गियों को उजाड़ने का मामला देख लीजिए. इस कड़ाके की सर्दी में हजारों घरों को उजाड़ना निसंदेह एक क्रूर और अमानवीय काम है. दिल्ली सरकार जान रही थी कि रेलवे के बुलडोजर निकलने वाले हैं. यह महज दिल्ली से गैरकानूनी कब्जे को हटाने का मामला नहीं था. ऐसी हजारों झुग्गियां और स्लम दिल्ली में कई सालों से जस का तस बनी हैं क्योंकि कोई भी पार्टी इन्हें हटाकर गरीबों के वोटबैंक को खतरे में नहीं डाल सकती. ठीक वैसे ही सैनिक फार्म से गैरकानूनी कब्जे को हटाकर अमीरों के वोट बैंक को नहीं डगमगाया जा सकता. लेकिन इतना तय है कि शकूर बस्ती का रेलवे स्टेशन प्लान सैनिक फार्म पर नहीं बनाया जा सकता था.

रेलवे स्टेशन के लिए टर्मिनल बहुत जरूरी हो गया था क्योंकि रेलवे ने बिना टर्मिनल बढ़ाए क्षमता में इजाफा कर दिया था. टर्मिनल के निर्माण में बड़ी बाधा गरीब तबके की झुग्गियों से थी क्योंकि वह रेलवे की जमीन पर गैरकानूनी कब्जे से बनीं थीं. दोनों पुलिस और क्षेत्रीय सरकार को इस बात का इल्म था और रेलवे अपनी जमीन से कब्जा हटाने के लिए तीन नोटिस पहले दे चुकी थी.

अब दिल्ली सरकार ने इन झुग्गियों में रह रहे लोगों को कहीं और बसाने के लिए कदम समय रहते नहीं उठाया. बल्कि दिल्ली सरकार इस बात का इंतजार कर रही थी कि रेलवे के बुलडोजर इन झुग्गियों को तोड़े और मुख्यमंत्री तुरंत बेघर हुए लोगों के साथ खड़े हो जाएं. दिल्ली सरकार ने अपने तीन अधिकारियों को सस्पेंड भी कर दिया मानो वे ही इसके लिए जिम्मेदार थे. लेकिन ये कार्रवाई भी झुग्गियों पर बुलडोजर चलने के बाद की गई.

इस मौके पर भी केजरीवाल एक बच्चे की मौत पर राजनीति करने से नहीं चूके जबकि सच्चाई यही है कि रेलवे की कारवाई का बच्चे की मौत से कोई संबंध नहीं है. अब इस मौके पर केजरीवाल चूकें भी तो भला क्यों. वे एक राजनीतिज्ञ हैं और उन्हें इस मौके से फायदा उठाना है. इस मामले में जब राहुल गांधी भी कूद गए तो केजरीवाल ने उन्हें बच्चा करार कर दिया जिसे वोटरों को ज्यादा सीरियसली नहीं लेना चाहिए.

अभी एक हफ्ते पहले ही केजरीवाल के एक वरिष्ठ अधिकारी को गिरफ्तार किया गया था. अखबारों में उस अधिकारी की अकूत संपदा का ब्यौरा छपने के बाद भी केजरीवाल ने इस पर ध्यान नहीं दिया. उस वक्त केजरीवाल ने यह दावा नहीं किया कि एक ईमानदार अधिकारी को बलि का बकरा बनाया जा रहा है जिससे दिल्ली के अन्य ईमानदार अधिकारियों को संदेश दिया जा सके.

सत्ता के गलियारों में राजेन्द्र कुमार के कारनामों की चर्चा चल रही थी. वहीं मोदी की भर्त्समना करते हुए केजरीवाल ने कहा था कि राजेन्द्र कुमार के खिलाफ दर्ज मामले उस वक्त के हैं जब वे शीला दीक्षित की सरकार में काम कर रहे थे. इसकी पूरी संभावना थी कि राजेन्द्र कुमार के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है. लेकिन केजरीवाल को बस इंतजार था कि सीबीआई राजेन्द्र कुमार के खिलाफ छापेमारी की कार्रवाई को अंजाम दे. अब सीबीआई कुछ भी सफाई दे लेकिन यह सच है कि राजेन्द्र कुमार और मुख्यमंत्री के दफ्तर में कोई फर्क नहीं है. चूंकि सभी सचिव मुख्यमंत्री के दफ्तर का ही हिस्सा हैं लिहाजा सीबीआई का यह कथन कि उसका छापा अधिकारी के दफ्तर पर था महज आधा सच है.

आमतौर पर सीबीआई को किसी भी दफ्तर पर छापा मारने में संकोच नहीं करना चाहिए. जब सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि सीबीआई को किसी भी अधिकारी के खिलाफ कारवाई करने के लिए सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है, तब केजरीवाल ने इस फैसले का स्वागत किया था. आज केजरीवाल खुद को पीड़ित कह रहे हैं क्योंकि सीबीआई ने राजेन्द्र कुमार पर कारवाई करने से पहले उनसे अनुमति नहीं ली थी. अब राजनीतिक सुविधा अनैतिक हो सकती है लेकिन उसमें गैरकानूनी कुछ नहीं है और केजरीवाल एक राजनीतिज्ञ हैं.

केन्द्र सरकार पहले से ही संसद में घिरी हुई है क्योंकि कई महत्वपूर्ण कानून पारित होने के इंतजार में हैं और विपक्ष सरकार को इन महत्वपूर्ण कानूनों को बनाने में सफल नहीं होने देना चाहती. वह किसी न किसी बहाने से संसद के काम-काज को बाधित करने में लगे हैं. अब केजरीवाल और उनकी मित्र पार्टियां- जेडीयू और टीएमसी इसे अघोषित इमरजेंसी करार देंगे. नैतिक जिम्मेनदारी का मुकाम एकांत वाला है. ये और बात है कि उस मुकाम को पाने वालों की भारी भीड़ है.

मोदी सरकार की समस्या सरल है- जनता को जा रहा संदेश. यह मोदी सरकार की गिरफ्त से बाहर है. भूमि अधिग्रहण कानून से लेकर जीएसटी तक जनता को जो भी संदेश पहुंच रहा है उसमें सरकार की कमजोरी उजागर हुई है. किसी भी मामले में उठाए जा रहे कदम जितना ही महत्वपूर्ण जनता को मिल रहा संदेश होता है. किसी भी संदेश को उस हद तक तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है कि उसके मायने ही बदल जाएं. शकूर बस्ती में बुलडोजर चलना और दिल्ली सचिवालय में सीबीआई छापों से मिला संदेश भी इसी तोड़-मरोड़ का नतीजा है. अब प्रकाश जावाडेकर कितनी भी कोशिश कर लें, सच्चाई यही है कि संदेश देने के इस युद्ध में केजरीवाल ने पहली बाजी मार ली है. एक बार फिर केजरीवाल को पहली चाल चलने का फायदा मिल चुका है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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