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जेएनयू की अति-बैद्धिकता, लाल-आतंकवाद और बस्तर

    • राजीव रंजन प्रसाद
    • Updated: 10 मार्च, 2016 03:17 PM
  • 10 मार्च, 2016 03:17 PM
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फासीवाद और स्टालिनवाद में कोई अंतर नहीं है यहाँ तक कि हिटलरवाद और माओवाद को भी मौसेरा भाई ही माना जा सकता है. अभिव्यक्ति की आजादी का भारत से बेहतर कोई दूसरा मुल्क उदाहरण नहीं लेकिन दुर्भाग्य कि जो लोग उसकी मर्यादा नहीं रखना चाहते वे स्वयं को देश की कथित सबसे प्रतिष्ठित युनिवर्सिटी का छात्र या प्रोफेसर कहते हैं

बस्तर का नक्सलवाद और जेएनयू का अति-बौद्धिकतावाद आपस में कई बार जुडा है. वहाँ कोई प्रोफेसर हैं निवेदिता मेनन, जिन्होंने हाँथों की भाव भगिमाओं को बना-बना कर बड़ी ही प्रगतिशीलता के साथ बताया कि क्यों कश्मीर माँगे आजादी? क्यों यह भारत एक साम्राज्यवादी देश है जिसने मणिपुर, नागालैण्ड वगैरह पर किस तरह जबरन कब्जा किया हुआ है. मुझे जेएनयू में लगाये गये दो और नारे यहाँ सवाल खड़ा करते मिले- “बंगाल मांगे आजादी” और “केरल माँगे आजादी”. इन दोनों राज्यों पर अधिकतम समय तक कम्युनिस्ट पार्टियाँ काबिज रही हैं इसलिये शायद इन राज्यों को लाल टापुओं की तरह आजादी की आवश्यकता होगी? और प्रेफेसर निवेदिता वह जो बार-बार छत्तीसगढ का जिक्र अपने भाषण में कर रही हैं तो स्पष्ट है कि वहाँ कुछ क्षेत्रो में नक्सलवादियों की समानान्तर वाम-सरकार चलने का दावा है, इसलिये वहाँ भी आजादी? आजादी शब्द को इन वामपंथी विचारधारा के कतिपय प्रोफेसरों, राजनीतिज्ञों, समाजसेवा और मानवाधिकार के ठेकेदारों ने अपनी थेथरई से हलका-फुलका बना दिया है.

बंगाल और केरल क्यों माँगे आजादी इसपर चर्चा को लाना जरूरी है क्योंकि ये नारे सिद्ध करते हैं कि इनके साथ-साथ “भारत तेरे टुकडे होंगे इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह” जैसे नारे क्यों लगाये गये. वास्तव में अलगाववाद कश्मीर या पूर्वोत्तर की समस्या नहीं है यह वामपंथी योजनाबद्धता है जो देश की राजधानी से भारत के सामाजिक-आर्थिक दरारों को चौड़ा करता हुआ अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को आगे बढा रहा है. यह अनायास नहीं है कि देश की कतिपय युनिवर्सिटियाँ माओवादियों का वैचारिक आश्रयस्थल बन जाती हैं, यह अनायास नहीं है कि आतंकवादियों के समर्थक अथवा संलग्न लोगों की पहचान प्रोफेसरों के रूप में हो रही है. इसके साथ साथ यह भी रेखांकित करना चाहूंगा कि अलगाववाद स्वाभाविक या राजनैतिक समस्या नहीं है बल्कि इसे बाकायदा लाल-बीज डाल कर फिर पाला-पोसा गया है. इसके बाद भी हर्गिज प्रोफेसर निवेदिता पर कोई कार्रवाई या उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिये वरना मीडिया ने जैसे कन्हैया पैदा किया है वैसे ही एक यशोदा का भी जन्म हो जायेगा, वामतंत्र काली से काली रात को भी सुबह सिद्ध करने की क्षमता रखता है.

बस्तर का नक्सलवाद और जेएनयू का अति-बौद्धिकतावाद आपस में कई बार जुडा है. वहाँ कोई प्रोफेसर हैं निवेदिता मेनन, जिन्होंने हाँथों की भाव भगिमाओं को बना-बना कर बड़ी ही प्रगतिशीलता के साथ बताया कि क्यों कश्मीर माँगे आजादी? क्यों यह भारत एक साम्राज्यवादी देश है जिसने मणिपुर, नागालैण्ड वगैरह पर किस तरह जबरन कब्जा किया हुआ है. मुझे जेएनयू में लगाये गये दो और नारे यहाँ सवाल खड़ा करते मिले- “बंगाल मांगे आजादी” और “केरल माँगे आजादी”. इन दोनों राज्यों पर अधिकतम समय तक कम्युनिस्ट पार्टियाँ काबिज रही हैं इसलिये शायद इन राज्यों को लाल टापुओं की तरह आजादी की आवश्यकता होगी? और प्रेफेसर निवेदिता वह जो बार-बार छत्तीसगढ का जिक्र अपने भाषण में कर रही हैं तो स्पष्ट है कि वहाँ कुछ क्षेत्रो में नक्सलवादियों की समानान्तर वाम-सरकार चलने का दावा है, इसलिये वहाँ भी आजादी? आजादी शब्द को इन वामपंथी विचारधारा के कतिपय प्रोफेसरों, राजनीतिज्ञों, समाजसेवा और मानवाधिकार के ठेकेदारों ने अपनी थेथरई से हलका-फुलका बना दिया है.

बंगाल और केरल क्यों माँगे आजादी इसपर चर्चा को लाना जरूरी है क्योंकि ये नारे सिद्ध करते हैं कि इनके साथ-साथ “भारत तेरे टुकडे होंगे इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह” जैसे नारे क्यों लगाये गये. वास्तव में अलगाववाद कश्मीर या पूर्वोत्तर की समस्या नहीं है यह वामपंथी योजनाबद्धता है जो देश की राजधानी से भारत के सामाजिक-आर्थिक दरारों को चौड़ा करता हुआ अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को आगे बढा रहा है. यह अनायास नहीं है कि देश की कतिपय युनिवर्सिटियाँ माओवादियों का वैचारिक आश्रयस्थल बन जाती हैं, यह अनायास नहीं है कि आतंकवादियों के समर्थक अथवा संलग्न लोगों की पहचान प्रोफेसरों के रूप में हो रही है. इसके साथ साथ यह भी रेखांकित करना चाहूंगा कि अलगाववाद स्वाभाविक या राजनैतिक समस्या नहीं है बल्कि इसे बाकायदा लाल-बीज डाल कर फिर पाला-पोसा गया है. इसके बाद भी हर्गिज प्रोफेसर निवेदिता पर कोई कार्रवाई या उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिये वरना मीडिया ने जैसे कन्हैया पैदा किया है वैसे ही एक यशोदा का भी जन्म हो जायेगा, वामतंत्र काली से काली रात को भी सुबह सिद्ध करने की क्षमता रखता है.

अब छत्तीसगढ, विशेषकर बस्तर बार-बार जेएनयू की वैचारिक बहसों के केन्द्र में क्यों लाया जाता है, अथवा अलगाववाद की जडें कैसे छद्म वामपंथी आन्दोलनों से पोषित की जाती इसके उदाहरण दे कर अपनी बात आगे बढाना चाहता हूँ. राष्ट्रीय से लेकर आंचलिक समाचार पत्रों तक में बस्तर क्षेत्र के अबूझमाड अंचल की अनेक तस्वीरें प्रकाशित होती हैं और वह भी इस कैप्शन के साथ कि इतने वर्षों में यहाँ सरकार क्यों नहीं पहुँची? कोई शोधार्थी इसे रेखांकित करता क्यों नहीं देखा गया कि बस्तर को वामपंथी विचारधारा ने यहाँ के भूगोल और आदिवासी बाहुल्यता के कारण अपनी प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किया गया है. हाल ही में दिवंगत हुए सामाजिक कार्यकर्ता तथा एक समय बस्तर के कलेक्टर रहे ब्रम्हदेव शर्मा ने अपने कार्यकाल में अबूझमाड़ में सड़के बनाने का प्रस्ताव ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था चूंकि ‘आदिवासी आईसोलेशन’ जरूरी बताया गया; इस तरह एक ‘जिन्दा मानवसंग्रहालय’ को उस दौर में जन्म दिया गया जब छुट-पुट नक्सली घटनाओं की आहट बस्तर के जंगल में सुनाई देने लगी थी. अबूझमाड में आमजन का प्रवेश निषेध कर एक जिन्दा मानव संग्रहालय इतनी सख्ती से बनाया गया कि भीतर जाने के लिये कलेक्टरेट से पास जारी कराना पड़ता था और वह भी केवल कुछ घंटों का ही मिल पाता था. इस तरह इस अबूझमाड में साठ के दशक के बाद अति-बौद्धिकता ने न तो सडकें पहुँचने दीं, न बुनियादी संरचनायें यहाँ तक कि जब पीपुल्स वार ग्रुप के नक्सली नेता कोण्डापल्ली सीतारमैय्या को आन्ध्रप्रदेश के मुलुगु जंगलों में नक्सलवाद का अस्तित्व खड़ा करना कठिन जान पडा तो वे अबूझमाड में घुसे क्योंकि लम्बी और जानबूझ कर पैदा की गयी उपेक्षा के कारण अब न तो यहाँ की सडकों की जानकारियाँ ठीक से किसी के पास शेष थीं न ही गाँवों की अवस्थितियाँ. बस्तर के अबूझमाड को आधार इलाका बनाने के लिये लाल-आतंकवादियों ने संघर्ष नहीं किया अपितु उन्हें थाली में सजाकर यह सौगात दी गयी है.

आंकडों का गोवर्धन पर्वत हर कोई उठा रहा है. पूछिये तो जेएनयू के आठ हजार छात्र इस देश की आबादी का कितना प्रतिशत हैं? चलिये शून्य दशमलव शून्य शून्य शून्य वगैरह के बाद कोई अंक आ जायेगा. फिर इस शून्यता में कितने प्रतिशत वोट देशद्रोह के आरोपी जेएनयू के प्रेसिडेंट को मिले हैं? ओह!! तेरह प्रतिशत शायद और यह राष्ट्रीय राजनीति में उपजे स्वयभू वेटिकन के प्रेसिडेंट महोदय का कुल जनाधार है और इन्हें चाहिये आज्ज्जाद्दी. पूछिये तो पूरे देश में सभी वामपंथी दल मिला कर भी इस चुनाव में कितने प्रतिशत पर खडे हैं? छत्तीसगढ को नारेदार आजादी वाली सूची में कश्मीर, केरल वगैरह वगैरह के साथ जानबूझ कर जेएनयू द्वारा खड़ा किया जा रहा है तो उन्हें वहाँ वामधरातल की परख भी होनी चाहिये. इन छत्तीसगढ विधानसभा चुनावों में वामपंथी दल बस्तर की 12 में से नौ सीटों पर लड़े और उन्हें तीसरे से लेकर दसवें स्थान तक हासिल हुआ. वे कहीं भी मुख्य मुकाबले में नहीं थे. दंतेवाडा (12954) और चित्रकोट (11099) छोड़ कर वामदलों को अन्य सभी सीटों में केवल गिनती के वोट ही हासिल हुए हैं. जगदलपुर में तो सीपीआई और सीपीआई (एम-एल) एक दूसरे के खिलाफ ही चुनाव लड रही थी और दोनों को मिलाकर भी गिनती के वोट (3321) मिले. वाम दलों को न्यूनतम 655 मत (जगदलपुर में शंभु प्रसाद सोनी) तो अधिकतम 19384 मत (कोण्टा में मनीष कुंजाम) को प्राप्त हुए, जो इस दल की क्षेत्र में बेहद पतली हालत का प्रदर्शन है और यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि वामपंथ बस्तर में कोई जमीनी हैसियत नहीं रखता.

ये बातें इस लिये सामने रखना आवश्यक है चूंकि बहुत योजनाबद्धता के साथ बौद्धिकता इस देश में अलगाववाद की साजिश रच रही है जो कि वर्तमान जेएनयू प्रकरण में बेनकाब भी हुआ है. वस्तुत: फासीवाद और स्टालिनवाद में कोई अंतर नहीं है यहाँ तक कि हिटलरवाद और माओवाद को भी मौसेरा भाई ही माना जा सकता है. अभिव्यक्ति की आजादी का भारत से बेहतर कोई दूसरा मुल्क उदाहरण नहीं लेकिन दुर्भाग्य कि जो लोग उसकी मर्यादा नहीं रखना चाहते वे स्वयं को देश की कथित सबसे प्रतिष्ठित युनिवर्सिटी का छात्र या प्रोफेसर कहते हैं. अभिव्यक्ति की आजादी का नजारा अस्सी के दशक में वामपपंथी चीन ने ही दिखाया था जिसने अपने छात्रों पर ही टैंक चढा दिया, यहां माओवादी भी ऐसा ही कर रहे हैं छत्तीसगढ में जो मुखबिरी का बहाना गढ कर अपने विरोध की आवाजों का गला रेत रहे हैं. हां जेएनयू की बौद्धिकता बस्तर को विचारधारा की शिकारगाह बना रही है, यह बंद होना चाहिये.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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