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सिकुड़ती कांग्रेस लोकतंत्र की सेहत के लिए खतरनाक है

    • अरविंद मिश्रा
    • Updated: 21 मार्च, 2017 06:35 PM
  • 21 मार्च, 2017 06:35 PM
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कांग्रेस के लिए सिकुड़ना संप्रभु, संघीय, और लोकतांत्रिक देश के लिए अच्छा संकेत नहीं है. देश को निरंकुशता और वर्चस्ववाद से बचाने के लिए एक मजबूत विपक्षी राजनीतिक दल अत्यंत आवश्यक है.

हाल में ही सम्पन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चार में कांग्रेस की सरकार नहीं बनी. जहां उसे उत्तराखंड और मणिपुर में अपनी सरकार गंवानी पड़ी तो 403 विधानसभा वाले देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में उसके हाथ महज 7 सीटें ही आईं. हालाँकि, सांत्वना के रूप में पंजाब उसे ज़रूर मिल गया. एक के बाद एक लगातार हार से कांग्रेस नेताओं का धैर्य भी खोने लगा है और वे अब नेतृत्व परिवर्तन तक की बात करने लगे हैं.

लेकिन सवाल उठता है कि क्या देश का सबसे पुराने राष्ट्रीय राजनीतिक दल का सिकुड़ना देश के सर्वागीण विकास में ठीक है? शायद नहीं. ये लोकतंत्र के लिए एक बड़े खतरे की पास आती आहटों का संकेत है.

कांग्रेस का केंद्र में प्रदर्शन

जब से देश आज़ाद हुआ तब से लेकर 1967 तक इसी कांग्रेस पार्टी का बोलबाला था लेकिन साठ का दशक खत्म होते-होते इसकी चमक फीकी पड़ने लगी थी और 1977 में कांग्रेस को पहली बार सत्ता से बेदखल किया जा सका था जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में पार्टी को अन्य सभी बड़े दलों के गठबंधन से हार का सामना करना पड़ा था.

दूसरी बार कांग्रेस को विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में एक गठबंधन ने 1989 में भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे राजीव गांधी को हराया था. कांग्रेस 1991 से 1996 तक गठबंधन सरकार की अगुवाई करती हुई सत्ता में रही.

इसके बाद 2004 से 2009 और 2009 से 2014 तक केंद्र में कांग्रेस की मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली लगातार दो बार सरकारें बनी. 2014 की लोक सभा परिणाम कांग्रेस पार्टी के लिए किसी दुःस्वप्न के जैसा था जिसमे उसने मात्र 44 सीटों पर ही कब्ज़ा जमाया था.

2014 के बाद से कांग्रेस का राज्यों में प्रदर्शन

2014 के लोकसभा चुनावों में महज 44 सीट तक सिमट जाने वाली कांग्रेस का राज्यों में भी सिमटने का...

हाल में ही सम्पन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चार में कांग्रेस की सरकार नहीं बनी. जहां उसे उत्तराखंड और मणिपुर में अपनी सरकार गंवानी पड़ी तो 403 विधानसभा वाले देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में उसके हाथ महज 7 सीटें ही आईं. हालाँकि, सांत्वना के रूप में पंजाब उसे ज़रूर मिल गया. एक के बाद एक लगातार हार से कांग्रेस नेताओं का धैर्य भी खोने लगा है और वे अब नेतृत्व परिवर्तन तक की बात करने लगे हैं.

लेकिन सवाल उठता है कि क्या देश का सबसे पुराने राष्ट्रीय राजनीतिक दल का सिकुड़ना देश के सर्वागीण विकास में ठीक है? शायद नहीं. ये लोकतंत्र के लिए एक बड़े खतरे की पास आती आहटों का संकेत है.

कांग्रेस का केंद्र में प्रदर्शन

जब से देश आज़ाद हुआ तब से लेकर 1967 तक इसी कांग्रेस पार्टी का बोलबाला था लेकिन साठ का दशक खत्म होते-होते इसकी चमक फीकी पड़ने लगी थी और 1977 में कांग्रेस को पहली बार सत्ता से बेदखल किया जा सका था जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में पार्टी को अन्य सभी बड़े दलों के गठबंधन से हार का सामना करना पड़ा था.

दूसरी बार कांग्रेस को विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में एक गठबंधन ने 1989 में भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे राजीव गांधी को हराया था. कांग्रेस 1991 से 1996 तक गठबंधन सरकार की अगुवाई करती हुई सत्ता में रही.

इसके बाद 2004 से 2009 और 2009 से 2014 तक केंद्र में कांग्रेस की मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली लगातार दो बार सरकारें बनी. 2014 की लोक सभा परिणाम कांग्रेस पार्टी के लिए किसी दुःस्वप्न के जैसा था जिसमे उसने मात्र 44 सीटों पर ही कब्ज़ा जमाया था.

2014 के बाद से कांग्रेस का राज्यों में प्रदर्शन

2014 के लोकसभा चुनावों में महज 44 सीट तक सिमट जाने वाली कांग्रेस का राज्यों में भी सिमटने का सफर जारी रहा.  2014 के हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में भी उसकी करारी हार का सिलसिला जारी रहा.

कांग्रेस के लिए हद तो तब हो गई जब 2015 के दिल्ली विधानसभा में उसे एक भी सीट नहीं मिली. कांग्रेस के लिए 2016 अच्छी खबर लेकर नहीं आया और उसके हाथ से असम जैसा बड़ा राज्य चला गया. केरल में भी उसकी गठबंधन सरकार हार गई जबकि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के साथ चुनाव लड़ने के बावजूद उसका सूपड़ा तक साफ हो गया. हालांकि, पुड्डुचेरी जैसे छोटे राज्य में उसकी सरकार बन गई.

यहां पर सवाल उठना लाज़िमी ही है कि आखिर क्यों दशकों पुरानी इस कांग्रेस पार्टी का ये हाल हुआ? शायद इस पार्टी में कोई नेता गांधी परिवार से अलग खड़ा किया गया जो कांग्रेस को दिशा दे पाता. ज़्यादातर कांग्रेस वरिष्ठ नेता गांधी परिवार में ही अपना राजनैतिक भविष्य देखते रहे. इन सभी कारणों से कांग्रेस अपना राष्ट्रीय चेहरा गंवाती जा रही है.

जैसे-जैसे राज्यों में कांग्रेस का पतन होता जायेगा वैसे-वैसे केंद्र का दखल भी बढ़ता जायेगा. राज्य सभा में भी 2020 तक राजग को किसी भी बिल पास कराने के लिए ज़रूरी बहुमत प्राप्त हो जायेगा. तब शायद मोदी की सरकार और भी मनमानी कर सकती है. वैसे भी बीजेपी और इसके गठबंधन देश की कुल आबादी के करीब 58 फीसदी हिस्से पर विराजमान हो चुका है और इसी साल के अंत तक ये गठबंधन अपना साम्राज्य और भी फैला सकता है.

ऊपर के दिए गए उदाहरणों से साफ है कि कांग्रेस के लिए सिकुड़ना संप्रभु, संघीय, और लोकतांत्रिक देश के लिए अच्छा संकेत नहीं है. देश को निरंकुशता और वर्चस्ववाद से बचाने के लिए एक मजबूत विपक्षी राजनीतिक दल अत्यंत आवश्यक है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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