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सर्जिकल स्ट्राइक का अभिनंदन सेना का अपमान कैसे है ?

    • सुरभि सप्रू
    • Updated: 12 अक्टूबर, 2016 08:09 PM
  • 12 अक्टूबर, 2016 08:09 PM
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एक मुसलमान ने फेसबुक टाइमलाइन पर बीजेपी का वह पोस्टर लगाया जहां प्रधानमंत्री का सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर अभिनंदन था. फिर कैप्शन में लिखा 'ये सेना का अपमान है'. लेकिन कैसे?

सोशल मीडिया पर बहस तो चलती ही रहती है. आजकल राष्ट्रवाद की नयी नयी परिभाषाएं भी आ रही है. एक मुसलमान, हां मुसलमान! मुसलमान को मुसलमान कहने में बहुत समय लग गया. खैर.. बात कुछ ऐसी है कि प्रश्नों से भागने वाली भीड़ से मैंने कुछ प्रश्न पूछ लिए. एक मुसलमान ने अपनी टाइमलाइन पर बीजेपी का पोस्टर लगाया, जिसमें प्रधानमंत्री का सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर अभिनंदन किया था.

जनाब ने पोस्टर लगाया और कैप्शन में लिखा कि 'ये सेना का अपमान है'. मेरी समझ में नहीं आया कि इसमें अपमान सेना का कैसे? लिहाजा, मैंने यही उनसे पूछ लिया तो झट से मुझे 'मोदी भक्त' की उपाधि दे दी गई. संघी बोल दिया गया. शायद ये प्रश्न उनके लिए कठिन था. इसने मुझे मेरे बचपन की याद दिला दी. जब प्रश्न का उत्तर नही आता था तो कुछ बच्चे ये तर्क देते कि पेपर बनाने वाले ने सही पेपर नही बनाया.

जिन्होंने मुझे मोदी भक्त कहा वो एक मुसलमान है और दावा करते हैं कि एक हिन्दुस्तानी हैं. फिर बोल रही हूं, 'एक मुसलमान जो कहते हैं कि वह एक हिन्दुस्तानी हैं'. उनसे मेरा प्रश्न बहुत सीधा और साधारण था. दरअसल, ऐसे हिन्दुस्तानियों से प्रश्न करने का मज़ा ही कुछ और होता है. मैंने उनसे पूछा कि ये बताईये कि आज से 26 साल पहले कश्मीर में जो पंडितों के साथ हुआ क्या इसके लिए जिम्मेदार उन मुसलमानों के खिलाफ आप खड़े होंगे? हमें मारा गया, कुचला गया, सड़क पर फेंका गया. क्या अब आप उन मुसलमानों के खिलाफ खड़े होंगे?

इसे भी पढ़ें: बुरहान वानी पर दुख है तो कश्‍मीरी पंडितों के पलायन पर क्यों नहीं?

जवाब में उन्होंने मुझे इंसानियत का पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया. जनाब ने मुझ से पूछा कि क्या मैं गुजरात के दंगों में मारे गए मुसलमानों के लिए खड़ी होंगी? शर्त रखी कि यदि मैं मुसलमानों के लिए खड़ी हुई तो वह भी पंडितों के पक्ष में खड़े हो जाएंगे....

सोशल मीडिया पर बहस तो चलती ही रहती है. आजकल राष्ट्रवाद की नयी नयी परिभाषाएं भी आ रही है. एक मुसलमान, हां मुसलमान! मुसलमान को मुसलमान कहने में बहुत समय लग गया. खैर.. बात कुछ ऐसी है कि प्रश्नों से भागने वाली भीड़ से मैंने कुछ प्रश्न पूछ लिए. एक मुसलमान ने अपनी टाइमलाइन पर बीजेपी का पोस्टर लगाया, जिसमें प्रधानमंत्री का सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर अभिनंदन किया था.

जनाब ने पोस्टर लगाया और कैप्शन में लिखा कि 'ये सेना का अपमान है'. मेरी समझ में नहीं आया कि इसमें अपमान सेना का कैसे? लिहाजा, मैंने यही उनसे पूछ लिया तो झट से मुझे 'मोदी भक्त' की उपाधि दे दी गई. संघी बोल दिया गया. शायद ये प्रश्न उनके लिए कठिन था. इसने मुझे मेरे बचपन की याद दिला दी. जब प्रश्न का उत्तर नही आता था तो कुछ बच्चे ये तर्क देते कि पेपर बनाने वाले ने सही पेपर नही बनाया.

जिन्होंने मुझे मोदी भक्त कहा वो एक मुसलमान है और दावा करते हैं कि एक हिन्दुस्तानी हैं. फिर बोल रही हूं, 'एक मुसलमान जो कहते हैं कि वह एक हिन्दुस्तानी हैं'. उनसे मेरा प्रश्न बहुत सीधा और साधारण था. दरअसल, ऐसे हिन्दुस्तानियों से प्रश्न करने का मज़ा ही कुछ और होता है. मैंने उनसे पूछा कि ये बताईये कि आज से 26 साल पहले कश्मीर में जो पंडितों के साथ हुआ क्या इसके लिए जिम्मेदार उन मुसलमानों के खिलाफ आप खड़े होंगे? हमें मारा गया, कुचला गया, सड़क पर फेंका गया. क्या अब आप उन मुसलमानों के खिलाफ खड़े होंगे?

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जवाब में उन्होंने मुझे इंसानियत का पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया. जनाब ने मुझ से पूछा कि क्या मैं गुजरात के दंगों में मारे गए मुसलमानों के लिए खड़ी होंगी? शर्त रखी कि यदि मैं मुसलमानों के लिए खड़ी हुई तो वह भी पंडितों के पक्ष में खड़े हो जाएंगे. उनका ये जवाब मुझे किसी बिज़नस डील जैसे लगा. जैसे कोई सौदा हो रहा हो. कमाल है ऐसे हिन्दुस्तानी जिन्होंने संवेदनाओं को भी बांट दिया है. खैर ये बहस चलती रही और उस बहस में मेरा प्रश्न जैसे खो गया.

बहस में ट्विस्ट तब आया जब एक जाने माने विश्वविद्यालय की उपज बाहर आई और राष्ट्रवाद की 2 परिभाषाएं बताने लगी. आप खुद अनुमान लगा लीजिये ये मूली किस खेत की है. मेरा मतलब है इन जनाब ने भी अपनी बात रखनी शुरू की. ये वो हैं जिन्हें 'भारत माता की जय' कहने से आपत्ति है और इनके लिए रोहित वमुला और कन्हैया सबसे बड़े देशभक्त है. ये अपनी प्रोफाइल पर अपने इंट्रो में अम्बेडकरवादी लिखते हैं, पर आज तक एक भी दलित के घर नही गए. कभी किसी दलित को अपने हाथों से रोटी नही खिलाई. लेकिन ये दलितों के देवता हैं. ऐसे देवता जिन्हें दलित समाज जानता तक नही होगा.

 राष्ट्रवाद की ये कैसी परिभाषा

इन्होंने भी मुझे मोदी भक्त की उपाधि दे दी और हर बार की तरह पंडितों की बात आई तो फेसबुक पर संवेदना तो दे ही देते हैं. ये मुझे 'राष्ट्रवाद' समझा रहे थे. इनसे पहले जो हिन्दुस्तानी आये थे उन्होंने मेरे खानदान पर प्रश्न उठाना शुरू कर दिया. लेकिन मुझे बुरा इसलिए नही लगा क्योंकि मुझे अपना सवाल का जवाब न मिलने की पूरी उम्मीद थी.

अंबेडकरवादी ने मुझ से कहा कि मुझ पर 'भगवा' रंग चढ़ गया है. चलिए ये भी ठीक है. अब क्या कहें इनसे कि अंबेडकरवादी ये तो 'भगवा' ही था जिसके कारण हमने तलवार नहीं कलम उठाई. ये वही 'भगवा' था जिसके कारण हम 26 साल से शांत हैं. ये 'भगवा' रंग ही था जो इतने अत्याचार के बाद भी हम दरगाह जाते हैं. ये 'भगवा' ही था जिसने हमें नफरत न करके दोस्ती के लिए रोज़े रखने की बात कही. ये 'भगवा' ही था जिस ने 'भगवा' कहने वालों पर भरोसा किया पर उसे क्या पता था कि उसे उसका पडोसी 'भगवा' समझता है और वो उसे ही मार डालेगा.

इस 'भगवा' ने उन्हें जब कहा कि मैं बलोच और सीरिया के मुसलमानों के साथ भी हूँ तो मुझे कहा गया कि बाहर के देशों से हमें क्या लेना देना? यानी मुस्लिम समाज मुसलमानों के लिए भी खड़ा नहीं होता. ये भी देखा जाता है कि बाहर वाला, अन्दर वाला, वो वाला और ये वाला. अब मुझे बताईये कि ये कैसे हिदुस्तानी है जो खुद अपने ही समाज को बांट रहे हैं और ये कहकर कि वो बाहर वाले हैं?

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ये कैसा अंबेडकरवादी है जो अंबेडकर के नाम को अपने से जोड़ लेता है. अगर वो ये नाम जोड़ता है तो वो केवल एक समाज का हुआ, देश का कैसे? क्या ये मुझे राष्ट्रवाद की परिभाषा दे सकता है? इस पर विचार करना ज़रूरी हो जाता है कि ये कैसा अंबेडकरवादी है? और ये कैसा हिन्दुस्तानी है? मेरे खानदान के बारे में पूछने वालों को मैं बता दूँ कि मैं उस खानदान से हूँ जो आज से 26 साल पहले मुसलमानों के अत्याचार से बेघर हुई फिर भी 'भारत माता कि जय' कहने से नहीं कतराई. जवानों को 'जय हिन्द' कहने से नहीं कतराई.

मैं वो भगवा हूँ जिसने अपने लोगों को मरते हुए देखा पर कभी किसी मुसलमान पर हाथ नहीं उठाया. मेरी देशभक्ति पर प्रश्न करने वाले सेक्यूलर चापलूसों को मैं ये बता दूँ कि जिस देश में मुझे 'विस्थापित' की उपाधी दी गयी उस देश की मिट्टी मेरे लिए सोना है. क्योंकि मुझे एक दिन इसी में मिल जाना है. तुम न तो अंबेडकरवादी हो और न ही हिन्दुस्तानी.

मेरे आखिरी प्रश्न का जवाब देना अगर हिम्मत है तो कश्मीर में जितने पंडित मारे गए थे उतने ही मुसलमान भी. मुसलमानों को 2 तरह की मौत मिली थी. एक वो जो मारे गए और एक जिनके बच्चे आतंकवादी बनाए गए. तो क्या तुम उन मुसलमानों के खिलाफ खड़े हो सकते हो? क्या उनके खिलाफ कोई आवाज़? इस प्रश्न पर मैं विराम लेती हूँ.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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