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प्रिय संघियों, विरोधी विचारों से इतना डर क्यों?

    • गिरिजेश वशिष्ठ
    • Updated: 17 फरवरी, 2016 02:59 PM
  • 17 फरवरी, 2016 02:59 PM
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विश्वविद्यालयों में हिटलर भी पढ़ाया जाता है, हेडगेवार भी पढ़ाया जाता है, मुसोलिनी भी पढ़ाया जाता है तो गांधी भी जगह पाते हैं. लेकिन क्या इनके अलग-अलग विचारों से वाकई हमें डरने की कोई जरूरत है.

मेरे प्यारे संघ परिवारी भाइयो. अफज़ल पर संवाद को व्यापक नजरिये से देखना होगा. आप जिस कथित राष्ट्रवाद के विचार का पालन करते हैं वो भी कहीं न कहीं किसी न किसी विचार मंथन से निकला है. विश्वविद्यालय विद्यालय होते हैं पाठशाला नहीं. वहां विचारों का समुद्रमंथन होता है. इस समुद्रमंथन की सालों की प्रक्रिया से विचारों का अमृत निकलता है और ये अमृत ही समाज को दिशा देता है. उस की दशा सुधारता है. विचारमंथन तभी हो सकता है जबकि सभी प्रकार के विचार सामने आएं. उनपर संवाद हो. तर्क हों. कुतर्क हो. ये सब विश्वविद्यालय में तभी हो सकता है जब सरकार उन्हें स्वतंत्र छोड़े.

अगर आप अपनी खास सोच के अलावा किसी और सोच को मौका ही नहीं देंगे तो नयी हवा कैसे आएगी. विश्वविद्यालयों में हिटलर भी पढ़ाया जाता है, हेडगेवार भी पढ़ाया जाता है, मुसोलिनी भी पढ़ाया जाता है तो गांधी भी जगह पाते हैं. हमारे देश से विद्वान पूरी दुनिया में जाते हैं और विचार रखते हैं. स्वामी विवेकानंद के विचारों के जानकर दुनिया ने खुद को समृद्ध किया. हम भी पूरी दुनिया के विचारों के देखते समझते और उनसे सीखते रहे हैं. हो सकता है कि किसी विचार से आप सहमत न हों लेकिन आप तय नहीं कर सकते कि विश्वविद्यालयों में किस प्रकार का विचार विमर्ष हो.

मैं मानता हूं कि कुछ विचारधाराएं जड़ता की हिमायती हैं. वो समय का चक्र भी उल्टा घुमाना चाहती है. उनके लिए भी विचार रखने की छूट होनी चाहिए. जेएनयू में इस विचारधारा के लोग भी थे. थे ही नहीं बल्कि वो मजबूत संख्या में थे. लेकिन शक्तियों और सत्तातंत्र का दुरुपयोग कर आप तय नहीं कर सकते कि विश्वविद्यालय में क्या बाते हों. विश्विद्यालय को विद्यालय रहना चाहिए. उसे पाठशाला न बनाया जाए.

भारत ज्ञान का देश है. यहां आस्तिक-नास्तिक, शैव- वैष्णव, जैन-बौद्ध, हिंदू-मुसलमान, शाकाहार-मांसाहार जैसे हजारों विचार एक साथ रहे हैं और उन्होंने एक दूसरे को पूरा सम्मान दिया है. भारत के गौरवशाली अतीत को देखते हुए दुनिया के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय भारत में ही होने चाहिये थे....

मेरे प्यारे संघ परिवारी भाइयो. अफज़ल पर संवाद को व्यापक नजरिये से देखना होगा. आप जिस कथित राष्ट्रवाद के विचार का पालन करते हैं वो भी कहीं न कहीं किसी न किसी विचार मंथन से निकला है. विश्वविद्यालय विद्यालय होते हैं पाठशाला नहीं. वहां विचारों का समुद्रमंथन होता है. इस समुद्रमंथन की सालों की प्रक्रिया से विचारों का अमृत निकलता है और ये अमृत ही समाज को दिशा देता है. उस की दशा सुधारता है. विचारमंथन तभी हो सकता है जबकि सभी प्रकार के विचार सामने आएं. उनपर संवाद हो. तर्क हों. कुतर्क हो. ये सब विश्वविद्यालय में तभी हो सकता है जब सरकार उन्हें स्वतंत्र छोड़े.

अगर आप अपनी खास सोच के अलावा किसी और सोच को मौका ही नहीं देंगे तो नयी हवा कैसे आएगी. विश्वविद्यालयों में हिटलर भी पढ़ाया जाता है, हेडगेवार भी पढ़ाया जाता है, मुसोलिनी भी पढ़ाया जाता है तो गांधी भी जगह पाते हैं. हमारे देश से विद्वान पूरी दुनिया में जाते हैं और विचार रखते हैं. स्वामी विवेकानंद के विचारों के जानकर दुनिया ने खुद को समृद्ध किया. हम भी पूरी दुनिया के विचारों के देखते समझते और उनसे सीखते रहे हैं. हो सकता है कि किसी विचार से आप सहमत न हों लेकिन आप तय नहीं कर सकते कि विश्वविद्यालयों में किस प्रकार का विचार विमर्ष हो.

मैं मानता हूं कि कुछ विचारधाराएं जड़ता की हिमायती हैं. वो समय का चक्र भी उल्टा घुमाना चाहती है. उनके लिए भी विचार रखने की छूट होनी चाहिए. जेएनयू में इस विचारधारा के लोग भी थे. थे ही नहीं बल्कि वो मजबूत संख्या में थे. लेकिन शक्तियों और सत्तातंत्र का दुरुपयोग कर आप तय नहीं कर सकते कि विश्वविद्यालय में क्या बाते हों. विश्विद्यालय को विद्यालय रहना चाहिए. उसे पाठशाला न बनाया जाए.

भारत ज्ञान का देश है. यहां आस्तिक-नास्तिक, शैव- वैष्णव, जैन-बौद्ध, हिंदू-मुसलमान, शाकाहार-मांसाहार जैसे हजारों विचार एक साथ रहे हैं और उन्होंने एक दूसरे को पूरा सम्मान दिया है. भारत के गौरवशाली अतीत को देखते हुए दुनिया के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय भारत में ही होने चाहिये थे. जेएनयू उन विश्वविद्यालयों के तौर पर पहचाना जाता रहा है. उसका सम्मान रहा है. इसे ज़िदा रखने की कोशिश होनी चाहिए. जब प्रयोगशाला में परिष्करण और प्रयोग हो रहे होते हैं तो वहां कुछ बुरा या अच्छा नहीं होता. सभी तत्व होते हैं. कोई विष नहीं होता, कोई अमृत नहीं होता. कोई तेज़ाब नहीं होता कोई शीतल नहीं होता. ज्ञान को मुक्त रखेंगे तो समाज बढ़ेगा. इस मुक्ति को मार देंगे तो क्या मिलेगा. राजनीतिक लाभ तो 5 -10 साल का है लेकिन ज्ञान सदियों के लिए होता है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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