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जरा संभल के चल ए तंगदिल यूरोप!

    • अल्‍पयू सिंह
    • Updated: 09 मई, 2016 02:10 PM
  • 09 मई, 2016 02:10 PM
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एलन कुर्दी की मौत के बाद नंगी हुई यूरोप की तंगदीली आज भी वहीं की वहीं है. बल्कि वो आज और खुलकर सबके सामने है. लेकिन सवाल तो ये है कि यूरोप अपने बीते कल से सबक लेगा?

यूरोप में पिछले दिनों दो बड़ी , लेकिन विरोधाभासी बातें हुईं । एक लंदन में तो दूसरी बर्लिन में. जिस वक्त पाकिस्तान मूल के सादिक खान लंदन के मेयर पद की शपथ ले रहे थे, उसी वक्त बर्लिन की सड़कें No Islam on German Soil". Merkel Must Go के नारों से गूंज रही थीं । साफ है यूरोप इस वक्त एक ऐसी वैचारिक उथल-पुथल से गुजर रहा है कि किसी को समझ नहीं आ रहा कि आगे क्या होगा?

शरणार्थियों का मसला जैसे एक बिना नाम वाला चौराहा बन गया है जहां आने वाला वक्त ही बताएगा कि यूरोपीय देशों की राजनीति की राह आखिरकार निकलेगी किस ओर? और सबसे अहम सवाल ये कि ऐसे में शरण मांगने आ रहे लोगों के लिए इन सब का क्या मतलब है.

बात अगर जर्मनी से शुरू की जाए तो प्रवासी मसले पर अगुवाई करने वाली चांसलर मर्केल के राजनीतिक जीवन का शायद ये सबसे मुश्किल दौर है. एक ओर बड़ी संख्या में आ रहे प्रवासियों को लेकर ईयू देशों के साथ निपटने की चुनौती तो दूसरी ओर घर में बहुसंख्यक बन चुके उग्र दक्षिणपंथियों के निशाने पर रहना. जर्मनी की चौखट पर शरण मांगने आए शरणार्थियों को लेकर जो विरोध पहले पहल देश के भीतर किसी किसी कोने से आ रहा था वो, आज जर्मनी की ज्यादातर सड़कों की सच्चाई है. 11 लाख लोगों के जर्मनी में आने के बाद जैसे ये देश अपने उस मानवीय चेहरे वाले मुखौटे को भी उतार फेंकने से गुरेज नहीं कर रहा है जो एलनकुर्दी की तस्वीर सामने आने के बाद चढ़ाया गया था.

जर्मनी में सड़क पर दक्षिणपंथी राजनीति कर अपना कद बढ़ा रही पार्टी एएफडी ने बकायदा अपने चुनावी घोषणापत्र में ही इस्लाम और बुर्के के खिलाफ काफी कुछ लिख भी डाला है ...लेकिन बात सिर्फ यहीं तक ही नहीं. जर्मनी ही नहीं इस वक्त यूरोप भर में एंटी इस्लाम की धारा अपने शबाब पर है. पेरिस और ब्रसेल्स हमले और प्रवासियों के संकट ने यूरोप में उग्र दक्षिणपंथी विचारधारा को नई ऊर्जा दी है. इस वक्त कई यूरोपीय देशों में उग्र राष्ट्रवाद अपने परवान पर है. कुछ देशों के चुनाव नतीजों में इस बदलाव को महसूस किया जा सकता है.

यूरोप में पिछले दिनों दो बड़ी , लेकिन विरोधाभासी बातें हुईं । एक लंदन में तो दूसरी बर्लिन में. जिस वक्त पाकिस्तान मूल के सादिक खान लंदन के मेयर पद की शपथ ले रहे थे, उसी वक्त बर्लिन की सड़कें No Islam on German Soil". Merkel Must Go के नारों से गूंज रही थीं । साफ है यूरोप इस वक्त एक ऐसी वैचारिक उथल-पुथल से गुजर रहा है कि किसी को समझ नहीं आ रहा कि आगे क्या होगा?

शरणार्थियों का मसला जैसे एक बिना नाम वाला चौराहा बन गया है जहां आने वाला वक्त ही बताएगा कि यूरोपीय देशों की राजनीति की राह आखिरकार निकलेगी किस ओर? और सबसे अहम सवाल ये कि ऐसे में शरण मांगने आ रहे लोगों के लिए इन सब का क्या मतलब है.

बात अगर जर्मनी से शुरू की जाए तो प्रवासी मसले पर अगुवाई करने वाली चांसलर मर्केल के राजनीतिक जीवन का शायद ये सबसे मुश्किल दौर है. एक ओर बड़ी संख्या में आ रहे प्रवासियों को लेकर ईयू देशों के साथ निपटने की चुनौती तो दूसरी ओर घर में बहुसंख्यक बन चुके उग्र दक्षिणपंथियों के निशाने पर रहना. जर्मनी की चौखट पर शरण मांगने आए शरणार्थियों को लेकर जो विरोध पहले पहल देश के भीतर किसी किसी कोने से आ रहा था वो, आज जर्मनी की ज्यादातर सड़कों की सच्चाई है. 11 लाख लोगों के जर्मनी में आने के बाद जैसे ये देश अपने उस मानवीय चेहरे वाले मुखौटे को भी उतार फेंकने से गुरेज नहीं कर रहा है जो एलनकुर्दी की तस्वीर सामने आने के बाद चढ़ाया गया था.

जर्मनी में सड़क पर दक्षिणपंथी राजनीति कर अपना कद बढ़ा रही पार्टी एएफडी ने बकायदा अपने चुनावी घोषणापत्र में ही इस्लाम और बुर्के के खिलाफ काफी कुछ लिख भी डाला है ...लेकिन बात सिर्फ यहीं तक ही नहीं. जर्मनी ही नहीं इस वक्त यूरोप भर में एंटी इस्लाम की धारा अपने शबाब पर है. पेरिस और ब्रसेल्स हमले और प्रवासियों के संकट ने यूरोप में उग्र दक्षिणपंथी विचारधारा को नई ऊर्जा दी है. इस वक्त कई यूरोपीय देशों में उग्र राष्ट्रवाद अपने परवान पर है. कुछ देशों के चुनाव नतीजों में इस बदलाव को महसूस किया जा सकता है.

जर्मनी में इस्लाम विरोधी प्रदर्शन के दौरान लगे No Islam on German Soil". Merkel Must Go के नारे

यूरोप में प्रवासियों के लॉन्चपैड की तरह इस्तेमाल हो रहे तुर्की को लेकर भी मामला अब इतना सीधा-सपाट नहीं रहा है, एक तो ईयू तुर्की डील में अहम भूमिका निभाने वाले तुर्क पीएम अहमत दावुतोग्ल ने कुर्सी छोड़ दी है , दूसरा शरणार्थियों को ग्रीस से वापस लेने की एवज में तुर्की अब ईयू के साथ ब्लैकमेलिंग पर भी उतर आया है. ऐसे में जिस डील के जरिए मर्केल प्रवासी समस्या की नैया पार लगाने की सोच रही थीं उस पर तो काले बादल छा ही गए हैं. यानी हालात ठीक नहीं हैं.

यूरोपीय देशों की अंदरूनी राजनीति का खामियाजा अगर किसी को भुगतना पड़ रहा है तो वो है वह शख्स जिसे दुनिया शरणार्थी के नाम से जानती है. युद्ध और बर्बादी झेल आए इस शख्स की कोई पहचान नहीं है. न अतीत और न ही भविष्य. वो सिर्फ आज जीने की जद्दोजेहद में है. यूरोपीय देशों के बॉर्डर पर या फिर कैंपों में इसकी जिंदगी तो जैसे आगे कुआं पीछे खाई जैसी है. इनमें कईयों की जिंदगी का सफर ऐसे ही थम जाया करता है जैसा एलन कुर्दी का ग्रीस के एक तट पर थम गया था. सीरिया और ईराक के अलावा लीबिया से भी हजारों की तादाद में ये लोग सिर्फ इसलिए अपना घर बार छोड़ रहे हैं क्योंकि इसके अलावा इन के पास कोई विकल्प नहीं है.

सादिक खान लंदन के मेयर बनने वाले पहले मुस्लिम हैं

एलन कुर्दी की मौत के बाद नंगी हुई यूरोप की तंगदीली आज भी वहीं की वहीं है. बल्कि वो आज और खुलकर सबके सामने है. लेकिन सवाल ये कि क्या यूरोप अपने बीते कल से सबक लेगा कुछ ऐसे ही हालात दूसरे विश्व युद्ध के बाद सामने आए थे....लेकिन तब यूरोप ने प्रवासियों के लिए दरवाजे खोल दिए थे और इतिहास गवाह है कि उस वक्त लिया गया ये फैसला उसके हक में ही गया था. बीते कल नहीं तो आने वाले कल के बारे में सोचना भी फायदे के सौदे से कम नहीं.

एक अनुमान के मुताबिक यूरोप को अपनी बूढ़ी होती आबादी के मद्देनजर आने वाले पांच सालों में ऐसे 5-6 करोड़ की तरुण आबादी की जरुरत तो है ही. और यूरोप चाहे या ना चाहे इस्लाम उसके कल का ही नहीं आज का भी हिस्सा बन चुका है, और इसीलिए कोई सादिक खान इसी सब में सामने आता है और उसे न सिर्फ राजनीति में जगह बल्कि स्वीकायर्ता भी मिलती है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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