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चार महीने में बीजेपी के चार गलत फैसले

    • रीमा पाराशर
    • Updated: 19 जुलाई, 2016 11:38 AM
  • 19 जुलाई, 2016 11:38 AM
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उत्तरखंड से लेकर अरुणाचल प्रदेश और सुब्रमण्यम स्वामी से लेकर नवजोत सिंह सिद्धू के फैसले तक बीजेपी को लगे झटके दिखाते हैं कि पार्टी ने कई गलत फैसले लिए, आखिर कौन लेगा इनकी जिम्मेदारी?

राज्यसभा से नवजोत सिंह सिंद्धू के इस्तीफे ने बीजेपी और नरेंद्र मोदी सरकार के आसपास सवालों का ऐसा जाल बुन दिया है जिससे बाहर निकलना उसके लिए आसान नहीं होगा. पिछले चार महीने में लिए गए चार गलत फैसलों ने 2014 की जीत से पैदा हुए माहौल को आसमान से जमीन पर ला दिया है.

पहले उत्तराखंड और फिर अरुणाचल में राष्ट्रपति शासन, फिर सुब्रमणियम स्वामी को राज्य सभा में लाना और उसके बाद नवजोत सिंह सिद्धू को मनाकर राज्य सभा में पहुंचाना पार्टी के वो फैसले रहे जिनसे उसे मुंह की खानी पड़ी.

इन फैसलों ने ना सिर्फ सरकार के रणनीतिकारों की समझ पर सवाल उठाए बल्कि बीजेपी के लिए बार-बार कही जाने वाली इस बात को भी जिंदा किया कि सत्ता में आकर भी उसे सत्ता संभालने का वो हुनर नहीं आ पाता जो कांग्रेस के अंदर जन्मजात है.

पढ़ें: ट्विटर पर तो सिद्धू बना दिए गए पंजाब में आप के सीएम कैंडिडेट !

चार महीने, चार गलत फैसले

शुरुआत हुई उत्तराखण्ड में बीजेपी के जोड़ तोड़ से सरकार बनाने के सपने से. पार्टी ने कांग्रेस के बागियों को अपनी तरफ खींचा और राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर डाली. उस समय भी ये सवाल उठे कि पार्टी को राज्य में 2017 में होने वाले चुनाव तक इंतजार करना चाहिए, जिसमे जीत की सम्भावना भी है. लेकिन आलाकमान ने जल्दबाजी में फैसला लिया जो आगे चलकर नासूर साबित हुआ. कुछ ऐसी ही स्थिति अरुणाचल प्रदेश में बनी जिसका हश्र पार्टी अब तक देख रही है.

पढ़ें: ये हैं 5 नए मोदी के मंत्री, जिनका मंत्रालय है आगामी चुनाव

लेकिन सरकार के इन दोनों फैसलो पर भारी पड़ा सुब्रमण्यम स्वामी और नवजोत सिंह...

राज्यसभा से नवजोत सिंह सिंद्धू के इस्तीफे ने बीजेपी और नरेंद्र मोदी सरकार के आसपास सवालों का ऐसा जाल बुन दिया है जिससे बाहर निकलना उसके लिए आसान नहीं होगा. पिछले चार महीने में लिए गए चार गलत फैसलों ने 2014 की जीत से पैदा हुए माहौल को आसमान से जमीन पर ला दिया है.

पहले उत्तराखंड और फिर अरुणाचल में राष्ट्रपति शासन, फिर सुब्रमणियम स्वामी को राज्य सभा में लाना और उसके बाद नवजोत सिंह सिद्धू को मनाकर राज्य सभा में पहुंचाना पार्टी के वो फैसले रहे जिनसे उसे मुंह की खानी पड़ी.

इन फैसलों ने ना सिर्फ सरकार के रणनीतिकारों की समझ पर सवाल उठाए बल्कि बीजेपी के लिए बार-बार कही जाने वाली इस बात को भी जिंदा किया कि सत्ता में आकर भी उसे सत्ता संभालने का वो हुनर नहीं आ पाता जो कांग्रेस के अंदर जन्मजात है.

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चार महीने, चार गलत फैसले

शुरुआत हुई उत्तराखण्ड में बीजेपी के जोड़ तोड़ से सरकार बनाने के सपने से. पार्टी ने कांग्रेस के बागियों को अपनी तरफ खींचा और राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर डाली. उस समय भी ये सवाल उठे कि पार्टी को राज्य में 2017 में होने वाले चुनाव तक इंतजार करना चाहिए, जिसमे जीत की सम्भावना भी है. लेकिन आलाकमान ने जल्दबाजी में फैसला लिया जो आगे चलकर नासूर साबित हुआ. कुछ ऐसी ही स्थिति अरुणाचल प्रदेश में बनी जिसका हश्र पार्टी अब तक देख रही है.

पढ़ें: ये हैं 5 नए मोदी के मंत्री, जिनका मंत्रालय है आगामी चुनाव

लेकिन सरकार के इन दोनों फैसलो पर भारी पड़ा सुब्रमण्यम स्वामी और नवजोत सिंह सिद्धू को राज्यसभा में लाना. दोनों ही नेता बीजेपी और सरकार में कई नेताओ के आंख की किरकिरी रहे. लेकिन इसके बावजूद दोनों को राज्यसभा में लाकर एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश हुई. दोनों नेताओ में एक बात कॉमन थी की दोनों ही वित्त मंत्री अरुण जेटली के विरोधी रहे हैं.

नवजोत सिंह सिद्धू द्वारा राज्य सभा से इस्तीफा देने को बीजेपी के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है

अमृतसर से अरुण जेटली की हार के पीछे सिद्धू को बड़ी वजह माना गया जो ना तो जेटली का प्रचार करने पहुंचे और ना ही उनकी हार के बाद सामने आये. स्वामी के जेटली विरोधी बयान भी किसी से छिपे नहीं. इसलिए जेटली विरोध के बावजूद इन दोनों की राजयसभा में एंट्री ने संकेत दिए कि ये अरुण जेटली का कद छोटा करने की तरफ पहला कदम है.

पढ़ें: तो क्या यूपी के लिए राजनाथ हैं मोदी का प्लान ए?

वजह चाहे जो हो लेकिन इन सभी फैसलो ने आखिरकार सरकार और पार्टी की किरकिरी की है. सिद्धू के जाने से राजनीतिक नुकसान हो या ना हो लेकिन बीजेपी के अंदर वो आवाजें ज़रूर बुलंद हो गई हैं जिन्होंने सिद्धू के भविष्य में लिए जाने वाले इस कदम को भांपकर विरोध किया था. फिलहाल पार्टी बैकफुट पर है और सिद्धू के अगले दांव पर आंखे लगाए बैठी है.

बीजेपी का पावर सेंटर मोदी और अमित शाह की जोड़ी बन गई है!

एक पावर सेंटर

राजनीतिक पंडित बीजेपी में चल रहे इस घमासान के पीछे उस पावर सेंटर को मानते हैं जो जनसंघ के समय से अब तक कभी नहीं रहा. पिछली एनडीए सरकार की बात करें तो एक तरफ अटल बिहारी वाजपेयी का खेमा था तो दूसरी तरफ लाल कृष्ण आडवाणी के करीबी. दोनों में मुद्दों के आधार पर खींचतान चलती रहती थी और अंत में फैसला संघ के दखल से हो जाया करता था.

लेकिन आज पार्टी का चेहरा और अंदाज बदल चुका है अब गुटबाजी की जगह नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने ले ली है. पिछले 2 साल में लिए गए तमाम फैसलो पर अंतिम मोहर यहीं से लगती दिखाई दी जिसका ताजा उदाहरण हाल में हुआ मंत्रिमण्डल विस्तार रहा. जिसमे मंत्रियों के चयन से लेकर पोर्टफोलियो तक मोदी-शाह की जोड़ी ने ही तय किये.

ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है की आखिर जिन फैसलो ने पार्टी विरोधियो को हमला करने का मौका दिया है उनकी जिम्मेदारी कौन लेगा?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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