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क्‍यों हमेशा याद रहेगा ये बिहार चुनाव

    • धीरेंद्र राय
    • Updated: 07 नवम्बर, 2015 08:21 PM
  • 07 नवम्बर, 2015 08:21 PM
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बिहार का ये चुनाव सिर्फ आरोप-प्रत्‍यारोप ही नहीं, बल्कि कई और बातों के लिए हमेशा याद किया जाएगा. आइए कुछ पर नजर डालते हैं-

2014 के लोकसभा चुनाव और बिहार चुनाव में मुद्दों को लेकर कोई अंतर नहीं रहा. विकास से बात शुरू हुई, लेकिन वह आगे चलकर नेताओं के बीच की सीधी लड़ाई होती चली गई. बीजेपी की ओर से हर जगह मोदी और अमित शाह ही थे. लोकसभा चुनाव की तरह. लालू और नीतीश ने जमकर आरोप लगाए गए. जातिगत ध्रुवीकरण की जमकर कोशिश हुई. सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश हुई.
देश को यह सब इसलिए भी हमेशा याद रहेगा, क्‍योंकि इन्‍हीं कोशिशों में सहिष्‍णुता और असहिष्‍णुता को लेकर राष्‍ट्रव्‍यापी बहस छिड़ी है. बिहार का ये चुनाव एक तरह से  मिनी लोकसभा चुनाव ही तो था.

प्रधानमंत्री विरुद्ध मुख्‍यमंत्री: राजनीति में दिलचस्‍पी रखने वालों को याद होगा जून 2010 का वह वाकया. पटना में राष्‍ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान एक भोज का आयोजन किया गया था, जिसमें तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार को भी आना था. लेकिन, उस भोज के पहले पटना की अखबारों में एक विज्ञापन छपा, जिसमें मोदी और नीतीश एक दूसरे का हाथ थामे फोटो पर लिखा था गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी का बिहार में स्‍वागत है. इस विज्ञापन से नाराज नीतीश ने मोदी के लिए अपनी तल्‍खी का सार्वजनिक कर दिया.
उस विज्ञापन से उपजी नाराजगी देश की सबसे बड़ी सियासी लड़ाई में से एक बन गई. और बिहार चुनाव के आखिरी चरण के मतदान से पहले बीजेपी ने नीतीश को एक विज्ञापन के जरिए ही परेशान किया.

चुनाव मैनेजमेंट: बिहार में अब तक हर पार्टी अपने संगठन के बूते ही चुनाव लड़ती आई है. लेकिन इस बार जेडीयू ने थर्ड पार्टी का भी सहारा लिया. ये थर्ड पार्टी थे प्रशांत किशोर. लोकसभा चुनाव में मोदी के लिए रणनीति बनाने वाले प्रशांत बिहार में नीतीश के कैंपेन मैनेजर थे. उनके कहने पर ही जेडीयू के झंडे से हरा रंग हटाकर उसमें लाल रंग भरा गया. ताकि उनकी पार्टी की छवि समाजवादी से हटकर क्रांतिकारी वाली दिखाई दे. झंडे का लाल रंग बीजेपी के केसरिया को हलका कर दे. और...

2014 के लोकसभा चुनाव और बिहार चुनाव में मुद्दों को लेकर कोई अंतर नहीं रहा. विकास से बात शुरू हुई, लेकिन वह आगे चलकर नेताओं के बीच की सीधी लड़ाई होती चली गई. बीजेपी की ओर से हर जगह मोदी और अमित शाह ही थे. लोकसभा चुनाव की तरह. लालू और नीतीश ने जमकर आरोप लगाए गए. जातिगत ध्रुवीकरण की जमकर कोशिश हुई. सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश हुई.
देश को यह सब इसलिए भी हमेशा याद रहेगा, क्‍योंकि इन्‍हीं कोशिशों में सहिष्‍णुता और असहिष्‍णुता को लेकर राष्‍ट्रव्‍यापी बहस छिड़ी है. बिहार का ये चुनाव एक तरह से  मिनी लोकसभा चुनाव ही तो था.

प्रधानमंत्री विरुद्ध मुख्‍यमंत्री: राजनीति में दिलचस्‍पी रखने वालों को याद होगा जून 2010 का वह वाकया. पटना में राष्‍ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान एक भोज का आयोजन किया गया था, जिसमें तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार को भी आना था. लेकिन, उस भोज के पहले पटना की अखबारों में एक विज्ञापन छपा, जिसमें मोदी और नीतीश एक दूसरे का हाथ थामे फोटो पर लिखा था गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी का बिहार में स्‍वागत है. इस विज्ञापन से नाराज नीतीश ने मोदी के लिए अपनी तल्‍खी का सार्वजनिक कर दिया.
उस विज्ञापन से उपजी नाराजगी देश की सबसे बड़ी सियासी लड़ाई में से एक बन गई. और बिहार चुनाव के आखिरी चरण के मतदान से पहले बीजेपी ने नीतीश को एक विज्ञापन के जरिए ही परेशान किया.

चुनाव मैनेजमेंट: बिहार में अब तक हर पार्टी अपने संगठन के बूते ही चुनाव लड़ती आई है. लेकिन इस बार जेडीयू ने थर्ड पार्टी का भी सहारा लिया. ये थर्ड पार्टी थे प्रशांत किशोर. लोकसभा चुनाव में मोदी के लिए रणनीति बनाने वाले प्रशांत बिहार में नीतीश के कैंपेन मैनेजर थे. उनके कहने पर ही जेडीयू के झंडे से हरा रंग हटाकर उसमें लाल रंग भरा गया. ताकि उनकी पार्टी की छवि समाजवादी से हटकर क्रांतिकारी वाली दिखाई दे. झंडे का लाल रंग बीजेपी के केसरिया को हलका कर दे. और सबसे अहम उस असमंजस को दूर करना, जो जेडीयू और आरजेडी दोनों के झंडे के हरे होने से उत्‍पन्‍न हो रहा था.
जेडीयू को इससे कितना फायदा होगा, लेकिन इससे चुनावी राजनीति में विशेषज्ञ रणनीतिकारों के प्रवेश के लिए रास्‍ता तो खुलेगा ही.

सोशल मीडिया: 2014 के लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया के कमाल को देखते हुए बिहार के लिए नेताओं ने कमर कसी हुई थी. नीतीश कुमार ने तो बाकायदा एक सोशल मीडिया सेल बनाया हुआ था. बीजेपी, खासकर मोदी के हर वार का जवाब दिया जा रहा था और पलटवार किए जा रहे थे. ठेठ बिहारी अंदाज वाले लालू यादव भी फेसबुक और ट्विटर दोनों पर थे. बेहद आक्रामक अंदाज में. पूरे चुनाव के दौरान उन्‍होंने जातिवाद, बीजेपी और आरएसएस पर जमकर पोस्‍ट डालीं. बीजेपी की ओर से सुशील मोदी ने मोर्चा संभाला हुआ‍ था. रोज की रैलियों के अलावा भाषणों की झलकियां और आरोप सब एक साथ.
नेताओं ने सोशल मीडिया पर इसलिए भी फोकस रखा, क्‍योंकि उन्‍हें पता था कि हर विधानसभा क्षेत्र में 8 से 10 हजार युवा वोटर हैं, जो पहली बार वोट डालेंगे. इन युवाओं तक पहुंचने का सबसे आसान जरिया फेसबुक ट्विटर के अलावा और क्‍या हो सकता था.

मोदी के नाम एक पत्र, एक वेबसाइट: प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी शुरुआती सभा में ही नीतीश कुमार के लिए कहा कि उनके डीएनए में ही गड़बड़ है. नीतीश ने मोदी के इस बयान का जवाब देने के लिए अनूठा प्रयोग किया. उन्‍होंने प्रधानमंत्री के नाम एक खुली चिट्ठी लिखी. इस चिट्ठी को सार्वजनिक करने के लिए उन्‍होंने एक वेबसाइट openlettertomodi.com बनवाई. ये बात और रही कि नीतीश ने मोदी को और भी पत्र लिखे, लेकिन इस वेबसाइट पर फिर कोई पत्र पोस्‍ट नहीं किया.

पत्राचार-वार: इस चुनाव में नीतीश ने नरेंद्र मोदी को तो सुशील मोदी ने नीतीश को खूब पत्र लिखे. आरोप दर आरोप. सफाई दर सफाई. फेसबुक पर ये पत्र खूब शेयर किए गए. इन्‍हीं पत्रों के बीच नतीश का एक 23 साल पुराना पत्र भी चर्चा में आया, जो उन्‍होंने कभी तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री लालू यादव को लिखा था. उस पत्र में उन्‍होंने लालू पर मुख्‍यमंत्री रहते एक ही जाति को सरकारी नौकरी में तरजीह देने और प्रदेश में भ्रष्‍टाचार को बढ़ावा देने का आरोप लगाया था.

पाकिस्‍तानी एड: चुनावी राजनीति के ऑनलाइन युद्ध में बीजेपी के लिए एक मौका शर्मिंदगी लेकर भी आया. यह इसलिए भी याद रखा जाएगा, क्‍योंकि चूक बीजेपी के वरिष्‍ठ नेता राजीवप्रताप रुड़ी से हुई थी. पेशे से पायलट और कभी बीजेपी सोशल मीडिया सेल के प्रमुख सदस्‍य रहे रुड़ी ने पाकिस्‍तानी अखबार डॉन की वेबसाइट का स्‍क्रीन शॉट लेकर ट्वीट किया, जिसमें नीतीश कुमार का विज्ञापन दिखाई दे रहा था. उन्‍होंने आरोप लगाया कि नीतीश अपना विज्ञापन पाकिस्‍तान के अखबार में क्‍यों दे रहे हैं. नीतीश ने रुड़ी और बीजेपी की खिल्‍ली उड़ाते हुए इस विज्ञापन का सच बताया कि वह उनका नहीं, बल्कि गूगल एड था.
सोशल मीडिया पर सबसे पहले और सबसे ज्‍यादा चर्चा में आने की होड़ में संयम कितना जरूरी है, नेताओं को इस घटना से इतना सबक तो मिलेगा ही.

मिमिक्री: लोकसभा चुनाव के दौरान जब मोदी मैडम सोनिया या शहजादे राहुल कहते थे, तो जनता खूब तालियां पीटती थी. उसी नाटकीयता को बिहार में लालू यादव और नीतीश कुमार ने भी अपनाया. लालू तो खुलेआम मोदी की मिमिक्री कर रहे थे. कहीं वे मोदी की स्‍टाइल में भाइयों-बहनों कहते, तो कहीं मोदी के भाषणों का उन्‍हीं के लहजे में नकल उतारकर मजाक उड़ाते. एक मौके पर तो नीतीश कुमार ने भी थ्री इडियट्स फिल्‍म के गाने पर एक पैरोडी मोदी के लिए गा दी.
भारतीय राजनीति में नाटकीय अंदाज के लिए लालू यादव का अपना मुकाम है, लेकिन नीतीश का गाना लोगों को लंबे समय तक याद रहेगा.
 
उम्‍मीदवार चयन की अनोखी परंपरा: चुनाव कहीं के भी हों, अब तक तो यही होता था कि पार्टी का कोई हाईकमान या समिति चुनाव से पहले उम्‍मीदवारों की सूची जारी करती थी. लेकिन बिहार में इस बार अलग हुआ. बीजेपी ने कुछ सीटों पर उम्‍मीदवारों के चयन की जिम्‍मेदारी अपनी पार्टी से बाहर के एक व्‍यक्ति को सौंपी. ये व्‍यक्ति कोई और नहीं, जीतन राम मांझी थे. बीजेपी और मांझी के बीच ये अनूठा समझौता कुछ सीटों पर दलित और महादलित वोटों के समीकरण को देखते हुए था. इस चुनाव के दौरान मांझी कुछ बीजेपी के उम्‍मीदवारों के प्रचार में कहते रहे कि उन्‍हें वे ही चुनाव लड़वा रहे हैं.
अब बताइए, भारतीय राजनीति में किसी बाहरी व्‍यक्ति पर ऐसा भरोसा किसी पार्टी ने दिखाया है क्‍या?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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