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1984 में मार डाले गए हजारों लोगों के लिए कौन रोता है इस देश में?

    • अभिरंजन कुमार
    • Updated: 05 नवम्बर, 2015 12:17 PM
  • 05 नवम्बर, 2015 12:17 PM
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अगर 1984 में 3000 सिखों की हत्या करवाने वाले कांग्रेस नेताओं को दंड मिल गया होता, तो देश आज दंगा-मुक्त होता. न बाबरी मस्जिद टूटती, न भागलपुर, मुंबई, गुजरात, मुज़फ्फरनगर के दंगे हुए होते. लेकिन सिखों के हत्यारों को तो खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री संरक्षण दे रहे थे.

अगर 1984 में 3000 सिखों की हत्या करवाने वाले कांग्रेस नेताओं को दंड मिल गया होता, तो देश आज दंगा-मुक्त होता. न बाबरी मस्जिद टूटती, न भागलपुर, मुंबई, गुजरात, मुज़फ्फरनगर के दंगे हुए होते. लेकिन सिखों के हत्यारों को तो खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री संरक्षण दे रहे थे. उन्होंने कहा था कि "जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है". मतलब साफ है कि प्रधानमंत्री खुद बदले की भावना से ग्रस्त थे और दो लोगों के गुनाहों की सजा पूरे समुदाय को देने पर तुले हुए थे.

इस घटना से दंगाई मानसिकता के लोगों ने देखा कि दंगा कराने वालों का इस देश में बाल भी बांका नहीं हो सकता, जिससे उनका हौसला बढ़ गया. इसलिए मेरी नजर में 1984 के बाद से जितने भी दंगे हुए हैं, उनके लिए कांग्रेस पार्टी और धरती को हिलाने वाले वही भारत-रत्न मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं. बाकी सब तो बस "महाजनो येन गत: स पंथा:" में यकीन करने वाले उनके फॉलोअर्स हैं.

इतना ही नहीं, जिस तरह का आंदोलन लेखकों, पत्रकारों, चिंतकों, बुद्धिजीवियों ने 1975 में इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ किया था, या जिस तरह का माहौल 2002 के गुजरात दंगे के बाद बनाया या आज दादरी कांड के बाद बना रहे हैं, अगर वैसा ही माहौल 1984 के सिख दंगों के बाद बनाया होता, तो भी शायद देश का बहुत भला हो गया होता.

लेकिन सच्चाई यह है कि 1984 का दंगा सिख समुदाय से बाहर के बुद्धिजीवियों को कभी उस तरह उद्वेलित नहीं कर सका, जिस तरह से वे गुजरात दंगे या दादरी कांड से हुए हैं. इसकी मुख्य वजह यह है कि अधिकांश बुद्धिजीवी राजनीतिक दलों के एजेंट की तरह काम करते हैं और राजनीतिक दलों को एक राज्य के बाहर सिखों की नाराजगी से कोई फर्क नहीं पड़ता.

इसलिए जो लोग यह समझते हैं कि बुद्धिजीवियों में मुसलमानों के लिए बहुत दर्द है, वे शायद पूरी तरह ठीक नहीं समझते हैं. अगर मुसलमान भी सिखों की तरह एकाध राज्यों में ही सिमटे होते, तो तमाम दंगों के बाद भी उन्हें वैसे ही इग्नोर कर दिया जाता, जैसे सिखों को किया गया. मुसलमानों के लिए यह अच्छी बात है...

अगर 1984 में 3000 सिखों की हत्या करवाने वाले कांग्रेस नेताओं को दंड मिल गया होता, तो देश आज दंगा-मुक्त होता. न बाबरी मस्जिद टूटती, न भागलपुर, मुंबई, गुजरात, मुज़फ्फरनगर के दंगे हुए होते. लेकिन सिखों के हत्यारों को तो खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री संरक्षण दे रहे थे. उन्होंने कहा था कि "जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है". मतलब साफ है कि प्रधानमंत्री खुद बदले की भावना से ग्रस्त थे और दो लोगों के गुनाहों की सजा पूरे समुदाय को देने पर तुले हुए थे.

इस घटना से दंगाई मानसिकता के लोगों ने देखा कि दंगा कराने वालों का इस देश में बाल भी बांका नहीं हो सकता, जिससे उनका हौसला बढ़ गया. इसलिए मेरी नजर में 1984 के बाद से जितने भी दंगे हुए हैं, उनके लिए कांग्रेस पार्टी और धरती को हिलाने वाले वही भारत-रत्न मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं. बाकी सब तो बस "महाजनो येन गत: स पंथा:" में यकीन करने वाले उनके फॉलोअर्स हैं.

इतना ही नहीं, जिस तरह का आंदोलन लेखकों, पत्रकारों, चिंतकों, बुद्धिजीवियों ने 1975 में इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ किया था, या जिस तरह का माहौल 2002 के गुजरात दंगे के बाद बनाया या आज दादरी कांड के बाद बना रहे हैं, अगर वैसा ही माहौल 1984 के सिख दंगों के बाद बनाया होता, तो भी शायद देश का बहुत भला हो गया होता.

लेकिन सच्चाई यह है कि 1984 का दंगा सिख समुदाय से बाहर के बुद्धिजीवियों को कभी उस तरह उद्वेलित नहीं कर सका, जिस तरह से वे गुजरात दंगे या दादरी कांड से हुए हैं. इसकी मुख्य वजह यह है कि अधिकांश बुद्धिजीवी राजनीतिक दलों के एजेंट की तरह काम करते हैं और राजनीतिक दलों को एक राज्य के बाहर सिखों की नाराजगी से कोई फर्क नहीं पड़ता.

इसलिए जो लोग यह समझते हैं कि बुद्धिजीवियों में मुसलमानों के लिए बहुत दर्द है, वे शायद पूरी तरह ठीक नहीं समझते हैं. अगर मुसलमान भी सिखों की तरह एकाध राज्यों में ही सिमटे होते, तो तमाम दंगों के बाद भी उन्हें वैसे ही इग्नोर कर दिया जाता, जैसे सिखों को किया गया. मुसलमानों के लिए यह अच्छी बात है कि वे पूरे देश में फैले हुए हैं और आम हिन्दू घनघोर जातिवादी हैं, जिसकी वजह से राजनीतिक समीकरणों को बनाने-बिगाड़ने की उनकी क्षमता बनी हुई है.

बात कहने और सुनने में ज़रा कड़वी है, पर सच यही है कि इस देश में जो समुदाय वोट-बैंक नहीं बन पाएगा, उसका हाल सिखों जैसा ही होगा. और यह स्थिति भारत की धर्मनिरपेक्षता पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न है. असली धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र वही है, जो अपने सबसे कमजोर व्यक्तियों और समुदायों की भी रक्षा करने में सक्षम हो. सिर्फ मुसलमानों की हिफाजत के लिए चिंतित दिखाई देने से यह तय नहीं हो सकता कि भारत सही मायने में एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है.

मुसलमान तो मजबूत हैं और हिन्दू-मुस्लिम का झगड़ा दो ताकतवरों का झगड़ा है. जिस दिन सिखों, बौद्धों, जैनियों के लिए यह देश उतना ही चिंतित दिखेगा, उस दिन मानूंगा कि अब भारत में धर्म-निरपेक्षता आ गई है. हाल ही में जैन-पर्व के दौरान महाराष्ट्र में एक हफ्ते के मीट-बैन के खिलाफ दूसरे सभी समुदाय के लोग जिस तरह से आक्रामक हो गए थे, वह इस बात का सबूत है कि सबसे कमजोर के बारे में यह देश आज भी नहीं सोचता है.

और इसी फिलॉस्फी के हिसाब से, मेरी नजर में किसी भी हिन्दू-मुस्लिम दंगे की तुलना में 1984 का सिख-विरोधी दंगा इस देश के माथे पर बड़ा कलंक है. लेकिन 1984 के उस दंगे में जिंदा जला दिए गए और बिना किसी गुनाह के मार डाले गए हजारों लोगों के लिए कौन रोता है इस देश में?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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