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भुखमरी पर नियंत्रण के मामले में तो हम श्रीलंका और नेपाल से भी गए-गुजरे हैं....

    • पीयूष द्विवेदी
    • Updated: 07 मई, 2016 06:36 PM
  • 07 मई, 2016 06:36 PM
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श्रीलंका और नेपाल जैसे राष्ट्र जो आर्थिक या अन्य किसी भी दृष्टिकोण से हमारे सामने कहीं नही ठहरते, उनकी स्थिति भी हमसे बेहतर है. वैश्विक आंकड़ें भारत की सरकारों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर रहे हैं. आखिर क्या कारण है कि हम इस समस्या को अब तक खत्म नहीं कर सके हैं...

मानव जाति की मूल आवश्यकताओं की बात करें तो मुख्य रूप से रोटी, कपड़ा और मकान का ही नाम आता है. इसमें भी रोटी सबसे जरूरी है. भोजन की अनिवार्यता के बीच आज विश्व के लिए शर्मनाक तस्वीर ये है कि वैश्विक आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी भुखमरी का शिकार है. भारत के संदर्भ में देखें तो अभी पिछले साल ही संयुक्त राष्ट्र द्वारा भुखमरी पर जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक भुखमरी से पीड़ित देशों में भारत भी शामिल है. अभी देश में लगभग 19.4 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं.

यहां तक कि श्रीलंका, नेपाल जैसे राष्ट्र जो आर्थिक या अन्य किसी भी दृष्टिकोण से हमारे सामने कहीं नही ठहरते, उनकी स्थिति भी हमसे बेहतर है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) के अनुसार भुखमरी पर नियंत्रण करने वाले देशों की सूची में इस साल भारत को श्रीलंका और नेपाल से नीचे 55वें स्थान पर रखा गया है. ये हालत तब है जब भारत ने अपनी स्थिति में काफी सुधार किया है. गौर करें तो ग्लोबल हंगर इंडेक्स की ही 2103 की सूची में भुखमरी पर नियंत्रण करने वाले देशों में भारत का 63वां स्थान था. तब हमारा देश श्रीलंका, नेपाल के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी पीछे था. लेकिन 2014 की रिपोर्ट में भारत ने अपनी हालत में सुधार किया और पाकिस्तान व बांग्लादेश को पीछे छोड़ते हुए 63वें स्थान से 55वें पर पहुंचा.

 भुखमरी से मुक्ति कब...

इस सुधार के बावजूद अभी तमाम सवाल हैं जो भुखमरी को लेकर भारत की सरकारों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते हैं. GHI की रिपोर्ट में भी यही कहा गया है कि औसत से नीचे वजन के बच्चों (अंडरवेट चाइल्ड) की समस्या से निपटने में प्रगति करने के कारण भारत की स्थिति में ये सुधार आया है, लेकिन...

मानव जाति की मूल आवश्यकताओं की बात करें तो मुख्य रूप से रोटी, कपड़ा और मकान का ही नाम आता है. इसमें भी रोटी सबसे जरूरी है. भोजन की अनिवार्यता के बीच आज विश्व के लिए शर्मनाक तस्वीर ये है कि वैश्विक आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी भुखमरी का शिकार है. भारत के संदर्भ में देखें तो अभी पिछले साल ही संयुक्त राष्ट्र द्वारा भुखमरी पर जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक भुखमरी से पीड़ित देशों में भारत भी शामिल है. अभी देश में लगभग 19.4 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं.

यहां तक कि श्रीलंका, नेपाल जैसे राष्ट्र जो आर्थिक या अन्य किसी भी दृष्टिकोण से हमारे सामने कहीं नही ठहरते, उनकी स्थिति भी हमसे बेहतर है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) के अनुसार भुखमरी पर नियंत्रण करने वाले देशों की सूची में इस साल भारत को श्रीलंका और नेपाल से नीचे 55वें स्थान पर रखा गया है. ये हालत तब है जब भारत ने अपनी स्थिति में काफी सुधार किया है. गौर करें तो ग्लोबल हंगर इंडेक्स की ही 2103 की सूची में भुखमरी पर नियंत्रण करने वाले देशों में भारत का 63वां स्थान था. तब हमारा देश श्रीलंका, नेपाल के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी पीछे था. लेकिन 2014 की रिपोर्ट में भारत ने अपनी हालत में सुधार किया और पाकिस्तान व बांग्लादेश को पीछे छोड़ते हुए 63वें स्थान से 55वें पर पहुंचा.

 भुखमरी से मुक्ति कब...

इस सुधार के बावजूद अभी तमाम सवाल हैं जो भुखमरी को लेकर भारत की सरकारों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते हैं. GHI की रिपोर्ट में भी यही कहा गया है कि औसत से नीचे वजन के बच्चों (अंडरवेट चाइल्ड) की समस्या से निपटने में प्रगति करने के कारण भारत की स्थिति में ये सुधार आया है, लेकिन अभी भी यहां भुखमरी की समस्या गंभीर है. ये सवाल भी गंभीर है कि श्रीलंका और नेपाल जैसे देश जो हमसे आर्थिक से लेकर तमाम तरह की मोटी मदद पाते हैं, भुखमरी पर रोकथाम के मामले में हमसे बेहतर क्यों है? इस सवाल पर ये तर्क दिया जा सकता है कि श्रीलंका व नेपाल जैसे कम आबादी वाले देशों से भारत की तुलना नहीं की जा सकती. यह बात सही है, लेकिन साथ ही इस पहलू पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि भारत की आबादी श्रीलंका, नेपाल से जितनी अधिक है, भारत के पास क्षमता व संसाधन भी उतने ही अधिक हैं. दरअसल हमारे देश में सरकारों द्वारा भुखमरी को लेकर कभी भी उतनी गंभीरता दिखाई ही नहीं गई जितनी कि होनी चाहिए थी.

वितरण प्रणाली ठीक नहीं

हमारी सरकारों द्वारा हमेशा भुखमरी से निपटने के लिए सस्ता अनाज देने सम्बन्धी योजनाओं पर ही विशेष बल दिया गया, कभी भी उस सस्ते अनाज की वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने को लेकर कुछ ठोस नहीं किया गया. ये सवाल जरूरी है कि हर वर्ष खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन होने के बावजूद क्यों देश की लगभग एक चौथाई आबादी को भुखमरी से गुजरना पड़ता है? असल कारण ये है कि उस अनाज का एक बड़ा हिस्सा लोगों तक पहुंचने की बजाय कुछ सरकारी गोदामों में तो कुछ इधर-उधर अव्यवस्थित ढंग से रखे-रखे सड़ जाता है. संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के मुताबिक देश का लगभग 20 फीसदी अनाज भंडारण क्षमता के अभाव में बेकार हो जाता है. जो अनाज गोदामों आदि में सुरक्षित रखा जाता है, उसका भी एक बड़ा हिस्सा समुचित वितरण प्रणाली के अभाव में जरूरतमंद लोगों तक पहुंचने की बजाय बेकार पड़ा रह जाता है.

खाद्य की बर्बादी की ये समस्या सिर्फ भारत में नही बल्कि पूरी दुनिया में है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष 1.3 अरब टन खाद्यान्न खराब होने के कारण फेंक दिया जाता है. कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक तरफ दुनिया में इतना खाद्यान्न बर्बाद होता है और दूसरी तरफ दुनिया के लगभग 85 करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हैं. क्या यह अनाज इन लोगों की भूख मिटाने के काम नहीं आ सकता? लेकिन व्यवस्था के अभाव में ये नहीं हो रहा.

हमारे यहां यूपीए-2 सरकार के समय सोनिया गांधी की महत्वाकांक्षा से प्रेरित 'खाद्य सुरक्षा कानून' को बड़े जोर-शोर से लाया गया था. तब ये कहा गया कि ये कानून देश से भुखमरी की समस्या को समाप्त करने की दिशा में बड़ा कदम होगा. इसके तहत कमजोर व गरीब परिवारों को एक निश्चित मात्रा तक प्रतिमाह सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की योजना थी. लेकिन इस विधेयक में भी खाद्य वितरण को लेकर कुछ ठोस नियम व प्रावधान नहीं सुनिश्चित किए गए जिससे कि नियम के तहत लोगों तक सही ढंग से सस्ता अनाज पहुंच सके. मतलब, मूल समस्या को यहां भी नजरअंदाज किया गया.

बहरहाल, संप्रग सरकार चली गई है, अब केंद्र में एनडीए की सरकार है. ऐसे में सरकार से ये उम्मीद की जानी चाहिए कि वो इस कानून के तहत वितरित होने वाले अनाज के लिए ठोस वितरण प्रणाली की व्यवस्था पर ध्यान देगी. साथ ही, अनाज के रख-रखाव के लिए गोदाम आदि की भी समुचित व्यवस्था होगी. इसके अतिरिक्त जमाखोरों पर भी नियंत्रण की जरूरत है. ये सब करने के बाद ही खाद्य सम्बन्धी कोई भी योजना या कानून जनता का हित करने में सफल होंगे. अन्यथा ये वैसे ही होंगे जैसे किसी मनोरोगी का इलाज करने के लिए कोई तांत्रिक रखा जाए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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