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पैसा नहीं कॉल ड्रॉप से ही निजात चाहिए

    • अंशुमान तिवारी
    • Updated: 19 अक्टूबर, 2015 08:25 PM
  • 19 अक्टूबर, 2015 08:25 PM
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कुछ हफ्तों में पूरी दुनिया में योग दिवस का आयोजन करा लेने वाली सरकार क्या इतनी लाचार है कि बुनियादी ढांचे की बेहद अदना-सी समस्या भी ठीक नहीं हो सकती?

उदारीकरण युग के बाद मोबाइल फोन देश में सबसे अहम क्रांति के तौर पर सामने आया लेकिन अब वह एक घातक कुचक्र में फंसता दिख रहा है. कॉल ड्रॉप के लिए टेलिकॉम कंपनियों को जिम्मेदार ठहराना और प्रति कॉल ड्राप के लिए उपभोक्ता को पैसा रिफंड कराने का ट्राई का फैसला इस कुचक्र की शुरुआत है. इस फैसले से यह साफ है कि उपभोक्ताओं के खराब सर्विस क्वालिटी से उपजे असंतोष को दूर करने के लिए मोबाइल कंपनियां उन्हें कुछ वित्तीय मुआवजा देंगी. केन्द्र सरकार का यह अनोखा फैसला एक ऐसी मिसाल कायम कर रहा है, जिसका दूरगामी असर टेलिकॉम क्षेत्र के बाहर भी सर्विस और उपभोक्ता के रिश्तों पर पड़ना तय है.
   
कॉल ड्रॉप पर संचार मंत्रालय से पीएमओ तक पहुंची चर्चाओं और कॉर्पोरेट बैठकों को टटोलते हुए यह जानना कतई मुश्किल नहीं है कि खराब मोबाइल नेटवर्क की समस्या इतनी बड़ी नहीं है कि इसके लिए राजनैतिक सर्वानुमति की जरूरत हो या फिर उपभोक्ताओं को खराब सर्विस के बदले टेलीफोन बिल पर सब्सिडी देने की जरूरत आ पड़े. टेलिकॉम क्षेत्र में खराब इंफ्रास्ट्रक्चर की समस्या से निपटने में जिस तरह केन्द्र सरकार विफल हो रही है उससे डिजिटल इंडिया के सपने को साकार करने में उसकी मंशा पर सवालिया निशान लग रहा है. क्योंकि डिजिटल इंडिया के लिए यह जरूरी है कि देश में एक अरब से अधिक जनसंख्या को तीव्र गति का विश्वसनीय डिजिटल नेटवर्क देने के लिए पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद है.

तकनीक को लेकर बहुत ज्यादा माथापच्चीा न भी करें तो भी इस समस्या की जड़ और संभावित समाधानों को समझने के लिए इतना जानना बेहतर रहेगा कि मोबाइल फोन 300 मेगाहट्र्ज से लेकर 3000 मेगाहट्र्ज की फ्रीक्वेंसी पर काम करते हैं, हालांकि पूरी रेंज भारत में इस्तेमाल नहीं होती. मोबाइल नेटवर्क का बुनियादी सिद्धांत है कि फ्रीक्वेंसी का बैंड जितना कम होगा, संचार उतना ही सहज रहेगा. यही वजह है कि हाल में जब स्पेक्ट्रम (फ्रीक्वेंसी) का आवंटन हुआ तो ज्यादा होड़ 900 मेगाहट्र्ज के बैंड के लिए थी. लेकिन अच्छे फ्रीक्वेंसी (निचले) बैंड में जगह...

उदारीकरण युग के बाद मोबाइल फोन देश में सबसे अहम क्रांति के तौर पर सामने आया लेकिन अब वह एक घातक कुचक्र में फंसता दिख रहा है. कॉल ड्रॉप के लिए टेलिकॉम कंपनियों को जिम्मेदार ठहराना और प्रति कॉल ड्राप के लिए उपभोक्ता को पैसा रिफंड कराने का ट्राई का फैसला इस कुचक्र की शुरुआत है. इस फैसले से यह साफ है कि उपभोक्ताओं के खराब सर्विस क्वालिटी से उपजे असंतोष को दूर करने के लिए मोबाइल कंपनियां उन्हें कुछ वित्तीय मुआवजा देंगी. केन्द्र सरकार का यह अनोखा फैसला एक ऐसी मिसाल कायम कर रहा है, जिसका दूरगामी असर टेलिकॉम क्षेत्र के बाहर भी सर्विस और उपभोक्ता के रिश्तों पर पड़ना तय है.
   
कॉल ड्रॉप पर संचार मंत्रालय से पीएमओ तक पहुंची चर्चाओं और कॉर्पोरेट बैठकों को टटोलते हुए यह जानना कतई मुश्किल नहीं है कि खराब मोबाइल नेटवर्क की समस्या इतनी बड़ी नहीं है कि इसके लिए राजनैतिक सर्वानुमति की जरूरत हो या फिर उपभोक्ताओं को खराब सर्विस के बदले टेलीफोन बिल पर सब्सिडी देने की जरूरत आ पड़े. टेलिकॉम क्षेत्र में खराब इंफ्रास्ट्रक्चर की समस्या से निपटने में जिस तरह केन्द्र सरकार विफल हो रही है उससे डिजिटल इंडिया के सपने को साकार करने में उसकी मंशा पर सवालिया निशान लग रहा है. क्योंकि डिजिटल इंडिया के लिए यह जरूरी है कि देश में एक अरब से अधिक जनसंख्या को तीव्र गति का विश्वसनीय डिजिटल नेटवर्क देने के लिए पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद है.

तकनीक को लेकर बहुत ज्यादा माथापच्चीा न भी करें तो भी इस समस्या की जड़ और संभावित समाधानों को समझने के लिए इतना जानना बेहतर रहेगा कि मोबाइल फोन 300 मेगाहट्र्ज से लेकर 3000 मेगाहट्र्ज की फ्रीक्वेंसी पर काम करते हैं, हालांकि पूरी रेंज भारत में इस्तेमाल नहीं होती. मोबाइल नेटवर्क का बुनियादी सिद्धांत है कि फ्रीक्वेंसी का बैंड जितना कम होगा, संचार उतना ही सहज रहेगा. यही वजह है कि हाल में जब स्पेक्ट्रम (फ्रीक्वेंसी) का आवंटन हुआ तो ज्यादा होड़ 900 मेगाहट्र्ज के बैंड के लिए थी. लेकिन अच्छे फ्रीक्वेंसी (निचले) बैंड में जगह कम है, इसलिए ज्यादा कंपनियां इसे हासिल करने कोशिश करती हैं. यदि किसी कंपनी के पास अच्छे बैंड कम हैं और ग्राहक ज्यादा, तो कॉल ड्राप होगी यानी कि फ्रीक्वेंसी की सड़क अगर भर चुकी है तो ट्रैफिक धीमे चलेगा.
लगे हाथ मोबाइल टावर की कमी की बहस का मर्म भी जान लेना चाहिए जो कि टेलीकॉम इन्फ्रास्ट्रक्चर का बुनियादी हिस्सा है. देश में करीब 96 करोड़ मोबाइल उपभोक्ताओं को सेवा देने के लिए 5.5 लाख टावर हैं. अच्छे यानी निचले फ्रीक्वेंसी बैंड के लिए कम टावर चाहिए लेकिन 3जी और 4जी यानी ऊंचे बैंड की सर्विस के लिए ज्यादा टावरों की जरूरत होती है.

इन बुनियादी तथ्यों की रोशनी में सरकार और कंपनियों की भूमिका परखने पर किसी को भी एहसास हो जाएगा कि समस्या बड़ी नहीं है, बल्कि मामला संकल्प, गंभीरता, समन्वय की कमी और कंपनियों पर दबाव बनाने में हिचक का है, जिसने भारत की मोबाइल क्रांति को कसैला कर दिया है.

सबसे पहले टावरों की कमी को लेते हैं. मोबाइल सेवा कंपनियां मानती हैं कि नेटवर्क को बेहतर करने और कॉल ड्रॉप रोकने के लिए फिलहाल केवल एक लाख टावरों की जरूरत है. इसमें ज्यादातर टावर महानगरों में चाहिए. देश के हर शहर और जिले में केंद्र व राज्य सरकारों की इतनी संपत्तियां मौजूद हैं जिन पर टावर लगाए जा सकते हैं. सिर्फ एक समन्वित प्रशासनिक आदेश से काम चल सकता है. इस साल फरवरी में इसकी पहल भी हुई लेकिन तेजी से काम करने वाला पीएमओ इसे रफ्तार नहीं दे सका. 12 राज्यों में अपनी या अपने सहयोगी दलों की सरकारों के बावजूद अगर मोदी सरकार छोटे-छोटे टावरों के लिए कुछ सैकड़ा वर्ग फुट जमीन या छतें भी नहीं जुटा सकती तो फिर टीम इंडिया की बातें सिर्फ जुमला हैं.

प्रशासनिक संकल्प में दूसरा झोल कंपनियों पर सख्ती को लेकर है. पिछले साल स्पेक्ट्रम नीलामी को सरकार ने अपनी सबसे बड़ी सफलता कहते हुए कंपनियों के लिए बुनियादी ढांचे की कमी पूरी कर दी थी. कंपनियों को स्पेक्ट्रम आपस में बांटने की छूट मिल चुकी है, वे अपने टावर पर दूसरी कंपनी को जगह दे सकती हैं. उन्हें स्पेक्ट्रम बेचने की छूट भी मिलने वाली है, लेकिन इतना सब करते हुए पीएमओ और संचार मंत्री को कंपनियों से यह पूछने की हिम्मत तो दिखानी चाहिए कि अगर जनवरी 2013 से मार्च 2015 तक वॉयस नेटवर्क का इस्तेमाल 12 फीसदी बढ़ा तो कंपनियों ने नेटवर्क (बीटीएस) क्षमता में केवल 8 फीसद का ही इजाफा क्यों किया? कॉल ड्रॉप पर ट्राई का ताजा दस्तावेज बताता है कि पिछले दो साल में 3जी पर डाटा नेटवर्क का इस्तेमाल 252 फीसदी बढ़ा लेकिन कंपनियों ने नेटवर्क में केवल 61 फीसदी की बढ़ोतरी की.

स्पेक्ट्रम के लिए कंपनियों की ऊंची बोली से सरकार को राजस्व मिला और कंपनियों को स्पेक्ट्रम, जिससे बाजार में उनका मूल्यांकन बढ़ रहा है, लेकिन उपभोक्ता को सिर्फ कॉल ड्रॉप व महंगे बिल मिले हैं. सरकार तो कंपनियों को इस बात के लिए भी बाध्य नहीं कर पा रही है कि वे कम से कम इतना तो बताएं कि उनके पास नेटवर्क व उपभोक्ताओं का अनुपात क्या है ताकि लोग उन कंपनियों की सेवा न लें जिनकी सीटें भर चुकी हैं.
देश में मोबाइल क्रांति एक मात्र ऐसा रिफॉर्म है जिसने देश को आधुनिक बनाया है. इस क्रांति पर पहले स्पैक्ट्रम आवंटन का कलंक लगा और अब खराब सर्विस क्वालिटी इसे तबाह कर देगी. यह कोई नहीं जानता कि हमने किस तरह के डिजिटल इंडिया की संकल्पना की है और वास्तव में हमें क्या मिलेगा. लेकिन इतना जरूर है कि केन्द्र सरकार आर ट्राई को यह मानने की चूक नहीं करनी चाहिए कि इस देश का उपभोक्ता महज चंद रुपयों के बदले खराब सर्विस से भी खुश हो जाएगा. बल्कि, आधुनिक भारत बेहतर सर्विस के लिए ज्यादा पैसे देने के लिए तैयार है. लिहाजा, घटिया क्वालिटी के लिए सब्सिडी का विकल्प उसकी सूची में आखिरी है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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