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चाय पर चर्चा, कि संभल नहीं रहा खर्चा

    • कनिका मिश्रा
    • Updated: 15 अक्टूबर, 2015 02:33 PM
  • 15 अक्टूबर, 2015 02:33 PM
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टीवी पर चल रही न्यूज़ ने दोनों का ध्यान खींचा, न्यूज़ की हेडलाइंस थी अरुण जेटली जी को देश की सफल अर्थवयवस्था के लिए विदेश में सम्मानित किया गया है. रूपा बड़े ध्यान से न्यूज़ देख कर उसे समझने की कोशिश कर रही थी.

'दीदी, ज़रा दो - तीन सौ रुपए दे दो, घासलेट लाना है..', घर के कामकाज में मेरी सहायता करने वाली लड़की रूपा ने मुझसे कहा. 'क्या करूँ राशन की दुकान वाले घासलेट से काम नहीं चलता है, तो बाजार से चालीस - पचास रूपये लीटर तक में खरीदना पड़ता है', कहते कहते उसके चेहरे पर मजबूरी के भाव उमड़ पड़े. पर उससे ज्यादा शर्मिंदगी मुझे हुई कि ये कैसी अर्थव्यवस्था है जहाँ इतनी मशक्कत के बाद भी गरीब को हाथ फैलाने पड़ते हैं. मैंने पूछा कि घासलेट तो आ जाएगा पर पकाओगी क्या? वो हँस पड़ी,' क्या करूं दीदी, छोटे छोटे तीन बच्चे हैं, एक तो खाना खा लेती है पर दो बच्चों को तो दूध चाहिए, इतना महंगा दूध, वो तो दे नहीं सकती थी तो दाल का पानी पिला देती थी, पर अब वो भी हाथ से फिसल चुकी है.'

हां, दाल तो दो - तीन महीने से मैंने भी नहीं खाई, तो अब बच्चों को क्या खिलाओगी?

खिलाऊंगी क्या, चावल बना लेती हूँ, हम दोनों नमक से और बच्चों को गुड़ के पानी में मिला कर खिला देती हूं.

मेरा मन गुस्से और छोभ से भर गया, अच्छा ये बताओ वोट किसको दिया था?

अब चिड़चिड़ाने की बारी रूपा की थी, बोली 'अरे क्या करूं, मति मारी गई थी मेरी, वोट तो विकास के नाम पर दिया था, गरीबी से बचाने वालों को दिया था, उसको दिया था जो कहता था कि पंद्रह लाख तुम्हारे खाते में रातों रात आ जायेंगे, मुझे वोट दो, चार दिन में अगर गरीबी का नामो-निशान न मिटा दिया तो सूली पर चढ़ा देना. मैंने भी सोचा क्या बुराई है कि अगर मैं सुबह सो कर उठूं और मेरे खाते में पद्रह लाख आ जायें तो कितना अच्छा हो. सुबह से शाम तक सात घरो में झाडू पोछा करने के बाद भी, एक आलू की सब्जी और चावल खा कर रहने की बजाए, सिर्फ 2 घर में काम करके सुख से दाल रोटी खा सकूंगी. बच्चे दूध रोटी खा सकेंगे. पति दिन- रात ओवर टाइम कर-कर के भी चैन की दो रोटी नहीं खा सकता, उसे भी दो- दो  शिफ्ट में काम नहीं करना पडेगा. पर बेड़ा गर्क हो इन जुमलेबाजो का, पहले तो पचास रु. किलो दाल देख कर गुस्से से आँखे लाल हो जाती थीं और जमकर गरियाती थी. लेकिन अब तो अपनी...

'दीदी, ज़रा दो - तीन सौ रुपए दे दो, घासलेट लाना है..', घर के कामकाज में मेरी सहायता करने वाली लड़की रूपा ने मुझसे कहा. 'क्या करूँ राशन की दुकान वाले घासलेट से काम नहीं चलता है, तो बाजार से चालीस - पचास रूपये लीटर तक में खरीदना पड़ता है', कहते कहते उसके चेहरे पर मजबूरी के भाव उमड़ पड़े. पर उससे ज्यादा शर्मिंदगी मुझे हुई कि ये कैसी अर्थव्यवस्था है जहाँ इतनी मशक्कत के बाद भी गरीब को हाथ फैलाने पड़ते हैं. मैंने पूछा कि घासलेट तो आ जाएगा पर पकाओगी क्या? वो हँस पड़ी,' क्या करूं दीदी, छोटे छोटे तीन बच्चे हैं, एक तो खाना खा लेती है पर दो बच्चों को तो दूध चाहिए, इतना महंगा दूध, वो तो दे नहीं सकती थी तो दाल का पानी पिला देती थी, पर अब वो भी हाथ से फिसल चुकी है.'

हां, दाल तो दो - तीन महीने से मैंने भी नहीं खाई, तो अब बच्चों को क्या खिलाओगी?

खिलाऊंगी क्या, चावल बना लेती हूँ, हम दोनों नमक से और बच्चों को गुड़ के पानी में मिला कर खिला देती हूं.

मेरा मन गुस्से और छोभ से भर गया, अच्छा ये बताओ वोट किसको दिया था?

अब चिड़चिड़ाने की बारी रूपा की थी, बोली 'अरे क्या करूं, मति मारी गई थी मेरी, वोट तो विकास के नाम पर दिया था, गरीबी से बचाने वालों को दिया था, उसको दिया था जो कहता था कि पंद्रह लाख तुम्हारे खाते में रातों रात आ जायेंगे, मुझे वोट दो, चार दिन में अगर गरीबी का नामो-निशान न मिटा दिया तो सूली पर चढ़ा देना. मैंने भी सोचा क्या बुराई है कि अगर मैं सुबह सो कर उठूं और मेरे खाते में पद्रह लाख आ जायें तो कितना अच्छा हो. सुबह से शाम तक सात घरो में झाडू पोछा करने के बाद भी, एक आलू की सब्जी और चावल खा कर रहने की बजाए, सिर्फ 2 घर में काम करके सुख से दाल रोटी खा सकूंगी. बच्चे दूध रोटी खा सकेंगे. पति दिन- रात ओवर टाइम कर-कर के भी चैन की दो रोटी नहीं खा सकता, उसे भी दो- दो  शिफ्ट में काम नहीं करना पडेगा. पर बेड़ा गर्क हो इन जुमलेबाजो का, पहले तो पचास रु. किलो दाल देख कर गुस्से से आँखे लाल हो जाती थीं और जमकर गरियाती थी. लेकिन अब तो अपनी आँखे ही फोड़ लेना का मन करता है, और हाल ये हो गया है की अब दाल मुह चिढाती है.

तभी टीवी पर चल रही न्यूज़ ने दोनों का ध्यान खीचा, न्यूज़ की हेडलाइंस थी अरुण जेटली जी को देश की सफल अर्थवयवस्था के लिए विदेश में सम्मानित किया गया है . रूपा बड़े ध्यान से न्यूज़ देख कर उसे समझने की कोशिश कर रही थी. मैंने पूछा कुछ पल्ले पड़ा? 'हाँ, कुछ सम्मान मिला है मंत्री जी को, लेकिन किस लिए मिला ये समझ नहीं आया.' उसने जिज्ञासा से मेरी तरफ अपनी मासूम सी गोल गोल आँखे घुमाई.

मुझे समझ नहीं आया कि मैं इसको कैसे समझाऊँ. फिर मैंने थोड़ा साहस बटोरा और कहा, ये जो तुम नामक और चावल खा रही हो न और बच्चों को गुड में चावल मिला, दूध और दाल की जगह  खिला रही हो, उसी के लिए इनका सम्मान किया जा रहा है.

उसका चेहरा दो सेकंड में अंगारे की तरह लाल हो उठा. सर नीचे कर लिया और हारी हुई आवाज़ में बोली, मज़ाक उड़ाया जा रहा है हमारे इंसान होने का भी. इनके लिए तो हम गरीबों की ज़िन्दगी किसी जुमले से कम नहीं.

'चलो दीदी, मैं चलती हूँ, लेट हो गयी तो पांचवे माले वाली भाभी आँख कान दिखाएगी और पैसे काटने की धमकी देगी सो अलग .'

हम दोनों ने अपनी-अपनी चाय ख़त्म की, वो पांचवे माले की ओर और मैं अपने कंप्यूटर की ओर बढ़ चली, बस सवाल दोनों के दिमाग में यही था कि क्या सच में हम ही अपनी परिस्थितियों के जिम्मेदार है?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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