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सिनेमा

नई सोच की ये 11 फिल्में देखना चाहेंगे आप?

    • कनिका मिश्रा
    • Updated: 28 अक्टूबर, 2015 01:26 PM
  • 28 अक्टूबर, 2015 01:26 PM
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1997 में मुंबई एकेडेमी ऑफ़ मूविंग इमेजेस (MAMI) की स्थापना विश्व भर के उत्कृष्ट सिनेमा का प्रदर्शन करने के लिए हुई थी. 29 अक्‍टूबर से शुरू हो रहा है यह अनूठा फिल्‍मोत्‍सव.

मुंबई नगरी पूरे विश्व में अपनी एक विशेष पहचान के लिए जानी जाती है और वो है सिनेमा. भारत भर के युवक, युवतियां अपनी आँखों में सपने और दिल में अरमान संजोए, देश के हर कौने से इस मायानगरी में आते हैं और अपना भाग्य आजमाते हैं. पिछले एक दशक में भारतीय सिनेमा ने अंतर्राष्ट्रीय जगत में अपनी एक विशेष पहचान बनाई है. भारतीय सिनेमा की ये पहचान पूरी दुनिया में अपने नाच गाने के लिए मशहूर 'बॉलीवुड' से एकदम अलग है. ये नए तरह का सिनेमा है, नई सोच का सिनेमा है, निजी अभिव्यक्ति का सिनेमा है. इसका बॉलीवुड के बोरिंग घिसी पिटी फोर्मुला फिल्मों से दूर-दूर का भी सम्बन्ध नहीं है. ये सिनेमा स्टार्स पर आधारित न हो कर, नए आइडियाज और नयी कहानियों पर आधारित है और इस तरह का सिनेमा बनाने वाले वो लोग हैं जो दूर दूर तक फिल्म इंडस्ट्री से कोई सम्बन्ध नहीं रखते थे. इस तरह के ज़्यादातर सिनेमाकार छोटे शहरों से आये हुए लोग हैं और वो अपने आस पास के किरदारों की कहानियां कहने में विश्वास करते हैं. इनकी फिल्मों के मुख्य किरदार कोई ओबेरॉय या मल्होत्रा नहीं होता जो अपने घर की छत पर हेलीकाप्टर से उतरता है और अगले सीन में हेरोइन के साथ स्विट्ज़रलैंड में नाचता दिखता है, बल्कि इन फिल्मों के किरदार असल ज़िन्दगी के आस पास के लगते हैं, उनका रोना, हंसना, गुस्सा करना, उनके सारे भाव वास्तविकता के धरातल से जुड़े होते हैं. ऐसा नहीं है कि पहले इस तरह की फ़िल्में कतई नहीं बनती थीं, सत्यजित रे, अडूर गोपालकृष्णन, मणि कॉल, श्याम बेनेगल, गौविंद निहलानी, केतन मेहता, जह्नु बरुआ और अन्य कई फिल्मकार इस तरह का सिनेमा हमेशा से बनाते रहे हैं. फर्क ये है कि अब इस तरह की फिल्मों को एक बड़ा दर्शक वर्ग मिल रहा है और आज युवा वर्ग इस तरह की फिल्मों की तरफ खासा आकर्षित है. आज इस तरह की फ़िल्में मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा को खुली चुनौती दे रही हैं, जबकि पहले वो सिर्फ क्षेत्रीय सिनेमा तक ही सीमित थीं. भारतीय सिनेमा को नयी दिशा देने वाले और विश्व में एक नयी पहचान दिलवाने में फिल्मकार दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, तिग्मांशु धुलिया, आनंद गाँधी, श्रीराम राघवन, शूजित सरकार ने अहम भूमिका निभायी है.

मुंबई नगरी पूरे विश्व में अपनी एक विशेष पहचान के लिए जानी जाती है और वो है सिनेमा. भारत भर के युवक, युवतियां अपनी आँखों में सपने और दिल में अरमान संजोए, देश के हर कौने से इस मायानगरी में आते हैं और अपना भाग्य आजमाते हैं. पिछले एक दशक में भारतीय सिनेमा ने अंतर्राष्ट्रीय जगत में अपनी एक विशेष पहचान बनाई है. भारतीय सिनेमा की ये पहचान पूरी दुनिया में अपने नाच गाने के लिए मशहूर 'बॉलीवुड' से एकदम अलग है. ये नए तरह का सिनेमा है, नई सोच का सिनेमा है, निजी अभिव्यक्ति का सिनेमा है. इसका बॉलीवुड के बोरिंग घिसी पिटी फोर्मुला फिल्मों से दूर-दूर का भी सम्बन्ध नहीं है. ये सिनेमा स्टार्स पर आधारित न हो कर, नए आइडियाज और नयी कहानियों पर आधारित है और इस तरह का सिनेमा बनाने वाले वो लोग हैं जो दूर दूर तक फिल्म इंडस्ट्री से कोई सम्बन्ध नहीं रखते थे. इस तरह के ज़्यादातर सिनेमाकार छोटे शहरों से आये हुए लोग हैं और वो अपने आस पास के किरदारों की कहानियां कहने में विश्वास करते हैं. इनकी फिल्मों के मुख्य किरदार कोई ओबेरॉय या मल्होत्रा नहीं होता जो अपने घर की छत पर हेलीकाप्टर से उतरता है और अगले सीन में हेरोइन के साथ स्विट्ज़रलैंड में नाचता दिखता है, बल्कि इन फिल्मों के किरदार असल ज़िन्दगी के आस पास के लगते हैं, उनका रोना, हंसना, गुस्सा करना, उनके सारे भाव वास्तविकता के धरातल से जुड़े होते हैं. ऐसा नहीं है कि पहले इस तरह की फ़िल्में कतई नहीं बनती थीं, सत्यजित रे, अडूर गोपालकृष्णन, मणि कॉल, श्याम बेनेगल, गौविंद निहलानी, केतन मेहता, जह्नु बरुआ और अन्य कई फिल्मकार इस तरह का सिनेमा हमेशा से बनाते रहे हैं. फर्क ये है कि अब इस तरह की फिल्मों को एक बड़ा दर्शक वर्ग मिल रहा है और आज युवा वर्ग इस तरह की फिल्मों की तरफ खासा आकर्षित है. आज इस तरह की फ़िल्में मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा को खुली चुनौती दे रही हैं, जबकि पहले वो सिर्फ क्षेत्रीय सिनेमा तक ही सीमित थीं. भारतीय सिनेमा को नयी दिशा देने वाले और विश्व में एक नयी पहचान दिलवाने में फिल्मकार दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, तिग्मांशु धुलिया, आनंद गाँधी, श्रीराम राघवन, शूजित सरकार ने अहम भूमिका निभायी है.

जाहिर है कि इस तरह के सिनेमा ने अपनी जगह यूँ ही नहीं बनाई बल्कि उसे काफी संघर्षों के बाद ये कामयाबी हासिल हुयी हुई है. इस अलग तरह के सिनेमा की सबसे बड़ी ऑक्सीजन होते हैं, दुनिया भर में होने वाले प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल्स, जैसे कांस, टोरंटो, पूसन और अपना खुद का मामी फिल्म फेस्टिवल जहां इस तरह के सिनेमा को सराहा जाता है और उसे एक जगह दी जाती है.

सन 1997 में, भारत के प्रतिष्ठित निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी की अध्यक्षता में मुंबई एकेडेमी ऑफ़ मूविंग इमेजेस (MAMI) की स्थापना हुई थी,  इस उद्देश्य से कि मुंबई में एक विश्व स्तर के फिल्म फेस्टिवल का आयोजन हो जहां विश्व भर के उत्कृष्ट सिनेमा का प्रदर्शन हो, जो हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए सिनेमा के क्षेत्र में एक दिशा निर्देशक का काम कर सके. खुश-किस्मती से ये सिलसिला तब से बदस्तूर ज़ारी है. पिछले साल जब रिलायंस एंटरटेनमेंट ने बीच में ही इस फेस्टिवल से अलग होने का फैसला किया, तब मामी फिल्म फेस्टिवल के अस्तित्व पर संकट आ गया और लोगों को लगा कि शायद अब ये सिलसिला बंद हो जाए लेकिन फिल्म फेस्टिवल के तमाम फेंस ने सोशल मीडिया द्वारा इसे जोर शोर से बचाने की कैंपेन शुरू कर दी. ऐसे समय में अनुपमा चोपड़ा और किरन राव ने फेस्टिवल की कमान सम्भाहलने का फैसला किया और डायरेक्टर और चेयरपर्सन की हैसियत से इस फेस्टिवल को एक नयी दिशा दी.

इसी हफ्ते से सिनेमा प्रेमियों का ये महाकुम्भ फिर से शुरू होने जा रहा है, 29 अक्टूबर से ले कर 5 नवम्बर तक विश्व भर के जाने माने नए पुराने निर्देशकों की फिल्मों का प्रदर्शन होगा. सिनेमाधर्मियों के लिए ये सात दिन बहुत ही पवित्र होते हैं जब वो सुबह उठ कर, रात होने तक अपना सारा समय एक थिएटर से निकल कर दूसरे थिएटर में घुसने में ही बिताते हैं. कई नए निर्देशकों के लिए ये किसी स्कूल से कम नहीं होता जहाँ से वो सात दिन में इतना सीख लेते हैं जितना एक साल में भी संभव न हो.

मामी फेस्टिवल का एक और मुख्य आकर्षण होगा सत्यजित रे की फिल्म पाथेर पांचाली, अपराजितो और अपुर संसार के डिजीटली रीस्टोर्ड प्रिंट का प्रदर्शन.

                                                              फिल्म 'पाथेर पांचाली'

इसके अलावा फिल्मकार चेतन आनंद को श्रद्धांजलि के रूप में उन की फिल्म नीचा नगर, हकीकत और हीर रांझा का भी प्रदर्शन भी किया जाएगा.

फेस्टिवल की शुरुआत होगी हंसल मेहता के फिल्म 'अलीगढ़' से. फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है, 2010 में मराठी भाषा के प्रोफेसर श्रीनिवास सरस ने आत्म-हत्या कर ली थी. फिल्म में मनोज बाजपेयी और राजकुमार राव मुख्य भूमिका निभा रहे हैं. फिल्म समलेंगिक संबंधो के प्रति समाज की असहनशीलता के बारे में हैं. दो साल पहले हंसल मेहता की फिल्म शाहिद मामी फेस्टिवल में पुरस्कृत भी हुई थी.

                                                             फिल्म 'अलीगढ़'

मामी फेस्टिवल में प्रदर्शित होने वाली अन्य फिल्मों में शामिल हैं-

डेविड गगान्हीम की' ही नेम्ड मी मलाला', मलाला की कहानी है, एक लड़की जो तालिबान की गोलियों का शिकार हुयी क्योंकि उसने लड़कियों की सिक्षा के अधिकार के बारे में बोलने की हिम्मत की. ये कहानी मलाला के नोबेल पुरस्कार पाने तक के सफर को बयान करती है.    

 

पाओलो सोर्रेंतिनो की यूथ, दो दोस्तों की कहानी है. फ्रेड और मिक, जो युवावस्था को पार कर चुके हैं और अपना जीवन अफसोस और ना-उम्मीदी में गुजार रहे हैं.

पाब्लो लर्रिएन् की 'द क्लब' चर्च में बच्चों के यौन शोषण के बारे में है.  

जेकस ऑडीयार्ड की धीपन तीन तमिल रिफ्यूजी की कहानी है, जो श्रीलंका ग्रहयुद्ध से बचने के लिए फ्रांस जाने की योजना बनाते हैं. 

सृजित मुखर्जी की 'राजकहिनी' भारत पाक बंटवारे के समय की कहानी है, इस फिल्म में बंगाली फिल्मों के अधिकतर कलाकारों ने मुख्य भूमिका निभायी है.

पन नलिन की एंग्री इंडियन गोडेसेस आधुनिक भारतीय महिलाओं की कहानी है.

श्लोक शर्मा की हरामखोर एक पंद्रह साल की लडकी की कहानी है जो अपने टीचर से प्यार करने लगती है. फिल्म में अहम भूमिकाएं नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और श्वेता त्रिपाठी ने निभायी है. 

                                                                 फिल्म 'हरामखोर'

अभय कुमार की प्लसेबो भारतीय सिक्षा की खामियों को उभारती है.

वसन बाला की पेडलर्स मुंबई के तीन अहम किरदारों की कहानी है जो निजी संघर्ष के दौर से गजर रहे हैं.

नागेश कुकुनूर की धनक दस साल की एक लड़की की कहानी है जो अपने आठ साल के अंधे भाई को ले कर उसे आँखे दिलाने के मिशन पर निकल पड़ती है. इस साल मामी ने बच्चों के लिए अलग केटेगरी शुरू करने का निर्णय किया है, 'हाफ टिकेट' नाम से. धनक इस केटेगरी में प्रदर्शित होने वाली पहली फिल्म है. 

प्रशांत नायर की उमरीका एक गाँव के लड़के की कहानी है जो अपने भाई को ढूँढने निकलता है.

ऐसे और भी कई अनमोल रतन मामी फेस्टिवल का हिस्सा हैं, तो सिनेमा प्रेमियों, इंतज़ार किस बात का है.










इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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