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कमजोर 'हसीना', हंसोड़ा 'दाउद' - और एक बोरिंग ड्रामा

    • सिद्धार्थ हुसैन
    • Updated: 22 सितम्बर, 2017 12:30 PM
  • 22 सितम्बर, 2017 12:30 PM
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अभिनय के हिसाब से श्रद्धा कपूर कम उम्र की हसीना के किरदार में तो फिट बैठती हैं, लेकिन उम्रदराज़ हसीना के रोल में मिसफिट हो जाती हैं. श्रद्धा जिस तरह से डायलॉग बोल रही हैं, ऐसा बिलकुल नहीं लगता उनके गाल फूले हुए हैं.

बॉलीवुड में आजकल बॉयोपिक का बोलबाला है. यही वजह होगी कि निर्देशक अपूर्वा लाखिया ने 'हसीना पारकर' को चुना होगा. मोस्ट वॉन्टेड गैंगस्टर, आतंकवादी दाऊद इब्राहिम की बहन हसीना पारकर की कहानी फ़िल्मी परदे पर आ चुकी है. फिल्म देखने के लिए दाऊद का नाम काफ़ी था, लेकिन इसमें थोड़ा और कमर्शियल मसाला जोड़ने के लिये रीयल लाइफ़ गैंगस्टर दाऊद और उसकी बहन हसीना के किरदार को निभाने के लिये श्रद्धा कपूर के साथ उनके सगे भाई सिद्धांत कपूर को चुना गया. श्रद्धा और सिद्धांत पहली बार एक साथ काम कर रहे हैं. तो ये सारी वजहें काफ़ी हैं इस फिल्म को देखने के लिये.

बस बॉयोपिक के नाम पर...

अब बात कहानी की. दाऊद इब्राहिम के उपर कई कहानियां बन चुकी हैं लेकिन उसकी बहन हसीना की कहानी पहली बार कही गई है. एक ग़रीब कॉन्सटेबल की बेटी जिसके लड़के नालायक निकल जाते हैं और भाइयों की दुश्मनी का ख़ामियाज़ा बहन को उठाना पडता है, जब दाऊद के दुश्मन, बहन हसीना के पति का क़त्ल कर देते हैं, फिर किस तरह हसीना मुम्बई में बैठ कर अपने भाई की दहशत से राज करती है और लोग उसे आपा कहने लगते हैं. कहानी तो चलिये जो हुआ था उसी पर आधारित है. सुरेश नायर का स्क्रीनप्ले बेहद कमजोर और ढीला है. फिल्म कोर्ट रूम से शुरू होती है, जहां हसीना अपना केस लड़ रही है और बीच बीच में फ़्लैशबैक में चली जाती है. हसीना यानि श्रद्धा फिल्म में अपना पक्ष रखती हैं और महिला वक़ील उनके ख़िलाफ़ अपनी दलील पेश करती है.

फिल्म में हसीना को हीरोइक तरीके से दर्शाया है. निर्देशक अपूर्वा लाखिया की फिल्म में बेबाकी नहीं है. वो हसीना के परिवार वालों को भी खुश रखना चाहते हैं और दर्शकों से ये भी कहना चाहते हैं कि हसीना के हालात खराब थे. भाई गैंगस्टर था इसलिये उसके किरदार पर दाग लगे. कोर्ट रूम ड्रामा के सीन बोझिल हैं....

बॉलीवुड में आजकल बॉयोपिक का बोलबाला है. यही वजह होगी कि निर्देशक अपूर्वा लाखिया ने 'हसीना पारकर' को चुना होगा. मोस्ट वॉन्टेड गैंगस्टर, आतंकवादी दाऊद इब्राहिम की बहन हसीना पारकर की कहानी फ़िल्मी परदे पर आ चुकी है. फिल्म देखने के लिए दाऊद का नाम काफ़ी था, लेकिन इसमें थोड़ा और कमर्शियल मसाला जोड़ने के लिये रीयल लाइफ़ गैंगस्टर दाऊद और उसकी बहन हसीना के किरदार को निभाने के लिये श्रद्धा कपूर के साथ उनके सगे भाई सिद्धांत कपूर को चुना गया. श्रद्धा और सिद्धांत पहली बार एक साथ काम कर रहे हैं. तो ये सारी वजहें काफ़ी हैं इस फिल्म को देखने के लिये.

बस बॉयोपिक के नाम पर...

अब बात कहानी की. दाऊद इब्राहिम के उपर कई कहानियां बन चुकी हैं लेकिन उसकी बहन हसीना की कहानी पहली बार कही गई है. एक ग़रीब कॉन्सटेबल की बेटी जिसके लड़के नालायक निकल जाते हैं और भाइयों की दुश्मनी का ख़ामियाज़ा बहन को उठाना पडता है, जब दाऊद के दुश्मन, बहन हसीना के पति का क़त्ल कर देते हैं, फिर किस तरह हसीना मुम्बई में बैठ कर अपने भाई की दहशत से राज करती है और लोग उसे आपा कहने लगते हैं. कहानी तो चलिये जो हुआ था उसी पर आधारित है. सुरेश नायर का स्क्रीनप्ले बेहद कमजोर और ढीला है. फिल्म कोर्ट रूम से शुरू होती है, जहां हसीना अपना केस लड़ रही है और बीच बीच में फ़्लैशबैक में चली जाती है. हसीना यानि श्रद्धा फिल्म में अपना पक्ष रखती हैं और महिला वक़ील उनके ख़िलाफ़ अपनी दलील पेश करती है.

फिल्म में हसीना को हीरोइक तरीके से दर्शाया है. निर्देशक अपूर्वा लाखिया की फिल्म में बेबाकी नहीं है. वो हसीना के परिवार वालों को भी खुश रखना चाहते हैं और दर्शकों से ये भी कहना चाहते हैं कि हसीना के हालात खराब थे. भाई गैंगस्टर था इसलिये उसके किरदार पर दाग लगे. कोर्ट रूम ड्रामा के सीन बोझिल हैं. अदायगी भी कुछ खास नहीं है.

अभिनय के हिसाब से श्रद्धा कपूर कम उम्र की हसीना के किरदार में तो फिट बैठती हैं, लेकिन उम्रदराज़ हसीना के रोल में मिसफिट हो जाती हैं. श्रद्धा जिस तरह से डायलॉग बोल रही हैं, ऐसा बिलकुल नहीं लगता उनके गाल फूले हुए हैं, बल्कि ऐसा लगता है जैसे मुंह में उन्होंने कुछ रखा हुआ है. कुल मिलाकर श्रद्धा के डायलॉग बोलने का अंदाज बेहद खराब है. मेकअप भी नकली है. ज़बरन उनका रंग कम दिखाया गया है. साफ़ झलकता है - चेहरे पर मटमैला रंग पोता हुआ है.

दाऊद के रोल में सिद्धांत कपूर मिसकास्ट हैं. मेकप के ज़रिये गेटअप में तो वो हैं लेकिन एक्टिंग के मामले में कमजोर हैं. उनसे पहले अजय देवगन और सोनू सूद उसी किरदार को बेहतर तरीके से निभा चुके हैं. राजेश तैलंग वक़ील के किरदार में और दधी पांडे हसीना पारकर के पिता के तौर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहते हैं.

फसाहत खान की सिनेमैटोग्राफ़ी जहां बेहद सच्ची है, लेकिन अमर मोहिले का संगीत उतना ही कमजोर है. अपूर्वा लाखिया के निर्देशन पर यही कहेंगे इस 'हसीना' से दूर ही रहें, तो वक्त और पैसा दोनों के लिये बेहतर होगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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