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हर दंगल उस बेटी के नाम है जिसका कोच पिता है

    • बबिता पंत
    • Updated: 29 दिसम्बर, 2016 10:26 AM
  • 29 दिसम्बर, 2016 10:26 AM
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आज जब पापा के बगल में बैठकर फिल्म दंगल देख रही हूं तो सोच रही हूं कि जिन लड़कियों के साथ एक पिता खड़ा है उन्हें अपने हिस्से का आसमान हासिल करने से कोई नहीं रोक सकता.

जब छोटी थी तब पापा की डांट का असर कई दिनों तक रहता था. वहीं, मां रोज़ मार-पीट भी ले तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था. थोड़ी बड़ी हुई तो मैं अपने दोस्तों से अकसर कहा करती थी कि मां की डांट तो टॉनिक जैसी हो गई है, जिस दिन न मिले उसी दिन कुछ खाली-खाली लगता है. कहने का मतलब ये है कि पापा की डांट को मैंने हमेशा बहुत ही गंभीरता से लिया और मम्मी के हाथों मिलने वाली कुटाई को दाल-भात ही समझा. ऐसा क्यों था ये इतने सालों में कभी समझ नहीं आया. और ये बात समझ आई तब जब आज मैंने पहली बार अपने पापा के साथ 70 एमएम स्क्रीन पर फिल्म देखी. इत्तेफाक से फिल्म भी कोई और नहीं बल्कि 'दंगल' थी.

 पिता का साथ हो तो क्या नहीं कर सकतीं लड़कियां

कोई भी बच्चा अपनी मां पर सबसे ज्याद हक समझता है. मां पर चीखने-चिल्लाने या वक्त-बेवक्त कोई भी डिमांड रखने में दूसरी बार सोचना भी नहीं पड़ता. अगर आधी रात को भी भूख लगी है तो मां को उठाकर कुछ बनाने के लिए कहने में ज़रा भी देर नहीं लगती. आप बाहर की झुझलाहट भी मां पर उड़ेल सकते हो. मां कई बार डांट कर तो कई बार प्यार से आपकी सारी मांगे पूरी करती रहती है. कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही था. हां, बड़े होने पर जब थोड़ी बहुत समझदारी आई तो मुझे लगता था कि हम मां को हम शायद इसलिए कुछ भी बोल देते हैं क्योंकि वो घर पर रहती है, घर के काम करती है और पैस न लाने की वजह से उसकी वैल्यू कम है. जबकि इसके ठीक उलट पापा कर रुतबा इसलिए बड़ा है क्योंकि पैसों से जुड़ी हुई जितनी भी जरूरतें हैं वो पापा ही पूरी करते हैं.

जब मैं खुद मां बनी तो धीरे-धीरे यह निष्कर्ष भी गलत साबित हो गया. मुझे मां बने हुए एक साल हो गया है और इस एक साल में ये एक बात तो...

जब छोटी थी तब पापा की डांट का असर कई दिनों तक रहता था. वहीं, मां रोज़ मार-पीट भी ले तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था. थोड़ी बड़ी हुई तो मैं अपने दोस्तों से अकसर कहा करती थी कि मां की डांट तो टॉनिक जैसी हो गई है, जिस दिन न मिले उसी दिन कुछ खाली-खाली लगता है. कहने का मतलब ये है कि पापा की डांट को मैंने हमेशा बहुत ही गंभीरता से लिया और मम्मी के हाथों मिलने वाली कुटाई को दाल-भात ही समझा. ऐसा क्यों था ये इतने सालों में कभी समझ नहीं आया. और ये बात समझ आई तब जब आज मैंने पहली बार अपने पापा के साथ 70 एमएम स्क्रीन पर फिल्म देखी. इत्तेफाक से फिल्म भी कोई और नहीं बल्कि 'दंगल' थी.

 पिता का साथ हो तो क्या नहीं कर सकतीं लड़कियां

कोई भी बच्चा अपनी मां पर सबसे ज्याद हक समझता है. मां पर चीखने-चिल्लाने या वक्त-बेवक्त कोई भी डिमांड रखने में दूसरी बार सोचना भी नहीं पड़ता. अगर आधी रात को भी भूख लगी है तो मां को उठाकर कुछ बनाने के लिए कहने में ज़रा भी देर नहीं लगती. आप बाहर की झुझलाहट भी मां पर उड़ेल सकते हो. मां कई बार डांट कर तो कई बार प्यार से आपकी सारी मांगे पूरी करती रहती है. कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही था. हां, बड़े होने पर जब थोड़ी बहुत समझदारी आई तो मुझे लगता था कि हम मां को हम शायद इसलिए कुछ भी बोल देते हैं क्योंकि वो घर पर रहती है, घर के काम करती है और पैस न लाने की वजह से उसकी वैल्यू कम है. जबकि इसके ठीक उलट पापा कर रुतबा इसलिए बड़ा है क्योंकि पैसों से जुड़ी हुई जितनी भी जरूरतें हैं वो पापा ही पूरी करते हैं.

जब मैं खुद मां बनी तो धीरे-धीरे यह निष्कर्ष भी गलत साबित हो गया. मुझे मां बने हुए एक साल हो गया है और इस एक साल में ये एक बात तो समझ आ गई है कि मां और बच्चे के बीच हमेशा छिपी हुई अम्बिलिकल कॉर्ड (गर्भ नाल) रहती है. अम्बिलिकल कॉर्ड को तो डॉक्टर डिलीवरी के दौरान काट देते हैं, लेकिन नौ महीने तक इस कॉर्ड के जरिए जो रिश्ता मां का बच्चे के साथ बन जाता है वो आखिरी सांस तक नहीं टूटता. और शायद यही वजह है कि बच्चा हमेशा मां से ही सबसे ज्यादा जिद करता है. मां की अनसुनी करने में भी मज़ा आता है फिर चाहे वो कमाने वाली मां हो या फिर हाउसवाइफ. पापा के साथ अम्बिलिकल कॉर्ड वाली बात तो नहीं होती लेकिन कोई तार ऐसा जुड़ा हुआ होता है जो हम उनकी बातें सिर्फ मानते ही नहीं बल्कि उनकी बातों का असर भी जबरदस्त होता है.

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हालांकि मेरे पापा 'दंगल' के पापा महावीर सिंह फोगाट की तरह सख्त नहीं थे. और होते भी क्यों वो कोई कोच थोड़ी थे. लेकिन उनकी बताई हर बात मेरे लिए पत्थर की लकीर ही होती थी. मुझे याद है कि जब मैं बहुत छोटी थी तब मुंह से चप-चप करके खाती थी. मां टोकती और मैं मानने के बजाए और चप-चप करती. खाने के वक्त रोज़ यही कहानी होती. कई बार मां हाथ भी उठाती लेकिन मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. एक बार मां ने पापा से कहा, 'देखो कैसे चप-चप करके खाती है. लड़़कियों को ये सब शोभा थोड़ी देता है. अब आप ही समझाओ इसे.' पापा ने मेरी तरफ देखा और कहा, 'इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तू लड़की है और इसलिए तुझे चप-चप नहीं करनी चाहिए. लड़का हो या लड़की सभी को सलीके से खाना चाहिए. देख, बेटा अगर ऐसे चप-चप करके खाएगी तो तेरे दोस्ते तेरा मज़ाक बनाएंगे और तेरे साथ कोई खाना नहीं खाएगा. ये बात मैं सबके लिए कह रहा हूं.' उस वक्त मेरे दोनों भाई भी वहीं पर बैठकर खाना खा रहे थे. पापा की बात मुझे समझ में आ गई और फिर मैंने कभी चप-चप करके नहीं खाया.

मैं घर के कामों में कभी हाथ नहीं बटाती थी. मन आया तो काम किया नहीं आया तो ठेंगा. मम्मी भी वैसे तो कभी किसी काम के लिए नहीं कहती थी. लेकिन पड़ोसी और रिश्तेदार कहते रहते थे कि अगर लड़की को लड़के की तरह पालेगी तो आगे चलकर दिक्कत ही होगी. कम से कम दो-चार गिलास ही धुलवाओ या साग-सब्जी ही कटवा लो. बीच-बीच में मम्मी को भी झटका लगता और मुझसे घर के काम करने के लिए कहती. मैं भी ढीट हमेशा न में ही जवाब दिया. कई बार काम तो कर देती लेकिन पहले न ही कहती. अब तो ये रोज़ की बात हो गई. मां चिल्लाती और मेरे कानों में तो जैसे कि जूं तक नहीं रेंगती. मेरे इस रवैये ने आग में घी का काम किया. अब तो मां पड़ोसियों के तानों से पहले ही मुझ पर काम करने के लिए दबाव बनाती. दबाव काम नहीं आता तो ईमोशनली ब्लेकमेल करना भी शुरू हो गया. कहती, 'ससुराल जाकर मेरी नाक कटवाएगी. सब तो यही कहेंगे न कि मां ने कुछ नहीं सिखाया.' इस बात पर तो मुझे बड़ा गुस्सा आता और मैं पहले से भी ज्यादा ढीठ. हां, ये एक बात और है कि वो मां ही थी जो मुझे बार-बार खूब पढ़ने के लिए कहती. हमेशा कहती कि बड़े होकर अपने पैरों पर खड़े होना, घर भी संभालना और बाहर भी. ये घर संभालने वाली बात पर मुझे बड़ी आपत्ति रहती. मैं कहती थी जब कमाऊंगी तो घर क्यों संभालुंगी.

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मां और मेरे बीच हर वक्त अघोषित जंग छिड़ी रहती. घर में चल रहे इस महायुद्ध से पापा कब तक बच पाते. मां ने पापा से कहा, 'खूब बिगाड़ो. लड़की है लेकिन लड़कियों जैसी कोई हरकत नहीं. घर का कोई काम नहीं करना चाहती. ससुराल में क्या होगा इसका?' पापा ने मेरी तरफ देखकर कहा, 'ससुराल-वसुराल दूर की बात है. तुझे घर का काम इसलिए करना चाहिए ताकि बड़े होने पर तू अपना खाना खुद बना सके. किसी पर निर्भर न रहना पड़े. आत्मनिर्भर होना सबके लिए जरूरी है.' पापा की बात तो समझ आई लेकिन बड़े होने में काफी वक्त था और समझ नहीं आ रहा था कि अभी से घर का काम करने की क्या जरूरत है. जब अकेले रहेंगे तब देखा जाएगा. फिर भी पापा ने कहा तो उनकी बात तो माननी ही थी. ग्रेजुएशन के बाद जब बाहर पढ़ने आई तब बचपन में दी गई पापा की सीख मेरे काम आई. कॉलेज में हॉस्टल नहीं था. किराए पर रूप लेकर पढ़ाई की और नौकर की. रूममेट भी थे, लेकिन उनमें से कइयों को खाना बनाना नहीं आता था. खाना भी बनाया, पढ़ाई भी की और नौकरी भी. घर के खाने की ज्यादा याद नहीं आई क्योंकि घर जैसा खाना बनाना आता था.

पापा ने हर वो काम करवाया जो उस वक्त घर के बड़े ही करते थे जैसे कि बैंक जाना और घर का राशन लाना. मुझे कहावत के तौर पर नहीं बल्कि सच में आटे-दाल का भाव मालूम था. ये एक्सपीरियंस हमेशा काम आया. मुझे कभी डीडी बनवाने, चेक भुनाने, बैंक में पैसे जमा करने, पैसे निकालने में कभी कोई दिक्कत नहीं आई. बचपन से जो प्रैक्टिस हो गई थी. हालांकि अब तो सबकुछ ऑनलाइन हो गया है लेकिन जब ऐसी सुविधा नहीं थी तब भी मेरे साथ के कई दोस्त बैंक जाने के नाम से ही डरते थे.

पापा ने कभी किसी सब्जेक्ट को पढ़ने या किसी कोर्स को करने से मना नहीं किया. लेकिन जब मैंने दिल्ली जाकर जर्नलिज्म की पढ़ाई करने के लिए कहा तो मां ने खूब साथ दिया. यही नहीं पैसों का भी इंतज़ाम किया लेकिन पाप कुछ नहीं बोले. अपना कॉलेज भी दिखाया लेकिन वो संतुष्ट नहीं थे. उन्हें डर था कि पता नहीं मैं इतने बड़े शहर में अकेले कैसे रहूंगी. टीचर्स ने आश्वासन भी दिया लेकिन उनका मन नहीं माना. मैंने पापा की न के बावजूद एडमिशन ले लिया. फीस का इंतजाम एजुकेशन लोन लेकर किया. हर हफ्ते पापा से फोन पर बात तो होती, लेकिन उनकी नाखुशी आवाज़ में साफ झलकती. ऐसा लगता था जैसे पापा को मुझ पर भरोसा ही नहीं है. कॉलेज में अच्छा करने के बावजूद मैं भी खुश नहीं थी क्योंकि पापा खुश नहीं थे. अब तक पापा मुझे समझाते आए थे लेकिन अब पापा को समझाने की बारी मेरी थी. हालांकि जर्नलिज्म के फील्ड की अनिश्चतता और एक से बढ़कर धाकड़ लोगों को देखकर लगता कि मेरा क्या होगा. मुझे नौकरी मिलेगी भी या नहीं. हमेशा डर लगा रहता था. खैर, कॉलेज चल ही रहा था कि मुझे एक प्रतिष्ठित अख़बार में नौकरी मिल गई. जब तीन महीने की सैलरी का चेक मिला तो सबसे पहले पोस्टपेड कनेक्शन लिया और पापा को फोन करके खुशखबरी दी और कहा कि आज के बाद मुझे फोन करने की जरूरत नहीं है. पापा हैरान, कुछ नहीं बोले. मैंने थोड़ा रुककर कहा कि अब से बस मिस कॉल देना मैं खुद फोन करूंगी. मैंने पापा का चेहरा तो नहीं देखा लेकिन मुझे पता है कि उनकी आंखें नम थीं.

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अब मेरे ऊपर पापा का भरोसा डबल हो गया. मेरे हर फैसले में साथ दिया. मनचाहे इंसान से शादी की तो जिस-जिस ने ऐतराज जताया सबको जवाब दिया. मेरे पापा ने ये नहीं कि मेरे लिए मेरी बेटी मेरा बेटा है. बल्कि हमेशा ये कहा कि मेरी लड़की, लड़की ही है और वो किसी से कम नहीं. वैसे यह सच है कि मां हमेशा अपने बच्चों के लिए त्याग करती है. सही मायनों में अपने खून से औलाद को सींचती है. उसकी एक फरमाइश पर सबकुछ न्योछावर करने को तैयार हो जाती है. उसकी एक चीख पर अंदर तक हिल जाती है. बच्चे के दर्द को अगर बच्चे से ज्यादा कोई महसूस करता है तो वो सिर्फ मां है. हालांकि बच्चे की परवरिश में मां और पिता दोनों की भूमिका बराबर है. लेकिन आज जब पापा के बगल में बैठकर फिल्म दंगल देख रही हूं तो सोच रही हूं कि जिन लड़कियों के साथ एक पिता खड़ा है उन्हें अपने हिस्से का आसमान हासिल करने से कोई नहीं रोक सकता.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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