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रीमा लागू 'मां' थीं, लेकिन दायरे से बाहर अभिनेत्री

    • रिम्मी कुमारी
    • Updated: 18 मई, 2017 10:00 PM
  • 18 मई, 2017 10:00 PM
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रीमा लागू ने अपनी इंद्रधनुषी प्रतिभा से हर तरह के रोल को जीवंत बना दिया था. लेकिन 40 साल लंबे अपने फिल्मी करियर में उन्होंने मां के किरदार में जो अपनी पहचान बनाई उसका विकल्प शायद ही अब कोई हो.

रीमा लागू नहीं रहीं. 59 साल की उम्र भी कोई उम्र होती है दुनिया छोड़ने के लिए? लेकिन विधाता की मर्जी के आगे किसी की चली है भला. रीमा लागू की मौत की खबर आम लोगों के लिए भले ही कोई साधारण खबर हो लेकिन सिने-प्रेमियों के लिए ये किसी सदमे से कम नहीं. निरूपा रॉय के बाद रीमा लागू ही शायद हिन्दी फिल्मों की सबसे प्यारी मां थीं.

हालांकि रीमा लागू को अपनी प्रतिभा के अनुसार फिल्म इंडस्ट्री में रोल नहीं मिले, लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी पहचान स्थापित की. समय किसी के लिए नहीं ठहरता. बॉलीवुड में भी समय के साथ मां के किरदार में कई बदलाव आए. 80-90 के दशक तक जहां 'मेरे पास मां है' समाज में मां की जगह को दिखाती थी तो वहीं अब मां को दोस्ताना की किरन खेर जैसी अपने बच्चे का दोस्त दिखाया जाता है जो बेटे के गे होने की सच्चाई को स्वीकार करती है. 80-90 के दशक में मां प्यार, दया, दुलार और त्याग की मूर्ति के रूप में जानी जाती थी, वहीं अब मां कूल मॉम बन गई हैं. जिनका अपने बच्चों के लिए प्यार दुलार सब वही है, लेकिन बदला है तो सिर्फ बच्चों को हैंडल करने का तरीका.

निरूपा रॉय ने मां की छवि को जिस सादगी और सरलता से पर्दे पर जिया था उससे वो यादगार बन गई थीं.

रीमा लागू ने आकर निरूपा रॉय की इस पहचान को टक्कर दी और उनके सामांतर आकर खड़ी हो गईं. मां के रोल में रीमा लागू ने दृढ़ और सशक्त भूमिकाओं को निभाया. फिर चाहे वो 'मैंने प्यार किया' की दोस्त मां हो या 'वास्तव' की कठोर मां जो अपने बेटे को मुक्ति देने के लिए गोली तक मार सकती है. या फिर 'ये दिल्लगी' की मालिकाना मां, रीमा लागू ने हर तरह के किरदारों को सशक्त तरीके से निभाया. उन्होंने नए जमाने की मां की भूमिकाओं को खूब चरितार्थ किया.

1958 में जन्मीं रीमा लागू मराठी रंगमंच के क्षेत्र में मशहूर मंदाकिनी भड़भड़ की बेटी थीं. उन्होनें...

रीमा लागू नहीं रहीं. 59 साल की उम्र भी कोई उम्र होती है दुनिया छोड़ने के लिए? लेकिन विधाता की मर्जी के आगे किसी की चली है भला. रीमा लागू की मौत की खबर आम लोगों के लिए भले ही कोई साधारण खबर हो लेकिन सिने-प्रेमियों के लिए ये किसी सदमे से कम नहीं. निरूपा रॉय के बाद रीमा लागू ही शायद हिन्दी फिल्मों की सबसे प्यारी मां थीं.

हालांकि रीमा लागू को अपनी प्रतिभा के अनुसार फिल्म इंडस्ट्री में रोल नहीं मिले, लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी पहचान स्थापित की. समय किसी के लिए नहीं ठहरता. बॉलीवुड में भी समय के साथ मां के किरदार में कई बदलाव आए. 80-90 के दशक तक जहां 'मेरे पास मां है' समाज में मां की जगह को दिखाती थी तो वहीं अब मां को दोस्ताना की किरन खेर जैसी अपने बच्चे का दोस्त दिखाया जाता है जो बेटे के गे होने की सच्चाई को स्वीकार करती है. 80-90 के दशक में मां प्यार, दया, दुलार और त्याग की मूर्ति के रूप में जानी जाती थी, वहीं अब मां कूल मॉम बन गई हैं. जिनका अपने बच्चों के लिए प्यार दुलार सब वही है, लेकिन बदला है तो सिर्फ बच्चों को हैंडल करने का तरीका.

निरूपा रॉय ने मां की छवि को जिस सादगी और सरलता से पर्दे पर जिया था उससे वो यादगार बन गई थीं.

रीमा लागू ने आकर निरूपा रॉय की इस पहचान को टक्कर दी और उनके सामांतर आकर खड़ी हो गईं. मां के रोल में रीमा लागू ने दृढ़ और सशक्त भूमिकाओं को निभाया. फिर चाहे वो 'मैंने प्यार किया' की दोस्त मां हो या 'वास्तव' की कठोर मां जो अपने बेटे को मुक्ति देने के लिए गोली तक मार सकती है. या फिर 'ये दिल्लगी' की मालिकाना मां, रीमा लागू ने हर तरह के किरदारों को सशक्त तरीके से निभाया. उन्होंने नए जमाने की मां की भूमिकाओं को खूब चरितार्थ किया.

1958 में जन्मीं रीमा लागू मराठी रंगमंच के क्षेत्र में मशहूर मंदाकिनी भड़भड़ की बेटी थीं. उन्होनें करीब 250 फिल्मों में काम किया. जिनमें मराठी फिल्में भी शामिल हैं. रीमा लागू की पहचान मराठी रंगमंच से बनी. कॉलेज खत्म होने के बाद रीमा लागू ने नाना पाटेकर के साथ 'पुरूष' नाटक में भाग लिया. इसमें रीमा ने रेप पीड़िता का किरदार निभाया था. इस नाटक के बाद रीमा रंगमंच की दुनिया का एक जाना-माना नाम हो गईं थीं. नाना पाटेकर के साथ 'पुरुष' के तो उन्होंने 700-800 मंचन किए. लेकिन जब नाना की फिल्मी लोकप्रियता से प्रभावित दर्शक थिएटर आने लगे और सीटियां बजाने लगे तो रीमा लागू ने इससे दूरी बनाने में ही भलाई समझी. यह वाकया उनके जीवन में एक बदलाव लेकर आया. रीमा ने अपने लक्ष्‍य खुद बनाए और उन्‍हें खुद मेहनत से साधा.

निरुपा रॉय ने दीवार फिल्म में दो बेटों के बीच फंसी मां ने सच्चाई का साथ दिया. इसके बाद तो वो अमिताभ की फिल्मी मां के रूप में फेमस ही हो गईं. फिर बात चाहे मुकद्दर का सिंकदर, मर्द, सुहाग, अमर अकबर एंथोनी जैसी फिल्मों में अमिताभ की मां को रोल किया. ऐसा नहीं है कि निरूपा रॉय के बाद या फिर उनके पहले फिल्मी पर्दे पर मां को रोल बनता ही नहीं था. असल में मां का सबसे पहला रोल अमीर बानू ने निभाया था. समाज के हिसाब से उन्होंने और उनके बाद की फिल्मी मांओं ने अपना किरदार निभाया. लेकिन निरूपा रॉय को 'दुखियारों की रानी' के नाम से जाना जाने लगा था.

मां तो मां है

1955 में निरूपा रॉय, सुबोध मुखर्जी की फिल्म मुनीम जी में काम कर रहीं थीं. इस फिल्म में निरूपा रॉय को हिरोइन की जवानी से लेकर बुढ़ापे तक का रोल करना था. लेकिन सुबोध मुखर्जी ने बिना बताए ही हिरोईन की जवानी वाला रोल नलिनी जयवंत के साथ फिल्मा लिया और वृद्ध महिला के किरदार में निरूपा रॉय को ही शूट किया. इस फिल्म में निरूपा रॉय ने अपने से उम्र में 10 साल बड़े देवानंद की मां का रोल निभाया था. फिल्म सुपर हिट रही. लेकिन निरूपा रॉय का नायिका वाला करियर खत्म हो गया. अब लोगों ने उन्हें मां के किरदार ही ऑफर करने शुरु कर दिए थे. विमल रॉय की फिल्म छोटी बहू से उन्होंने मां का रोल निभाना शुरु कर दिया.

आलम ये है कि निरूपा रॉय जिस तरह अमिताभ की मां बन गईं थीं वैसे ही रीमा लागू सलमान खान की मां बन गईं. टीवी सीरियल तू-तू-मैं-मैं में खड़ूस सास की उनकी भूमिका को कौन भूल सकता है. अभी रीमा लागू एक टीवी सीरियल नामकरण में दिखाई दे रहीं थीं. रीमा लागू ने अपनी इंद्रधनुषी प्रतिभा से हर तरह के रोल को जीवंत बना दिया था. लेकिन 40 साल लंबे अपने फिल्मी करियर में उन्होंने मां के किरदार में जो अपनी पहचान बनाई उसका विकल्प शायद ही अब कोई हो.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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