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Updated: 29 दिसम्बर, 2016 11:54 AM
बालकृष्ण
बालकृष्ण
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अगर बीजेपी के नेता बुधवार की दोपहर को मुलायम सिंह की वो प्रेस क्रांफेस देख रहे होंगे जिसमें मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी के 325 उम्मीदवारों के नामों का ऐलान किया, तो उनकी बांछें खिल गयी होगीं.

ठीक उसी तरह, उसी प्रेस क्रांप्रेंस में मुलायम के बगल में बैठ कर शिवपाल मंद मंद मुस्करा रहे थे. जैसे लोगों को बताना चाहते हों कि नेताजी की तो बस मुहर लगी है- टिकट पाने वालों की लिस्ट तो मेरी ही है. मंच पर ओम प्रकाश सिंह, अंबिका चौधरी, शादाब फातिमा जैसे नेता भी प्रसन्नचित्त बैठे थे जिन्हें कभी अखिलेश ने मंत्रिमंडल से निकाल बाहर किया था. अखिलेश तो अपने चहेतों के लिए कुछ ना कर सके, शिवपाल की भक्ति काम आयी और सबको टिकट मिल गया.

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 शिवपाल के चहेतों को मिल गया टिकट

लेकिन अपनी ऐसी बेकद्री देखने के लिए अखिलेश वहां मौजूद नहीं थे. वो तो लखनऊ से तीन सौ किलोमीटर बुंदेलखंड के झांसी और महोबा में जनसभा कर रहे थे. उसी बुंदेलखंड में, जहां से चुनाव लडने की इच्छा वो सार्वजनिक तौर पर जाहिर कर चुके हैं. लेकिन आज जो लिस्ट जारी हुई उसमें अखिलेश यादव का भी नाम नहीं था. इस बारे में पूछे जाने पर मुलायम सिंह यादव ने सवाल को टालते हुए कहा कि वो जहां से चाहें चुनाव लड़ सकते हैं.

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तो अखिलेश यादव खुद चुनाव नहीं लडकर अपने पार्टी के उम्मीदवारों के लिए टिकट मांग रहे हैं. उन्हीं उम्मीदवारों के लिए- जिनको चुनने में उनकी चल नहीं रही. बीजेपी के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है कि समाजवादी पार्टी खुद अपने मुख्यमंत्री की फजीहत करे, उनके लोगों का टिकट छीनकर उन्हें बेचारा साबित करे और उनके विरोधियों को टिकट देकर अमित शाह और नरेन्द्र मोदी को फिर ये कहने का मौका दें कि- जिसकी परिवार में ही नहीं चलती वो भला राज्य क्या चलाएगा ?  

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 विकास पुरूष की इमेज भी काम नहीं आई

दो महीने पहले जब परिवार में मचे घमासान से उबरकर अखिलेश यादव ने नए सिरे से यूपी के महाभारत में उतर कर अर्जुन बनने का साहस दिखाया था तो ऐसा लगा था कि समाजवादी पार्टी फिर से सत्ता की रेस में मजबूती से लौट आयी है. उसके बाद अखिलेश ने ताबडतोड उद्घाटन, शिलान्यास करके अपनी इमेज एक ऐसे विकास पुरूष की बनाने की कोशिश की जो परिवार के झगड़े से आगे यूपी के विकास की सोचता है. उन्होंन खुद कहा भी कि वो तांगे के घोडें की तरह आंखों के किनारे पट्टी बांध चुके हैं जिससे सिर्फ आगे यूपी के विकास को ही देख सकें. जब नोटबंदी से लोगों की नाराजगी बढ़ने लगी और बैंकों के बाहर खड़े लोग बेताब होने लगे तो समाजवादी पार्टी को लगा कि अब तो काम और भी आसान हो गया. सोचा, नोटबंदी से नाराज लोगों के वोटों से उनकी थैली भर जाएगी. बीजेपी के नेताओं को पसीना आने लगा था.

ये भी पढ़ें- अखिलेश को 'आधा' देखा, बतौर 'पूरा सीएम' एक मौका तो बनता है जब समाजवादी पार्टी और कांग्रसे के बीच गठबंधन की खबरें आने लगीं तो बीजेपी नेताओं का ब्लड प्रेशर और बढ गया. क्या मुसलमान इस गठबंधन की तरफ गोलबंद होकर बीजेपी और मायावती दोनों का काम तमाम कर देंगे? लेकिन गठबंधन की बात बनी नहीं और बीजेपी, मायावती दोनों ने राहत की सांस ली. लेकिन फिर से रेस में लौटी समाजवादी पार्टी के लिए अब अचानक चीजें मुश्किल हो गई हैं. टिकट बंटवारे को लेकर घमासान शुरू हुआ तो पार्टी को अब संभलने का मौका नहीं मिलेगा. अखिलेश यादव ने टिकट बंटवारे में अनदेखी पर फिलहाल अपनी नाराजगी को काबू में रखते हुए सिर्फ इतना ही कहा है कि वो मुलायम सिंह से दोबारा बात करेंगें. लेकिन बात नहीं बनी, अपने लोगों के लिए वो कुछ नहीं कर सके तब क्या होगा? क्या अखिलेश एक मजबूर नेता की तरह चुनावी जंग में उतरेंगे या फिर अपने लोगों को बागी होकर मैदान में आने का इशारा कर देंगे. खेल अभी बाकी है. लेकिन लगता है कि समाजवादी पार्टी अब यूपी जीतने से ज्यादा साइकिल पर कब्जा जमाने के लिए लड रही है.   और सबको पता है कि जिस साइकिल को आगे और पीछे दोनों तरफ से खींचा जाने लगे वो कहीं नहीं पहुंचती.

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बालकृष्ण बालकृष्ण @bala200

लेखक आज तक में पत्रकार हैं.

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