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Updated: 19 अगस्त, 2016 12:47 PM
सुप्रतिम बनर्जी
सुप्रतिम बनर्जी
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सबसे पहले हरियाणा की पहलवान छोरी साक्षी मालिक और उसके जज़्बे को मेरा सलाम. अब बात उनके कांस्य पदक जीतने की. वैसे तो साक्षी ने ये पदक किर्गिस्तान की पहलवान को हरा कर जीता, दस्तावेज़ों में इसे किर्गिस्तान पर हिन्दुस्तान की जीत के रूप में ही लिखा जाएगा और हमेशा-हमेशा के लिए ऐसा ही पढ़ा भी जाएगा.

लेकिन मेरे हिसाब से साक्षी की ये जीत हमारे उस सिस्टम के खिलाफ एक आम लड़की की जीत है, जो सवा सौ करोड़ से भी ज्यादा की आबादी वाले एक मुल्क को एक अदद मेडल के लिए तरसा देता है.

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ये सिस्टम के खिलाफ एक आम लड़की की जीत है

ये एक मामूली हिन्दुस्तानी लड़की की उस भ्रष्ट सिस्टम के खिलाफ जीत है, जो खेलों की दुनिया को भी दीमक की तरह चाट रहा है. जिस सिस्टम में सिवाय खिलाड़ियों के नेता, शासक, प्रशासक, मैनेजर, नौकरशाह हर कोई मलाई खा रहा है और जिस सिस्टम में खिलाड़ी के खाने में कोई भी बड़े आराम से नशीली दवा घोल जाता है.

जरा सोचिये, नरसिंह यादव जैसों पर तब क्या गुजरती है, जब कोई खेल से पहले ही खेल को अपनी जिन्दगी देने वाले के साथ 'खेल' कर जाता है.

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साक्षी की जीत उस सिस्टम के खिलाफ भी जीत है, जहां खेलकूद की ज़्यादातर बड़ी इकाइयों की ऊंची कुर्सियों पर भी खद्दरधारियों ने कब्ज़ा जमा रखा है.

साक्षी की ये जीत उस हरियाणवी सिस्टम के खिलाफ भी एक जीत है, जहां बेटियां आज भी बोझ हैं और जहां लड़कों के मुकाबले लड़कियों की तादाद पूरे मुल्क में अपने सबसे शर्मनाक अनुपात में सामने है. अब दीवार पे पीठ लग चुकी है. मेरे हिसाब से अब वक़्त भी नहीं बचा है.

लेखक

सुप्रतिम बनर्जी सुप्रतिम बनर्जी @100006114257745

लेखक आजतक में वरिष्ठ संवाददाता हैं

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