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Updated: 06 दिसम्बर, 2016 10:05 PM
प्रियंका ओम
प्रियंका ओम
  @priyanka.om
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आज कल की महिलाएं सिर्फ़ टीवी नहीं देखती या ना सिर्फ़ किचन में घुसी रहती है या ना ही सिर्फ़ बिस्तर पर सजती है. आज कल की महिलाएं मल्टी-टास्किंग हो गई हैं. वो एक साथ घर दफ़्तर और बिस्तर सब संभाल लेती हैं. असल में आज की औरत की तुलना दस हाथों वाली दुर्गा माँ से की जा सकती है. जितनी सक्षम ये शारीरिक रूप से है उतनी ही सक्षम मानसिक रूप से भी है यही कारण है कि शादी के बाद नए घर और परिवार को अपना कर ससुराल और मायक़े के बीच संतुलन बना कर चलती हैं.

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पति पत्नी, दोनों के काम करने के बावजूद शाम की चाय और रात के खाने की ज़िम्मेदारी औरत के हिस्से आती है ऐसे में गोवन आर्ट और कल्चर मिनिस्टर दयानंद मंडरेकर का एक अवॉर्ड फंक्शन में ये कहना कि "महिला पति और अपने बच्चे का ख़याल रखने से ज़्यादा टीवी देखने में रुचि लेती है, पूरे दिन काम से थक कर घर वापस आए पति की ओर ध्यान नहीं देकर टीवी देखती है" बहुत नागवार गुज़रा.

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 सांकेतिक फोटो

घर के काम से फ़ुर्सत पाने के बाद टीवी हम गृहणियों के लिए मन बहलाने का माध्यम मात्र है. पुरुषों की तरह हम गृहिणियों का शनिवार हाफ़ डे नहीं होता है और ना संडे ऑफ़ होता है. हमारा कोई पब्लिक हॉलिडे नहीं होता. हम तो 24x7 काम करते है बिना थके बिना रुके. अगर बच्चा बीमार होता है तो रात में हम महिलाएं ही जागती हैं और फिर सुबह उठकर पति के लिए लंच का ड़ब्बा भी पैक करती हैं! और जब ख़ुद बीमार होती हैं तब भी मेडिसिन लेकर घर का काम निपटाती हैं. ऐसे में हम महिलाएं दिन के एक घंटे टीवी देखकर अगर अपना मन बहलाती हैं तो इसमें क्या बुरा है? पुरुष ऑफ़िस में काम से ऊब कर बीच में सिगरेट चाय पीकर फ्रेश हो जाते हैं ठीक इसी तरह हम महिलाएं काम से थक कर टीवी देख लेती हैं और खुश हो जाती है. क्योंकि स्कूल से आने के बाद टीवी बच्चों का हो जाता है और ऑफ़िस से आने के बाद पति का.

मुझे लगता है किसी एक को उदाहरण बना कर कोई बात सार्वजनिक रूप से नहीं कहनी चाहिए. दयानंद मंडेकर जी ने जिस तरह की महिला का ज़िक्र किया वैसी महिला शायद लाखों में एक हो सकती है हरेक नहीं.

मैं अगर ख़ुद अपनी बात करूं तो एमबीए होने के बादजूद मैंने गृहणी बनाना चुना. पति के साथ मुझे भी बाहर काम करने का मौक़ा भी मिला जिसे मैंने बड़ी आसानी से ठुकरा दिया. क्योंकि मुझे मेरा करियर मेरे घर पति और बच्चे बढ़कर नहीं लगा. मुझे याद है दिल्ली में अपनी कहानी संग्रह के विमोचन पर मैं सिर्फ़ इसलिए नहीं आ पाई थी की मेरे बैग़ैर मेरा छः साल का बेटा कैसे रहेगा और मेरे पति मेरे बैग़ैर कैसे मैनिज केरेंगे. अपने भाई की शादी पर भी मैं शादी के दिन पहुंच पाई क्योंकि मेरे बेटे के स्कूल में छुट्टियाँ नहीं थी और मैं उसे अकेला नहीं छोड़ पाई.

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बात सिर्फ़ मेरी नहीं है. मुझ जैसी हज़ारों महिलाएं है जिन्होंने अपना करियर अपने पति और बच्चे के लिए छोड़ दिया. ऐसे में दयानंद जी की बात बेमानी लगती है. हो सकता है ये उनका व्यक्तिगत अनुभव रहा होगा लेकिन व्यक्तिगत अनुभव सर्वमान्य नहीं हो सकता.

90% गृहणियां अपने घर से कामों से फ्री होकर शाम को अपने पति का इंतज़ार करती हैं. ज़्यादातर महिलाएं साफ़ कपड़े पहन कर और सुगंधित श्रिंगार कर पति का इंतज़ार करती हैं ताकि  उन्हें देखकर पति अपने दिन भरकी थकान भूल जाए.

कभी कभी मुझे लगता है या तो नेताओं में सोच समझ कर बोलने की प्रथा नहीं है या फिर बिना सोचे समझे बोलना नेताओं का फ़ैशन है. बात जो भी हो अधिकतर नेता अपने बेतुके स्टेट्मेंट से अक्सर हमें दुख ही पहुंचाते है.

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लेखक

प्रियंका ओम प्रियंका ओम @priyanka.om

लेखक कहानी संग्रह 'वो अजीब लड़की' की ऑथर हैं

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