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Updated: 04 दिसम्बर, 2016 03:26 PM
श्रुति दीक्षित
श्रुति दीक्षित
  @shruti.dixit.31
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नोटबंदी ना हो गई आफत हो गई. पूरे देश में बवाल मचा रखा है. मोदी विरोधी और मोदी भक्त दोनों ही अपना-अपना खेमा संभाले हुए हैं. बात यहां खत्म नहीं होती. ATM और बैंक की लाइनों में खड़े लोगों का अपना गम है. जब तक लाइन में नहीं लगे तब तक मोदी भक्त और जैसे ही परेशानी होने लगी मोदी विरोधी हो गये. जी हां, कुछ ऐसे लोगों के भी साक्षात दर्शन किए हैं मैंने. नोटबंदी के अपने फायदे हैं और इन्हें मानती भी हूं, लेकिन इस बात पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है कि इस नोटबंदी ने लोगों को स्वार्थी और उनके दिल पर पत्थर रख दिया है. 'हमारा काम हो जाए हमें दूसरों से क्या' वाला व्यवहार जो कुछ लोगों में देखने मिलता रहा अब अधिकतर लोगों में देखने को मिल रहा है.

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 सांकेतिक फोटो

जरा इस घटना पर गौर कीजिए...

हाल ही की घटना है. कानपुर देहात में 30 साल की सर्वेशा ने बैंक लाइन में खड़े-खड़े अपने बच्चे को जन्म दिया. बैंक लाइन में खड़े हुए सर्वेशा का ये दूसरा दिन था. सुबह से लेकर शाम 4 बजे तक लाइन में खड़े रहने के बाद सर्वेशा की डिलिवरी कानपुर देहात की पंजाब नैशनल बैंक की झिनझक ब्रांच में हो गई क्योंकि एम्बुलेंस समय पर ना आ सकी. इसके बाद पुलिस की जीप में मां और नवजात को अस्पताल पहुंचाया गया.

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सर्वेशा बैंक में अपने पति के एक्सिडेंट का मुआवजा लेने आई थी. सितंबर में ही सर्वेशा के पति की मृत्यु हुई थी. इसके बाद सरकार से उसे मुआवजे में घर और पैसे मिलने थे. महिला की सास शशि का कहना है कि उन्हें एक बार को लगा कि सर्वेशा नहीं बच पाएगी, लेकिन अब सब ठीक है.

इस घटना पर गौर करें तो कुछ बातें सामने दिखेंगी-

- महिला का दो दिन तक पैसे ना निकाल पाना - शाम तक लाइन में खड़े रहना - एम्बुलेंस का समय पर ना पहुंच पाना - नोटबंदी के कारण सब कुछ होना

इन सबके बीच लोग फिर नोटबंदी को कोसेंगे कि इतनी बड़ी लाइन लगी, सरकार और स्थानीय प्रशासन को जिम्मेदार ठहराएंगे कि एम्बुलेंस समय पर नहीं पहुंच पाई, लेकिन उस तरफ ध्यान नहीं देंगे कि उन्होंने खुद क्या किया? सवाल बड़ा अजीब लग रहा होगा, लेकिन क्या ये नहीं सोचा जा सकता कि लोगों में बिलकुल इंसानियत नहीं बची जो एक महिला को इस हालत में भी लाइन में खड़े होने दिया. आखिर कितना समय लगता उसे बैंक के अंदर, 10 मिनट, 15 मिनट, 30 मिनट, क्या इतना भी उस लाइन में खड़े लोग नहीं कर सकते थे. अगर कोई वाकई जरूरतमंद इंसान दिख रहा है लाइन में तो क्या उसे पहले नहीं जाने दिया जा सकता.

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 सांकेतिक फोटो

प्रशासन, सरकार, नोटबंदी. बारी बारी या एक साथ दोष सबको दिया जा सकता है, लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं कि इंसान खुद पत्थर बन जाए. नोटबंदी भले ही बुरी लग सकती है, लेकिन इतनी भी नहीं है कि इंसान की इंसानियत ही खत्म हो जाए. अगर उस लाइन में महिला को कुछ हो जाता तो इसका जिम्मेदार किसे ठहराया जाता? नोटबंदी को, प्रशासन की लापरवाही को, बैंक को, लाइन में लगे लगे लोगों को या आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को?

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एक और घटना ऐसी ही थी जिसमें दिल्ली के एक एटीएम की लाइन में एक इंसान गिर पड़ा, लेकिन भीड़ ने लाइन नहीं छोड़ी क्योंकि अगर कोई भी अपनी जगह छोड़ता तो वो पीछे हो जाता. अब इसे क्या कहा जाए? माना सभी को जरूरत है, पैसे नहीं है और अभी इतने एडवांस नहीं हुए लोग कि हर जगह कैशलेस ट्रांजेक्शन कर सकें, लेकिन फिर भी आमजन से ही इंसानियत की उम्मीद की जाती है. हर एटीएम, हर बैंक और हर पोस्टऑफिस की लाइन में तो लोग ही खड़े हैं ना. क्या ये सोचने वाली बात नहीं है?

लेखक

श्रुति दीक्षित श्रुति दीक्षित @shruti.dixit.31

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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