आखिर राजनीतिक दलों की फंडिंग पर शिकंजा कब?
नोटबंदी के बाद सरकार ने साफ किया है कि अगर कोई राजनीतिक पार्टी बैंक में 500 और 1000 के पुराने नोट अपने खाते में जमा करवाती है तो उसपर कोई टैक्स नहीं लगेगा. जहां आम इंसान अपनी गाढ़ी कमाई के लिए इतना परेशान है, वहां राजनीति में इतनी छूट क्यों?
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जब से सरकार नोटबंदी का एलान किया है तब से आम आदमी के पैसे पर कड़ा पहरा है. अपनी ही गाढ़ी कमाई को निकालने के लिए पूरा देश कतार में खड़ा दिखाई दे रहा है फिर भी उसे निराशा ही हाथ लग रही है. बैंक में पुराने नोट जमा कराने जाइए तो अपना प्रूफ जमा कराएं. पैसा बदलने जाइए तो सबूत पेश कीजिए. शादी के लिए पैसा चाहिए तो निमंत्रण पत्र दिखाइए. नोटबन्दी के नियम रोज बदल रहे हैं, लेकिन राजनीतिक पार्टियों के लिए क्यों नहीं? राजनीतिक दलों के लिए आयकर के नियम अलग हैं तो जनता के लिए कुछ और क्यों?
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सरकार चाहती है कि देश डिजिटल हो, हर लेनदेन में पारदर्शिता हो, कैशलेस नहीं तो लेस कैश हो, तो राजनीतिक पार्टियां सरकार की डिजिटल इंडिया अभियान से बाहर क्यों? यहां तक कि एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि राजनीतिक दलों को मिलने वाली 75 फीसदी रकम का स्त्रोत अज्ञात होता है.
राजनीतिक पार्टियों को टैक्स में छूट...
नोटबंदी के बाद केंद्र सरकार ने साफ किया है कि अगर कोई राजनीतिक पार्टी बैंक में 500 और 1000 के पुराने नोट अपने खाते में जमा करवाती है तो उसपर कोई टैक्स नहीं लगेगा. हालाँकि, पैसा जमा करवाने के दौरान सरकार ने एक नियम यह भी रखा है कि इसमें यह देखा जाएगा कि राजनीतिक दलों को मिलने वाला व्यक्तिगत चंदा 20,000 रुपए से कम होना चाहिए और यह दस्तावेजों में दर्ज होना चाहिए.
चुनाव आयोग ने कुछ दिनों पहले ही कहा है कि देश में पंजीकृत करीब 1900 राजनीतिक पार्टियों में से 400 ऐसी हैं जिन्होंने कभी भी चुनाव नहीं लड़ा. |
नोटबैन के बाद देश में पारदर्शी सरकार की कामना को लेकर, तमाम मुश्किलों को झेलते हुए देश के नागरिकों ने इस व्यवस्था की सराहना की. हालांकि, यह भी जगज़ाहिर है कि देश में धनपशुओं से राजनीतिक पार्टियां सैकड़ों करोड़ रुपए चंदे के रूप में लेती हैं और बाद में उन्हें नीतिगत रूप से कई प्रकार की छूट सरकारें प्रदान करती रहीं है.
चुनाव आयोग लगा चुका है गंभीर आरोप...
चुनाव आयोग ने कुछ दिनों पहले ही कहा है कि देश में पंजीकृत करीब 1900 राजनीतिक पार्टियों में से 400 ऐसी हैं जिन्होंने कभी भी चुनाव नहीं लड़ा. सवाल यह है कि अगर ये दल चुनाव ही नहीं लड़ते, तो फिर करते क्या हैं? इस समय कालेधन के खिलाफ एक माहौल बना हुआ है, इसलिए यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या कालाधन खपाने के लिए राजनीतिक दल का मुखौटा ओढ़ा गया? आयोग ने यह टिप्पणी शायद इसलिए की हो कि संभवत: ऐसी राजनीतिक पार्टियों का खेल केवल कालेधन को सफेद करने में है, जो राजनीतिक पार्टी के नाम पर इनकम टैक्स में मिली छूट का लाभ उठा रहे हैं.
इंडिया टुडे -आजतक चैनल के स्टिंग कर चुके हैं पर्दाफाश...
इंडिया टुडे -आजतक चैनल के स्टिंग में भी देश देख चुका है कि किस तरह से कमीशन लेकर राजनीतिक दलों ने नए नोटों को पुराने नोटों में बदलने का ठेका लेते हैं. इंडिया टुडे न्यूज चैनल ने स्टिंग ऑपरेशन कर यह खुलासा किया है कि नोटबंदी के बाद राजनीतिक दलों के ऑफिस, काले धन को सफेद करने के अड्डे और नेता इस कारोबार के दलाल बन गए हैं. पार्टी ऑफिसों में बैठे नेता, करोड़ों रुपए के पुराने नोटों को कमीशन पर नई करेंसी के नोटों में एक्सचेंज करने के दावे कर रहे हैं.
अधिकांश राजनीतिक दल सूचना अधिकार के दायरे में आने को तैयार भी नहीं हैं उसके साथ ही ना ही नगद चंदे का स्त्रोत बताने को तैयार हैं. |
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अब सवाल यह उठता है कि अगर नोटबैन की आड़ में राजनीतिक पार्टियों को कालाधन डकारने की छूट मिल जाए तो क्या यह देश के लोगों के साथ अन्याय नहीं है? जनता यह जानना चाहती है कि जैसे मोदी ने कठोर निर्णय कालेधन और भ्रष्टाचार के खात्मे को लेकर लिया है वैसे ही विरोध की चिंता किए बगैर राजनीतिक पार्टियों की आय-व्यय के मामले में भी कठोर निर्णय लें.
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अधिकांश राजनीतिक दल सूचना अधिकार के दायरे में आने को तैयार भी नहीं हैं उसके साथ ही ना ही नगद चंदे का स्त्रोत बताने को तैयार हैं. स्थिति चाहें जो भी हो नोटबैन के बाद पूरी व्यवस्था परिवर्तन में राजनीतिक दलों को शामिल किया जाना ज़रूरी है. नोटबैन के मद्देनज़र समग्र रूप से पारदर्शी व्यवस्था अपनाए जाने की आवश्यकता है.
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