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Updated: 23 दिसम्बर, 2016 02:13 PM
बालकृष्ण
बालकृष्ण
  @Bala200
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जिन लोगों ने कभी एक बार भी हाथी की सवारी का लुत्फ उठाया है, वो जानते हैं कि इससे ज्यादा राजसी सवारी कोई और हो ही नहीं सकती. गजराज जब अपनी मस्तानी चाल में सूंढ़ उठा कर, डगमग-डगमग चलते हैं तो पीठ पर बैठे रंक को भी राजा होने का एहसास होने लगता है. हाथी की पीठ की ऊंचाई से नीचे के सारे लोग तुच्छ दिखने लगते हैं. लेकिन कहते हैं कि धरती के इस सबसे भारी भरकम जीव को पाल पाना सिर्फ राजा महाराजाओं के ही बस की बात है. साधारण इंसान तो हाथी के चारे का इंतजाम में ही बिक जाए.

मगर मायावती कोई साधारण महिला नहीं हैं. कांशीराम के नीले हाथी को उन्होंने 1984 से अब तक न सिर्फ पाल-पोस कर बड़ा किया, बल्कि चार बार उस पर सवार होकर यूपी के सिंहासन तक राजतिलक भी करा आईं. उत्तर प्रदेश के राजनीति में एक वक्त नीले हाथी की धमक ऐसी बनी कि विरोधियों को लगने लगा जो मायावती से टकराएगा, वो हाथी के पैरों तले कुचला जाएगा. बहुजन समाज पार्टी की राजनीति भी हाथी की चाल की तरह ही मदमस्त रही. जब जो चाहा कहा, जब जो मन हुआ किया.

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 कांशीराम के साथ मायावती

बीएसपी के कांशीराम देश के इकलौते ऐसे नेता थे जो खुलेआम कहते थे कि वो देश में अस्थिरता चाहते हैं. क्योंकि जितनी ज्यादा बार सरकारें गिरेंगी, जितनी ज्यादा बार चुनाव होंगे- उनकी पार्टी उतनी ही मजबूत होती जाएगी. लेकिन कमाल की बात ये कि उसी बीएसपी की मायावती उत्तर प्रदेश के इतिहास में पहली ऐसी मुख्यमंत्री बनीं जिन्होंने पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा किया. उनसे पहले बड़े बड़े सूरमा यूपी के मुख्यमंत्री हुए, लेकिन कोई भी पांच साल तक लगातार मुख्यमंत्री नहीं रह सका.

मायावती जब दलितों की मसीहा बन नीले हाथी पर बैठ कर निकलीं,  तो नारा दिया- ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’. लेकिन 2007 के विधानसभा चुनाव के समय जब हाथी को लगा कि अब  सिर्फ दलित वोटों के चारे से पेट नहीं भरेगा, तो हाथी ने माथे पर लाल तिलक लगा लिया और सूंढ़ उठाकर बोला- ‘हाथी नहीं गणेश है-ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’.

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इतिहास गवाह है कि 2007 के विधानसभा चुनाव में सवर्ण जातियों ने गणेश के अवतार में घर आए हाथी के आगे ऐसा सर झुकाया कि यूपी में 14 सालों से चला आ रहा गठबंधन का युग, एक झटके में खत्म हो गया और मायावती प्रचंड बहुमत के साथ चौथी बार मुख्यमंत्री बन गईं .

लेकिन 2007 से 2012 तक, पांच साल तक निष्कंटक राज करने के बाद मायावती शायद ये भूल गयीं कि राजा और रानियों का जमाना अब लद गया. वो भूल गईं कि जनता की गाढी कमाई के करोड़ों-अरबों रुपए खर्च करके पत्थर के हाथियों का जो अस्तबल वो पूरे प्रदेश में बनवा रही हैं वो सब भी समय आने पर चारा मांगने लगेंगे. नीले हाथी को तो जनता ने गणेश मानकर प्रणाम कर लिया, पत्थर के इतने हाथियों का पेट यूपी की गरीब जनता भला कैसे भरती !

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2007 में मायावती चौथी बार मुख्यमंत्री बनी थीं

जब 2012 का विधानसभा चुनाव आया तो हाथियों के चारे का इंतजाम नहीं कर पाना मायावती को मंहगा पडा. विरोधियों ने हल्ला मचा दिया कि मायावती का हाथी घास नहीं, सिर्फ नोट खाता है. दलित वोटों के चारे से प्रदेश भर में फैले हाथियों के अस्तबल का पेट कैस भरता. सतीश मिश्रा ने बहुत हाथ जोड़ा, दलितों को तिलक लगाकर, ब्राह्मण बनाकर, फिर सभाएं की. लेकिन बात नहीं बनी. ब्राह्मण अब नीले हाथी को गणेश मानने के तैयार ही नहीं थे. चारे की कमी हुई तो पत्थर के हाथी भी जैसे गुस्से से चिंहाडने लगे. नीला हाथी ऐसा बिदका कि मायावती 204 सीटों के ऊंचे सिंहासन से सीधे 80 सीटों की पायदान पर जा गिरीं.

मायावती कुछ संभल पातीं कि लोकसभा चुनाव आ गया. फिर हाथियों के चारे का इंतजाम नहीं हो सका. नीला हाथी जिधर जाता, लोग हल्ला मचाने लगते- नोट खाने वाला हाथी आ गया. आखिरकार वही हुआ जिसका डर था. लोकसभा चुनाव में पहली बार ऐसी हालत हुई कि बीएसपी एक सीट पाने को भी तरस गयी. मजाक बन गया और लोग कहने लगे चमत्कार देखना है तो यूपी चलो, वहां एक नीले हाथी ने अंडा दिया है.

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 हाथी के चारे के लिए नहीं हो पा रहा इंतजाम

एक बार फिर चुनाव का बिगुल बज चुका है. लेकिन महारानी होने के बावजूद हाथी के चारे के इंतजाम में मायावती को यूपी की सर्दी मे भी पसीने आ रहे हैं. हाथियों की इस फौज का पेट भरने के लिए अब किस वोट बैंक का खजाना खोला जाए. हालत ये है कि कल का 'बबुआ' अखिलेश भी हर रैली में पत्थर के हाथियों का मजाक उड़ता फिर रहा है. कहता है ‘देखो मैं मेट्रो में घूम आया, एक्सप्रेस वे पर साइकिल सरपट भगाई, लेकिन तुम पांच सालों से हिले तक नहीं. जहां थे वहीं के वहीं खडे हो.’ रही सही कसर कम्बख्त नोटबंदी ने पूरी कर दी. बुरे वक्त पर हाथियों के चारे के लिए जो इंतजाम कर रखा था, सब एक झटके में बर्बाद हो गया. नोट, नोटबंदी ले गया, वोट का कोई अता-पता नहीं. नीला हाथी उदास है.

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मायावती बहुत पहले ही समझ चुकी हैं कि सिर्फ दलितों के दम पर हाथी पाल पाना मुमकिन नहीं है. तो इस बार उन्होंने हाथियों को चारे के लिए मुसलमानों के घर के सामने खड़ा कर दिया है. पहली बार ऐसा होगा कि जब यूपी में सवा सौ से ज्यादा मुसलमान हाथी पर सवार होकर, बीएसपी का टिकट लेकर चुनावी जंग में उतरेंगे. पर जिन मुसलमानों ने देखा है कि यही नीला हाथी दो-दो बार सूंढ़ में कमल का फूल उठाए घूम चुका हैं, क्या वो उसे चारा डालेंगे? मायावती को डर है कि कहीं ऐेसा न हो कि शाकाहारी हाथी मुसलमानों के घर के आगे खडे़ ही रह जाएं और मुसलमान पिछले दरवाजे से अखिलेश यादव की साइकिल पर सवार हो कर निकल जाएं. इसलिए जब वो सुनती हैं कि अखिलेश और राहुल हाथ मिलाने की सोच रहे हैं तो उनका कलेजा कांप जाता है. अगर ऐसा हुआ तो यूपी में हाथी का भूखों मरना तय है.

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मायावती कहती हैं कि अब सत्ता में लौटीं तो स्मारक नहीं बनवाएंगी

लखनऊ के तमाम चौराहों पर खड़े पत्थर के हाथी अब मायावती को सालने लगे हैं. बार बार सफाई देती हैं कि अब सत्ता में लौटीं तो स्मारक नहीं बनवाएंगी, अपनी मू्र्तियों पर माला नहीं चढाएंगी, पत्थर के हाथी नहीं लगाएंगी. लेकिन जो हाथी लगे मुंह चिढा रहे हैं, बार-बार वोटों का चारा मांग रहे हैं उनका करें तो क्या करें ! पत्थर की लिखाई मिटाई भी तो नहीं जा सकती.

बीजेपी दलितों और पिछडों को कह रही है नीले हाथी के पीछे भागना छोडो. हमारे पास आओ, हाथ में कमल का फूल पकड़ो और गर्व से कहो- हम हिन्दू हैं. मायावती लोकसभा चुनाव में देख चुकी हैं कि ये होना नामुमकिन नहीं है.

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अखिलेश यादव की सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद, जुलाई 2012 में अमित जानी नाम के एक छुटभैये नेता ने लखनऊ में अंबेडर स्मारक के पास लगी मायावती के संगमरमर की मू्र्ति का सर, धड़ से अलग कर दिया. बहुत हंगामा मचा. लेकिन लोग ये देख कर हैरान रह गए कि रातों रात ठीक वैसी ही मूर्ति, उसी जगह पर लग गयी. लोग बेहद हैरान हुए कि आखिर चंद घंटों में ही  दूसरी मूर्ति तैयार कैसे हो गयी. पता चला कि मायावती ने ऐसे ही किसी बुरे वक्त के लिए कई एक जैसी मूर्तियां बनवाकर सरकारी मालगोदाम में रख छोडा है. लेकिन अफसोस ! मू्र्तियों की तरह किसी वोट बैंक को बुरे वक्त के लिए मालगोदाम में भर कर नहीं रखा जा सकता.

मायावती सालों से नीले हाथी की सवारी कर रही हैं. लेकिन शायद वो ये गौर करना भूल गयीं कि धरती का सबसे बड़ा जीव होने के बावजूद, हाथी की आंखे बहुत छोटी होती हैं. उसे दूर की चीज ठीक से  दिखाई नहीं देती.

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लेखक

बालकृष्ण बालकृष्ण @bala200

लेखक आज तक में पत्रकार हैं.

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