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Updated: 26 दिसम्बर, 2016 08:43 PM
आर.के.सिन्हा
आर.के.सिन्हा
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उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों को बहुत वक्त नहीं बचा है. कायदे से इस चुनाव में एक बड़ा मुद्दा राज्य में नवयुवकों की बेरोजगारी को दूर करने का अवश्य ही होनेवाला है. बेरोजगारी के बोझ तले राज्य पूरी तरह दब चुका है. राज्य के नौजवानों को उनकी शैक्षणिक योग्यता के मुताबिक रोजगार नहीं मिल रहा है. वे धक्के खा रहे हैं. यकीन मानिए कि नौकरी पाने के लिए हाहाकार मच हुआ है.

नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के मुताबिक वर्ष 2017 के अंत तक उत्तर प्रदेश में बेरोजगारों (18-35 साल के आयुवर्ग) की फौज का आंकड़ा 1.3 करोड़ के आसपास होगा. राज्य में एक ही नौकरी के लिए सैकड़ों-हजारों नौजवान अप्लाई करते हैं. क्या आप मानेंगे कि राज्य में सफाई कर्मियों के 40 हजार पदों के लिए 18 लाख से ज्यादा आवेदन आए हैं? अकेले कानपुर नगर निगम को 3275 स्थानों के लिए सात लाख अर्जियां प्राप्त हुई हैं. इनमें पांच लाख से ज्यादा ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, एमबीए वगैरह हैं.

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एक और नोट करने लायक तथ्य यह है कि सफाईकर्मी बनने के लिए अब ऊंची जातियों के नौजवान भी बड़ी तादाद में तैयार हैं. वे भी खुलकर आवेदकों की कतार में खड़े हैं. पहले सफाईकर्मी वाल्मिकी और धानुक, मेहतर, डोम आदि जातियों के लोग ही बनते थे. पर अब ब्राहमण, वैश्य तथा राजपूत भी तैयार हैं. यानी नौकरी पाने के लिए उत्तर प्रदेश का नौजवान अब किसी भी स्तर जा रहा है. हालांकि किसी नौकरी को जाति से जोड़ना भी उचित नहीं होगा. उत्तर प्रदेश के युवक के लिए सरकारी नौकरी पाना जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका है.

कैसे मिले नौकरी

दरअसल बीती जुलाई में सरकार ने राज्य के 75 जिलों में कंट्रेक्ट पर सफाईकर्मियों की 40 हजार रिक्तियां निकाली थीं. इन्हें मासिक 15 हजार रुपये का वेतन मिलेगा. सफाई कर्मी के पद के लिए अपना दावा पेश करने वाले अभ्यार्धी की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता आठवीं होनी चाहिए. और सबसे चिंता का विषय यह है कि बेरोजगारी को कम या दूर करने के लिए राज्य सरकार के पास कोई ठोस या दीर्घकालीन योजना नहीं है. यह बात समझ से परे है कि प्रदेश सरकारें बीते सालों में अपने यहां सरकारी या निजी क्षेत्र में नौकरियां को सृजित कर पाने में पिछड़ क्यों गईं? आगामी विधान सभा चुनाव के बाद जो भी सरकार राज्य में सत्तासीन होगी उसे देसी-विदेशी निवेश आकर्षित करने के उपाय तलाश करने ही होंगे. अब उसे हाथ पर हाथ रखकर बैठने की इजाजत नहीं मिल सकती.

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सर्वाधिक ग्रेजुएट यूपी से

उत्तर प्रदेश के एक विद्वान मित्र बता रहे थे कि देश में हर साल सर्वाधिक ग्रेजुएट उत्तर प्रदेश देता है. पर उनके लिए नौकरी कहीं नहीं है. इसलिए उन्हें अपने शहर और राज्य से बाहर धक्के खाने पड़ते हैं. उद्योग और वाणिज्य महासंघ का दावा है कि राज्य सरकार ने 40 हजार करोड़ इन्वेस्ट करने के लिए विभिन्न कंपनियों के साथ हस्ताक्षर किए हैं. बहुत अच्छी बात है. पर यह निवेश जमीन पर कब दिखेगा? इससे कितने रोजगारों के अवसर सृजित होंगे? इन सवालों के उत्तर भी मिलने चाहिए.

अब आप देखिए कि तमिलनाडू देखते-देखते देश का आटो और आई टी सेक्टर का हब बन गया. आज तमिलनाडू में लाखों नौजवानों को इन क्षेत्रों से जुड़ी कंपनियों में रोजगार मिला हुआ है. उत्तर भारत के भी लाखों नौजवानों को तमिलनाडू में रोज़गार मिला हुआ है. राज्य एक सफल औद्योगिक प्रदेश के रूप में विकसित हो चुका है. तमिलनाडू में कॉग्निजेंट, टीसीएस, इन्फोसिस, टीवीएस मोटर्स, हुंदुई मोटर्स, अशोक लेलैंड समेत तमाम प्रमुख आईटी और आटो सेक्टर की कंपनियों की बड़ी-बड़ी इकाइयां हैं. इनमें हजारों करोड़ों रुपये का निवेश हुआ है. अब देश की प्रमुख ऑटो कंपनी महिंद्रा एंड महिंद्रा ने घोषणा की है कि वह भी तमिलनाडु में 2000 करोड़ रुपए का इन्वेंस्टामेंट करेगी.  

उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी के मसले पर चर्चा करते हुए तमिलनाडू का उदाहरण इसलिए देना पड़ रहा है, क्योंकि देश का एक राज्य देश-विदेश से हर साल भारी निवेश आकर्षित कर रहा है और उत्तर प्रदेश में हालात जस के तस हैं. हालांकि उत्तर प्रदेश वासियों में कोई योग्यता और क्षमता में कमी नहीं है. वे मेहनती और ईमानदार भी हैं.

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जिस राज्य ने देश को पांच प्रधानमंत्री दिए वहां के हालात बुरे होना बहुत बड़ा सवाल खड़ा करता है. वहां का नौजवान खून के आंसू पी रहा है. दरअसल, तमिलनाडू जैसे राज्य में निवेश इसलिए होता है, क्योंकि, उधर कंपनियों को उस मात्रा में घूस नहीं खिलानी नहीं पड़ती जितना उत्तरप्रदेश में. क्या उत्तर प्रदेश सरकार इस तरह का दावा कर सकती है कि उनके राज्य में आने वाले निवेशकों को कदम-कदम पर अवरोधों से दो-चार नहीं होना पड़ता? ये बात भी नहीं है कि उत्तर प्रदेश औद्योगिक क्षेत्र में हमेशा पिछली पंक्ति में ही खड़ा था. एक समय में कानपुर देश का प्रमुख कारोबारी शहर था. दिल्ली के करीब मोदीनगर, नॉएडा, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, इलाहाबाद का नैनी, जौनपुर, गोरखपुर, अपने आप में अहम औद्योगिक केन्द्र थे. लेकिन अब ये सब गुजरे दौर की बातें हो गई हैं. अब देखा जाए तो नोएडा और ग्रेटर नोएडा में ही निवेश आ रहा है. अब अगर उत्तर प्रदेश से निवेशक दूर चला गया है तो इसके मूल में बुनियादी सुविधाओं के अभाव से लेकर और लचर कानून व्यवस्था मुख्य कारण हैं. देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद  जहां गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक निजी क्षेत्र का निवेश पाने में सफल रहे, वहीं उत्तर प्रदेश जैसा बड़ा राज्य मात खा गया.

इस संदर्भ में वर्ल्ड बैंक की साल 2015 में प्रकाशित एक रिपोर्ट बड़ी खास है. रिपोर्ट का दावा है कि उत्तर प्रदेश में रोजगार के अवसर तेजी से घट रहे हैं. इस लिहाज से उत्तर प्रदेश सिर्फ बिहार और उड़ीसा से ही बेहतर है. उधर खेती की ओर से भी उत्तर प्रदेश के लोगों का तेज़ी से मोहभंग हुआ है. इसकी सबसे बड़ी वजह खेती से कई बार लागत का भी न निकल पाना है. अखिलेश सरकार के इन 5 सालों में ही लाखों लोग खेती से बाहर हुए हैं. वर्तमान में उत्तर प्रदेश में अब 53 फीसद से भी कम लोग खेती में लगे हैं, जबकि आजादी के समय 90 प्रतिशत के करीब लोग उत्तरप्रदेश में किसी न किसी रूप में खेती पर आश्रित थे. उत्तर प्रदेश में कुछ साल पहले तक भी 78 फीसद लोग खेती से जुड़े थे. ये अब बेहतर जीवन जीने की चाहत में खेती से दूर हो रहे हैं. लेकिन, खेती से दूर जाने पर भी इनका जीवन तो सुधर नहीं रहा है.

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चूंकि, अब उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव होने जा रहे हैं तो हरेक दल को जनता के सामने बताना चाहिए कि उसका बेरोजगारी को दूर करने के लिए क्या कार्यक्रम रहने वाला है? और जनता भी नेताओं से पूछे कि वे अब तक बेरोजगारी खत्म करने के स्तर पर क्यों सफल नहीं हुए?  जनता को उन नेताओं को खारिज करना चाहिए जो उनके सवालों के जवाब ईमानदारी से न दे पायें.

लेखक

आर.के.सिन्हा आर.के.सिन्हा @rksinha.official

लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं.

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