सियासी वारिसों की दो प्रजाति: मांझी और पनीरसेल्वम
हाल के करीब दो दशक की बात करें तो इस परंपरा में दो नए घराने गढ़े गए हैं. एक, 'मनमोहन घराना' और दूसरा, 'केजरीवाल घराना'.
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दक्षिण भारत की राजनीति में ओ. पनीरसेल्वम की अहमियत बनी रहती है. उत्तर भारत की सियासत में जीतन राम मांझी की हैसियत बन चुकी है. इन दोनों नेताओं को एक जैसे देखे जाने की सहज वजह तो इतनी ही है कि दोनों नेताओं को तकरीबन समान परिस्थितियों में मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी गई. लेकिन इन दोनों की भूमिका इतनी अहम है कि इन्हें सियासी वारिसों की दो प्रजाति के रूप में भी देखा जा सकता है.
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| अब ऐसे नहीं चलेगा... |
कानूनी कारणों से एआईएडीएमके नेता जे. जयललिता की गैर मौजूदगी में तमिलनाडु की सत्ता की कमान ओ. पनीरसेल्वम को सौंपी गई तो जीतनराम मांझी को नीतीश कुमार ने निजी वजहों से बिहार का सीएम बना दिया. हालांकि, ऐसी मिसालों में राबड़ी देवी भी अनायास ही शुमार हो जाती हैं, लेकिन व्यावहारिक वजहों से वो इस सांचे में पूरी तरह फिट नहीं हो पातीं.
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| तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा... |
मोटे तौर पर तो पनीरसेल्वम और मांझी के केस एक जैसे लगते हैं, पर बारीकी से गौर किया जाए तो दोनों मामलों में ढेरों फर्क हैं. आइए समझने की कोशिश करते हैं...
1. पनीरसेल्वम ओर मांझी दोनों ही अपने नेताओं के लंबे साये तले लंबे अरसे तक राजनीतिक पाठों का अभ्यास करते रहे. पनीरसेल्वम को पता था कि अम्मा की शख्सियत के आगे वो कहीं नहीं टिकते. मांझी भी शुरुआती महीनों में इसी भाव से काम करते रहे. कोई भी कुछ पूछता तो जवाब मिलता, "पूछ लेते हैं." फिर जो हुक्म मेरे आका के सिद्धांत पर अमल होता रहा.
2. दोनों नेताओं को विरासत में मिले राजनीतिक हालात में भी एक बड़ा फर्क रहा. दक्षिण की राजनीति में नेताओं के प्रति जो अगाध श्रद्धा होती है वो उत्तर भारत में कम होती है. पन्नीरसेल्वम पूरे समय 'तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा...' भाव से सत्ता को ढोते रहे. मांझी को जैसे ही लगा कि वो खुद के खास जाति का होने का फायदा उठा सकते हैं - उन्होंने मोर्चा लेना शुरू कर दिया. ट्रांसफर पोस्टिंग से शुरू हुई मांझी की रणनीति आगे चल कर कुर्सी न छोड़ने का स्टैंड में तब्दील हो गई.
3. वैसे तो पनीरसेल्वम और मांझी दोनों की झोली में सत्ता सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की तरह मिली. पनीरसेल्वम में ने संतोष के सिद्धांत पर काम किया, जबकि मांझी में कुछ ही दिन बाद लालच आ गया. पनीरसेल्वम की सोच रही - एक बार में किस्मत में जितना हो उस पर सब्र करो. मांझी ने इसे अलग तरीके से सोचा - अगर मुर्गी को मार दिया जाए तो एक ही बार में सारे अंडे निकाले जा सकते हैं और लंबा इंतजार तो मूर्ख करते हैं. दोनों ने अपने अपने एक्सपेरिमेंट किए - और नतीजा सबके सामने है.
4. कहा जाता है कि भगवान राम के वनवास के दौरान भरत उनके खड़ाऊं के साथ शासन चलाया. इस मामले में पनीरसेल्वम भी भरत से प्रेरित दिखते हैं. पनीरसेल्वम ने मुख्यमंत्री पद की शपथ तो ले ली, लेकिन कामकाज अपने वित्त मंत्रालय के मिले दफ्तर से ही चलाते रहे. चूंकि खड़ाऊं का दौर नहीं रहा इसलिए उन्होंने अपनी कुर्सी के सामने अम्मा का एक फोटो टांग लिया था. दूसरी तरफ, मांझी ने बगावत का झंडा इस कदर बुलंद किया कि कुर्सी हाथ से निकल जाने के बाद भी मुख्यमंत्री आवास खाली नहीं किया. यहां तक कि नीतीश कुमार को दोबारा कुर्सी हासिल करने के बावजूद - 1, अणे मार्ग के ही एक हिस्से में जनता दरबार लगाना पड़ा.
5. पनीरसेल्वम पूरे वक्त निर्विकार भाव से अपने नेता के प्रति वफादार बने रहे और एक दिन तो उन्हें अपने कैबिनेट सहयोगियों के साथ आंसू बहाते भी देखा गया. मांझी आखिरी दौर तक इस बाद पर अड़े रहे कि वो विधानसभा में अपना बहुमत साबित करेंगे, लेकिन ऐन वक्त पर पलटी मार गए - और विधानसभा के बजाए राजभवन का रुख कर दिया - और इस्तीफा सौंप कर चले आए.
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| ये आंसू मेरे... |
संगीत की तरह सियासत की दुनिया में भी घरानों की सदियों से अहमियत रही है. पारिवारिक घरानों की परंपरा तो यहां सबसे सफल रही है. हालांकि, हाल के करीब दो दशक की बात करें तो इस परंपरा में दो नए घराने गढ़े गए हैं. एक, 'मनमोहन घराना' और दूसरा, 'केजरीवाल घराना'.
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| पहले कुर्सी, फिर बात... |
मनमोहन घराने की खासियत है कि वहां खामोशी के साथ आलाकमान के फरमानों पर अमल करने में यकीन रखने की परंपरा है तो केजरीवाल घराना की किसी भी तरह की रस्मो-रिवाज की परवाह किए बगैर आगे बढ़ने में यकीन रखता है. दोनों में बुनियादी फर्क तो है लेकिन अपने अपने फायदे भी हैं. ऐसा लगता है कि आगे चल कर पनीरसेल्वम 'मनमोहन घराने' तो मांझी 'केजरीवाल घराने' की विरासत संभालने वाले हैं.





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