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Updated: 20 अक्टूबर, 2016 03:07 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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तो बाप-बेटे की सियासत को आखिरकार नजर लग ही गयी. मुलायम सिंह यादव ने जो आशंका जतायी थी – अखिलेश के खत के मजमून को समझें तो इशारा वैसे ही नतीजों की ओर है. मुलायम की लाख कोशिशों के बावजूद समाजवादी पार्टी टूट की कगार पर पहुंच चुकी है.

मुलायम ने कहा था कि अगर शिवपाल रूठे तो पार्टी टूट जाएगी, लेकिन उन्होंने ये नहीं सोचा कि अगर अखिलेश रूठे तो क्या होगा?

लिखे जो खत तुम्हें...

वाकई अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह यादव को चिट्ठी नहीं, तार ही भेजा है. गुजरे जमाने में तार का मतलब इमरजेंसी कॉल होता रहा. तार का जमाना चला गया लेकिन चिट्ठियां अब, जब तब इसी मकसद से लिखी जा रही हैं.

शिवपाल के नाराज होने पर पार्टी टूट जाने की मुलायम की धमकी से बेखौफ, अखिलेश ने भी एलान-ए-जंग कर दिया है – अब वो नहीं रुकने वाले. जिस तरह पांच साल पहले वो साइकिल लेकर निकले थे उसी तरह इस बार अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस रथ लेकर निकलने जा रहे हैं.

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पिछली बार उन्हें बात बात पर बताना पड़ रहा होगा कि वो मुलायम सिंह के बेटे हैं, इस बार उन्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं होगी. भले ही मुलायम बार बार अखिलेश को उनकी औकात बताते रहें कि वो भी समाजवादी पार्टी के राहुल गांधी ही हैं. अखिलेश पहले ही साफ कर चुके हैं कि लोग उन्हें उसी नाम से जानते हैं जो उन्होंने अपने लिए खुद रखा.

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 जब कोई साथ न हो तो अकेला चलना ही बेहतर..

तारीख पर तारीख

अखिलेश यादव की विकास रथयात्रा और मुलायम सिंह यादव की आजमगढ़ रैली बहुत पहले ही तय हो चुकी थी – लेकिन उनकी तारीख टलती रही. अखिलेश कहना चाहते हैं - अब बहुत हो चुका.

अब 3 नवंबर को लखनऊ में अखिलेश यादव की ‘विकास से विजय की ओर’ रैली होगी. पहले ये 3 अक्टूबर को होनी थी – लेकिन पारिवारिक घमासान के चलते तारीख तय नहीं हो पा रही थी. मुलायम की रैली की तारीख तो अब भी घोषित नहीं हुई है. हां, एक तारीख का एलान जरूर हुआ है – जश्न का.

आधा जश्न

5 नवंबर को लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क में समाजवादी पार्टी की स्थापना के 25 साल होने पर बड़ा जलसा होने जा रहा है. जश्न की कामयाबी का जिम्मा मिला है गायत्री प्रजापति को जिन्हें अखिलेश ने कैबिनेट से बर्खास्त कर दिया था – और मुलायम के वापस लेने की घोषणा के बाद मुख्यमंत्री को फिर से शपथ दिलानी पड़ी.

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जश्न की तैयारी तो जोर शोर से हो रही है, लेकिन इसके फीका होने की भी आशंका जताई जाने लगी है. सवाल है कि क्या मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जश्न में शामिल होंगे या सैफई महोत्सव की तरह दूरी बना लेंगे. सैफई में तो बाद में मान भी गये थे – लेकिन तब जब मुलायम ने अपने फैसले वापस लिये. 

क्या अखिलेश को मनाने के लिए मुलायम फिर वैसा कुछ करेंगे?

वैसा कुछ तो वही होगा जो अखिलेश चाहते हैं. जो फैसले अखिलेश की मर्जी के बगैर लिये गये हैं – लेकिन उन फैसलों की वापसी अब तो असंभव जैसी ही है. इन फैसलों में अमर सिंह की एंट्री, कौमी एकता दल का विलय जैसे अहम मसले हैं.

कयास लगाए जा रहे हैं कि अखिलेश यादव जश्न में तो शामिल नहीं ही होने जा रहे. अखिलेश के करीबी इस बात के मजबूत संकेत भी दे रहे हैं.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में इस बारे में समाजवादी पार्टी के एक सीनियर नेता का हवाला है जो अखिलेश का करीबी माना जाता है. नेता का कहना है, “उनका बड़ा ही टाइट शिड्यूल है - और बहुत कम उम्मीद है कि वो पार्टी के रजत जयंती समारोह में हिस्सा ले पाएंगे.”

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 पार्टी का इतिहास तो लिखा जा चुका है

फेस वैल्यू

चुनाव जीतने के लिए सबसे जरूरी क्या है? संगठन पर पकड़ या फेस वैल्यू? व्यावहारिक तौर पर देखें तो दोनों की ही बराबर अहमियत है. लेकिन अगर दोनों में से किसी एक को चुनना हो तब?

समाजवादी पार्टी की फिलहाल सबसे बड़ी मुश्किल यही है. मौजूदा लड़ाई में एक छोर पर शिवपाल खड़े हैं जिनकी संगठन पर मजबूत पकड़ है तो दूसरी छोर पर अखिलेश यादव जो समाजवादी की हल्ला बोल छवि से इतर एक तरक्की पसंद बेदाग चेहरा है.

समाजवादी पार्टी की समझाईश सिर्फ अपने डेडिकेटेड वोट बैंक तक हो सकती है. शिवपाल यादव अपने यादव वोट बैंक को निश्चित तौर पर समझा सकते हैं कि उनका इंटरेस्ट सिर्फ समाजवादी पार्टी की सरकार में भी सुरक्षित है. संभव है शिवपाल, बतौर मुलायम प्रतिनिधि, मुसलमानों की समझाने की कोशिश करें कि वे मायावती या कांग्रेस के बहकावे में नहीं आयें – सूबे में सिर्फ मुलायम सिंह ही उनके हितैषी हैं.

ऐसे में जबकि मायावती ये समझा रही हों कि अपने झगड़े के कारण समाजवादी पार्टी बीजेपी को सत्ता में आने से नहीं रोक सकती – मुस्लिम समुदाय शिवपाल की बातों पर कितना ऐतबार करेगा. ऊपर से जब ये भी साफ हो चुका हो कि अखिलेश यादव अपने लिये अलग राह अख्तियार कर चुके हैं.

शिवपाल से बिलकुल अलग अखिलेश लोगों के सामने अपने काम को रख सकते हैं. उन्हें अपनी बात रखने के लिए सिर्फ जातीय वोट बैंक की ही मजबूरी नहीं है. अखिलेश यूपी की जनता से सीधे संवाद स्थापित करने का संकेत दे चुके हैं. उनका जोर विकास पर है. अखिलेश इतना तो मजबूती से कह ही रहे हैं कि तमाम दबावों के बावजूद कड़े फैसलों में उन्होंने नेताजी की बात तो मानी लेकिन अपने मन की बात भी सुनी.

अखिलेश यादव इस बात को पूरी तरह समझ चुके हैं – और शिवपाल यादव भी काफी हद तक समझ ही रहे होंगे. अब नेताजी को उनके सलाहकार क्या समझाते हैं और वो खुद क्या समझते हैं ये बात अलग है.

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ये बंटवारा नहीं तो और क्या?

दो घर. दो दफ्तर. दो अलग अलग गुट – तो बाकी क्या बचा है? बस नाम देना!

इसी 6 अक्टूबर को अखिलेश यादव ने वो घर भी छोड़ दिया जहां पिता के साथ उनका परिवार रहा करता था – 5, विक्रमादित्य मार्ग. अखिलेश अब कालिदास मार्ग पर बने मुख्यमंत्री के सरकारी आवास में शिफ्ट हो चुके हैं.

इस सरकारी आवास से ही सटा जनेश्वर मिश्र ट्रस्ट का ऑफिस है – जहां अब समाजवादी पार्टी के वे नेता बैठकर काम करते हैं जो अखिलेश यादव के समर्थक हैं. ट्रस्ट के इस दफ्तर का 10 अक्टूबर को अखिलेश यादव ने ही उद्घाटन किया था. अखिलेश ही ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं.

अखिलेश को हटाकर समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष बनाये गये शिवपाल यादव 19, विक्रमादित्य मार्ग वाले समाजवादी पार्टी के आधिकारिक दफ्तर से कामकाज निबटाते हैं.

दोनों गुटों में अब सिर्फ जनेश्वर मिश्र का नाम ही कॉमन कड़ी है. शिवपाल गुट जनेश्वर मिश्र पार्क में जश्न मनाने जा रहा है तो अखिलेश गुट जनेश्वर मिश्र ट्रस्ट के दफ्तर से काम कर रहा है.

घर और दफ्तर छोड़ चुके अखिलेश का ‘एकला चलो रे’ बंटवारा नहीं तो क्या है? कभी अखिलेश यादव ने अपना नाम खुद रखा था – अब नयी पार्टी का नाम रखने की भी नौबत आ चुकी है. है कि नहीं?

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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