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Updated: 28 जून, 2016 11:52 AM
राहुल मिश्र
राहुल मिश्र
  @rmisra
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मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल का मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में अभी कुछ दिनों पहले विलय हुआ और विलय के अगले कुछ (तीन) दिनों में इसे रद्द कर दिया गया. इस विलय की घोषणा करने के लिए शिवपाल सिंह यादव मीडिया के सामने आए. लेकिन घोषणा करते ही प्रदेश की राजनीति में मानो भूचाल सा आ गया. अगले क्षण ‘आजतक’ से बातचीत में अखिलेश यादव ने विलय पर नाराजगी दर्ज करा दी तो शिवपाल ने सफाई में बयान दे दिया कि विलय का फैसला किसी और ने नहीं खुद परिवार और पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने लिया था.

आमतौर पर चुनाव, विलय और गठबंधन जैसे मामले पार्टी के अंदरूनी होते हैं और मीडिया तो इन्हें जानने वालों की कतार में सबसे पीछे खड़ी रहती है. लेकिन मुख्तार अंसारी की पार्टी के विलय से लेकर बाहर का रास्ता दिखाए जाने तक पूरा का पूरा मामला जैसे शेक्सपियर के किसी नाटक की तरह सीधे मीडिया के मंच पर हो रहा था. मीडिया के हवाले से शिवपाल ने जैसे ही फैसले की जिम्मेदारी मुलायम सिंह पर डाली गई तो मुख्यमंत्री अखिलेश ने भी प्रेस वार्ता के दौरान साफ कर दिया कि इस मामले पर फैलसा पार्टी की कार्यकारिणी को करना है, हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि कार्यकारिणी में नेताजी का फैसला सर्वमान्य होगा.

अब इससे पहले की पार्टी कार्यकारिणी कौमी एकता पार्टी के विलय पर अपना फैसला सुनाती, एक अन्य खबर ने अखिलेश यादव को आग बबूला कर दिया. जी, कौमी एकता पार्टी के मुखिया मुख्तार अंसारी को आगरा की जेल से शिफ्ट कर लखनऊ जेल बुला लिया गया जिससे विलय के पश्चात राजनीतिक क्रियाकलाप के लिए उन्हें सहूलियत रहे. इस बीच मुख्यमंत्री अखिलेश ने मुलायम के करीबी और गद्दावर नेता बलराम यादव को कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखा दिया. कारण यह बताया गया कि मुख्तार अंसारी की पार्टी से विलय उन्हीं की कोशिशों का नतीजा था.

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 कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय कराते शिवपाल यादव

एक के बाद एक तेजी से बदलते घटनाक्रम से ऐसा लगने लगा कि मानो समाजवादी पार्टी में परिवार के बीच खुली जंग का ऐलान हो चुका है. लेकिन, जरा गौर कीजिए, यह उत्तर प्रदेश की राजनीति है और यहां जो दिखता है या दिखाया जाता है वास्तव में मामला उसे जुदा होता है.

गौरतलब है कि 2012 में विधानसभा चुनाव से पहले ठीक ऐसा ही प्रकरण पश्चिमी उत्तरप्रदेश के बाहुबलि माफिया डीपी यादव के साथ हुआ. पार्टी ने अखिलेश के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का फैसला लिया और दूसरी तरफ डीपी यादव की राष्ट्रीय परिवर्तन पार्टी का समाजवादी पार्टी में विलय कर लिया गया. अखिलेश की प्रतिक्रिया के मुताबिक उन्हें इस विलय का इल्म नहीं था और वह खबर सुनते ही भड़क उठे. नतीजा, कि आनन-फानन में पार्टी की एक कार्यकारिणी तलब की गई और डीपी यादव को उनकी पार्टी समेत बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. संदेश साफ था कि यह समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह की पार्टी से थोड़ा जुदा है और यहां अखिलेश की बेदाग छवि को पेश किया जाना है. इसका फायदा चुनाव के नतीजों में समाजवादी पार्टी के पक्ष में आया और मुख्यमंत्री के पद पर बैठाने के लिए अखिलेश की दावेदारी पुख्ता हो गई.

बहरहाल, ऐसा कतई नहीं है कि अखिलेश की सरकार बनने के बाद से समाजवादी पार्टी में दागदार और माफिया टैग वाले नेताओं की एंट्री पर किसी तरह का बैन लगा है. बीते चार साल की सरकार के दौरान इलाहाबाद के माफिया अतीक अहमद हो, या जौनपुर से समूचे पूर्वांचल के माफिया अभय सिंह, या फिर गोंडा से माफिया विरेंद्र कुमार सिंह या फिर राजा भैया या विजय मिश्रा सरीखे लोग, सभी का रसूख अपने चरम पर रहा है. यह बात अलग है कि इन सभी को मुख्यमंत्री के साथ पर्दे पर नहीं आने दिया गया और जब किसी माफिया ने मुख्यमंत्री के साथ कैमरे में आने की कोशिश भी की तो खुद अखिलेश ने उन्हें फ्रेम से ढ़केलने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

संदेश एकदम साफ है, कि यह उत्तर प्रदेश है और यहां क्राइम पर्दे के पीछे है. लिहाजा, हुई न ये मुलायम सिंह और शिवपाल सिंह की समाजवादी से थोड़ा अलग अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी जहां कैमरा वही दिखाता है तो दिखाया जाना जरूरी है. वर्ना खुद उत्तर प्रदेश के कारागार मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया से कैसे यह चूक हो गई कि मुख्तार को आगरा से लखनऊ जेल बुलाने के फैसले को वह सीधे मुख्यमंत्री से जोड़ दें और उनपर गाज ही न गिरे. लिहाजा, तय यही है कि चुनाव से ऐन पहले एक बार फिर राज्य में अखिलेश यादव की बेदाग छवि के सहारे समाजवादी पार्टी ने जीत का परचम लहराने की कोशिश की है और ऐसे में कोई कौमी एकता दल हो या कोई परिवर्तन पार्टी, यहां राजनीति में उनका कद प्यादे से अधिक नहीं है.

लेखक

राहुल मिश्र राहुल मिश्र @rmisra

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्‍टेंट एड‍िटर हैं

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