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Updated: 21 जून, 2016 05:31 PM
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पहले तो उनकी उम्र को लेकर ही उलझन रही, फिर सेहत को लेकर. पर, अब जबकि शीला दीक्षित सामने आकर कह रही हैं - मैं तैयार हूं, जो भी आलाकमान का आदेश हो, यूपी के कांग्रेसी उन्हें खारिज करने में जुट गये हैं.

तर्क दे रहे हैं डेढ़ दशक पहले के उनके डेढ़ दशक के राजनीतिक कॅरिअर का, लेकिन वे भूल रहे हैं शीला दीक्षित अब भी गांधी परिवार के कितनी करीब हैं.

शीला का यूपी कनेक्शन

कपूरथला में पैदा हुईं शीला दीक्षित का यूपी कनेक्शन तब जुड़ा जब वो कांग्रेस नेता उमा शंकर दीक्षित की बहू बनीं. राजनीति से पहले वो समाजसेवा में सक्रिय रहीं, खासकर तब जब उनके आईएएस पति विनोद कुमार दीक्षित आगरा के डीएम रहे.

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1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के प्रति उपजी सहानुभूति लहर में तो वो कन्नौज से जीत गईं, लेकिन उसके बाद लगातार तीन चुनावों में उन्हें हार का मुहं देखना पड़ा.

अब यूपी के कांग्रेस नेता इसी बात को आधार बना कर उनकी उम्मीदवारी का विरोध कर रहे हैं. विरोध करने वाले शायद इस बात को भूल जा रहे हैं कि शीला दीक्षित गांधी परिवार के कितनी करीब हैं.

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"मैं तो तैयार हूं..."

आखिरी बार 1996 में चुनाव हारने के बावजूद वो राजीव गांधी के शासन में पीएमओ में मंत्री बनीं. हारने को तो शीला दीक्षित 1998 में दिल्ली में लोक सभा का चुनाव भी हार गई थीं, फिर भी विधानसभा चुनावों की कमान उन्हीं को सौंपी गई. इस जिम्मेदारी को भी शीला दीक्षित ने बखूबी निभाया. प्याज की कीमतों में उलझी बीजेपी सरकार से उन्होंने एक बार सत्ता झटक ली तो 15 साल तक कब्जा जमाए रखा. 2013 में अरविंद केजरीवाल से बुरी तरह हारने के बाद वो कुछ दिन हाशिए पर जरूर रहीं - मगर, कुछ दिन बाद जब मौका आया तो उन्हें केरल का राज्यपाल बना कर भेज दिया गया. 2014 में कांग्रेस की हार के खामियाजा के रूप में उन्हें भी इस्तीफा देना पड़ा.

फिलहाल न तो दिल्ली में कांग्रेस की हालत ठीक है, न दिल्ली कांग्रेस में शीला दीक्षित की. शीला के बेटे संदीप भी खुद खड़े रहने के लिए संघर्ष ही कर रहे हैं.

ब्राह्मण वोट कितना निर्णायक

कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर, शीला दीक्षित को यूपी में कांग्रेस का चेहरा बनाना चाहते हैं. अब सवाल ये है कि क्या शीला दीक्षित को यूपी में उतार कर कांग्रेस को वाकई कोई फायदा होगा?

प्रशांत किशोर ने रिसर्च में ये सही पाया है कि ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम कभी कांग्रेस के कोर वोटर हुआ करते थे. जब से दलित मायावती के साथ हो गए और मुस्लिम मुलायम सिंह यादव की ओर खिसक गये तो कांग्रेस के सत्ता में लौटने की सारी संभावनाएं ही खत्म हो गईं.

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प्रशांत किशोर अपनी जगह बिलकुल सही हैं, लेकिन एक दौर रहा जब ब्राह्मण चेहरे के तौर पर नारायण दत्त तिवारी, तो दलित के रूप में महावीर प्रसाद और मुस्लिम फेस मोहसिना किदवई कांग्रेस को असरदार बनाते थे.

ऐसी ही कोशिश इस बार भी हो रही नजर आती है जब मुस्लिम फेस गुलाम नबी आजाद को यूपी का प्रभारी बनाया गया है और ब्राह्मण चेहरा शीला दीक्षित को उतारने की तैयारी है. मायावती से दलित वोट झटकने के लिए भी तैयारी निश्चित हुई होगी जिसका नाम सामने आना बाकी है. वैसे कांग्रेस के पास दलितों की आवाज उठाने वाले पीएल पुनिया जरूर है.

बड़ा सवाल ये है कि क्या ब्राह्मण वोट यूपी में निर्णायक हो सकता है. निश्चित तौर पर 10 फीसदी ब्राह्मण वोट बैंक काफी अहम है, लेकिन क्या वो उतना ही संगठित है जितना 10 फीसदी यादव वोटर, या करीब 19 फीसदी मुस्लिम वोटर या करीब 20 फीसदी दलित वोटर?

ब्राह्मण वोट का निर्णायक रूप अख्तियार कर पाना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि न तो मुस्लिमों की तरह उनके सामने ये तर्क चलता है कि वोट उसे देना है जो बीजेपी को रोक सके. न तो दलितों की तरह उनकी निष्ठा मायावती की तरह किसी एक नेता में है - और न यादवों की तरह वे मुलायम सिंह यादव जैसे किसी नेता के पीछे आंख मूंद कर खड़े हो सकते हैं. इसकी बड़ी वजह ये है कि ब्राह्मण संगठित होकर किसी एक पार्टी या नेता के नाम पर वोट नहीं देने वाला. कुछ ब्राहमण अयोध्या आंदोलन के बाद कांग्रेस से बीजेपी की ओर जरूर शिफ्ट हो गये हैं. जब किसी ब्राह्मण बहुल इलाके से कोई ब्राह्मण उम्मीदवार बीएसपी का टिकट ले लेता है तो भी उनके सामने वो एक विकल्प भर होता है. उसके बावजूद वो कांग्रेस या बीजेपी में से किसी को एक को चुनता है. बीएसपी के ब्राह्मण उम्मीदवार की जीत में निर्णायक भूमिका हमेशा मायावती के डेडिकेटेड दलित वोट बैंक की होती है.

अगर शीला दीक्षित का नाम यूपी में कांग्रेस फेस के तौर पर चर्चा में नहीं आता क्या टैंकर घोटाले में उन्हें शुमार किया जाता? इसकी संभावना न के बराबर ही है. बाकियों की जो भी राय हो - शीला दीक्षित तो ऐसा ही मानती हैं. जो अरविंद केजरीवाल 2013 में बात बात पर शीला दीक्षित का माखौल उड़ाते फिरते थे चुनाव बाद उन्होंने अपना टारगेट बदल कर केंद्र की मोदी सरकार की ओर कर लिया. बाद में वो कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो कभी उप राज्यपाल नजीब जंग को ही निशाना बनाते रहे हैं.

1998 के बाद शीला दीक्षित के राजनीतिक कॅरिअर में एक बार फिर वैसा ही टर्निंग प्वाइंट आया है जब उनके सामने दो विकल्प थे. तब उन्हें यूपी या दिल्ली में से किसी एक की कमान चुनने का ऑप्शन दिया गया और उन्होंने दिल्ली को चुना. इस बार उनके सामने यूपी है. उन्हें फिर से मेनस्ट्रीम में लाने वाले उनके नाम के प्रस्तावक प्रशांत किशोर के साथ उनकी चर्चा हो चुकी है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी वो मिल ही चुकी हैं - और अब उन्हें औपचारिक घोषणा का इंतजार है. कांग्रेस में बने रह कर किसी विरोध का कोई मतलब नहीं होता, बशर्ते उसकी हैसियत कैप्टन अमरिंदर सिंह या हिमंत बिस्वा सरमा जैसी न हो.

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