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Updated: 11 मई, 2017 05:10 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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हफ्ते भर हुए जब सेना ने जम्मू कश्मीर के शोपियां में सबसे बड़ा सर्च ऑपरेशन शुरू किया था - 15 साल बाद ऐसा कोई ऑपरेशन चलाया गया. ऑपरेशन के दौरान भी सेना की पैट्रोल पार्टी पर हमला और पत्थर फेंके गये जिसमें दो जवान घायल हुए जबकि एक आम नागरिक की मौत हो गयी. कश्मीर के उसी शोपियां इलाके में 10 मई की सुबह लेफ्टिनेंट उमर फैयाज को अगवा कर उनकी हत्या कर दी गयी. पोस्टमॉर्टम में उनके शरीर पर कई निशान मिले हैं जिनसे पता चलता है कि उन्हें बेहद करीब से सिर, पेट और सीने में गोलियां मारी गईं. उमर ने पिछले दिसंबर में ही आर्मी की राजपुताना राइफल्स ज्वाइन की थी - और पहली बार छुट्टी पर घर लौटे थे.

आर्मी पोस्ट और पैट्रोल पार्टियों पर लगातार हमलों के बाद एक फौजी अफसर को अगवा कर हत्या कर देना - दहशतगर्दी के इतने बरसों में अकेली घटना है. आतंकवादियों के इस दुस्साहस को आखिर किस रूप में देखा जाना चाहिये?

26 साल में पहला केस

कश्मीर में सेना पर हो रहे हमलों के डर से उमर फैयाज के माता पिता ही घर आने के लिए मना कर देते रहे, मगर उमर अपनी ममेरी बहन को मना नहीं कर पाये. माता पिता को शायद खतरे की आशंका रहती होगी. ट्रेनिंग के दौरान तो वो कई बार घर आये थे लेकिन लंबी छुट्टी लेकर पहली बार घर आये थे.

उमर की बहन ने फोन पर कहा था कि शादी मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा दिन है - और तुम्हें आना ही होगा. शादी समारोह के दौरान 9 मई को रात आठ बजे नौ नकाबपोश आतंकवादी पहुंचे और उमर को साथ चलने को कहा. साथ ही, आतंकियों ने उमर के रिश्तेदारों को धमकी दी कि इसकी जानकारी पुलिस और सेना को न दी जाये.

umer fayazआतंकवादियों ने आर्मी ज्वाइन न करने की धमकी दी थी...

ताज्जुब की बात है कि उमर सेना में अफसर थे फिर भी घरवालों ने पुलिस या सेना को इस बारे में नहीं बताया. माना जा रहा है कि रिश्तेदारों को लगा कि आतंकवादी उमर को छोड़ देंगे. कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्हें छुड़ाने का कोई और तरीका अख्तियार किया गया. एक सवाल ये भी है कि क्या इलाके के लोग उन आतंकवादियों को जानते थे?

पता चला है कि अलगाववादियों ने उमर को धमकाते हुए सेना ज्वाइन करने से मना भी किया था, लेकिन उमर ने कभी इस बात की परवाह नहीं की. इलाके के लोग इस वक्त बेहद गुस्से में हैं और सेना के सीनियर अफसरों ने उमर के परिवार को आश्वस्त किया है कि हत्यारों को हर हाल में सजा मिल कर रहेगी.

पोस्टमॉर्मट करने वाले डॉक्टरों की राय रही कि उमर आखिरी दम तक आतंकवादियों से लड़ते रहे जबकि वो निहत्थे थे. उनके शरीर पर चोट के 11 निशान पाये गये. आतंकियों ने इस कदर टॉर्चर किया कि जबड़ा और टखने तोड़ दिये और दांत निकाल लिये.

umer fayazपहली छुट्टी जो आखिरी साबित हुई...

26 साल में ये पहला मौका है जब किसी फौजी अफसर को अगवा कर हत्या कर दी गयी हो. उमर को शादी समारोह से अगवा किया गया जबकि 1991 में बड़गाम में एक लेफ्टिनेंट कर्नल और उनके भतीजे को उस वक्त अगवा किया गया जब वो एक शवयात्रा में शामिल थे - बाद में उनकी हत्या कर दी गयी.

क्या सिस्टम फेल होने लगा है

जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने आगाह किया है कि कश्मीर भारत के हाथ से निकल रहा है. श्रीनगर संसदीय सीट के लिए उपचुनाव के दौरान तो फारूक अब्दुल्ला मुख्यधारा के किसी राजनीतिज्ञ की तरह नहीं बल्कि किसी अलगाववादी की भाषा बोल रहे थे. वो चुनाव जीते भी - लेकिन वो चुनाव जिसमें महज 7.14 फीसदी वोट पड़े थे.

मौजूदा मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती और उनके पूर्ववर्ती उमर अब्दुल्ला दोनों कम से कम इस बात पर सहमत हैं कि सूबे के सभी पक्षों से बात होनी चाहिये. सभी पक्षों से मतलब अलगाववादी नेताओं से है - और फिर बात शुरू होने पर पाकिस्तान भी एक पक्ष के तौर पर शुमार कर लिया जाता है. महबूबा हाल ही में दिल्ली में थीं जहां उन्होंने गृह मंत्री राजनाथ सिंह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की. महबूबा की ये मुलाकातें कई मायनों में अहम रही क्योंकि घाटी के बेकाबू होते हालात के चलते राज्य में गवर्नर रूल के कयास शुरू हो चुके थे.

प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद महबूबा ने केंद्र से अपील की कि वो घाटी के सभी पक्षों से बातचीत कर कोई रास्ता निकाले. हालांकि, खबर आई कि मुलाकात के दौरान ही महबूबा को ये अहसास करा दिया गया था कि मौजूदा हालात में बातचीत का सवाल ही नहीं उठता. 2014 के विधानसभा चुनाव में वोटर टर्नआउट 65.23 फीसदी दर्ज किया गया था - और अप्रैल 2017 में श्रीनगर उपचुनाव में ये 7.14 पर सिमट कर रह गया. क्या मुख्यधारा की राजनीति के लिए ये बड़े खतरे का संकेत नहीं है?

अब सवाल ये है कि आखिर हालात इतने खराब क्यों हो गये? विधानसभा चुनाव के बाद जब पीडीपी और बीजेपी ने गठबंधन का फैसला किया तो उस पर सवाल उठे. लेकिन सवाल के साथ इस बेमेले गठबंधन की तारीफ भी हुई. अब इस गठबंधन पर खतरे के बादल मंडराते देखे जा रहे हैं. माना जा रहा है कि महबूबा के दिल्ली दौरे के बाद उनके यकीन दिलाने पर तीन महीने के मोहलत मिली है.

आखिर गठबंधन पर मंडराते खतरे को किस रूप में देखा जाना चाहिये? क्या इसका सीधा असर राज्य की सरकारी मशीनरी पर पड़ा है? कुछ भी होता है तो पत्थरबाजी की बात सामने आती है. निश्चित रूप से इसका टारगेट सेना और सुरक्षा बल होते हैं, लेकिन हर बार वजह एक ही नहीं होती.

अभी लड़कियों की पत्थरबाजी की खासी चर्चा रही और मालूम हुआ कि उसकी अलग वजह रही. दूसरी घटनाओं को क्या कहें उमर फैयाज के अंतिम संस्कार के वक्त भी पत्थरबाजी की खबर आई है. एकबारगी तो ऐसा लगता है कि ये भी घाटी की रोजमर्रा की पत्थरबाजी की घटनाओं की तरह है, लेकिन हकीकत ये है कि लोग उमर के हत्यारों को सजा देने की मांग कर रहे थे. उसी दौरान किसी फौजी से फायरिंग हो गयी और गुस्साये लोगों ने सेना के खिलाफ हाथों में पत्थर उठा लिये.

पुरानी बातों को छोड़ भी दें तो, जो लोग 10 महीने से कर्फ्यू और हिंसा झेल रहे हैं. जो मां-बाप अपने बच्चों के घर से निकलने से लेकर उनके लौटने तक उनकी सलामती की दुआ और खौफ के साये में इंतजार करते हैं. आखिर वे कब तक हालात के सुधरने का इंतजार करें?

कश्मीर में ऐसे मां बाप भी हैं जिनकी परवरिश से बुरहान वानी बनते हैं जिसे हिज्बुल मुजाहिद्दीन आकर्षित करता है - और दूसरी तरफ ऐसे भी जिनके संस्कार से नबील अहमद वानी बीएसएफ में जाते हैं. नबील ने पिछले साल बॉर्डर सिक्युरिटी फोर्स के असिस्टेंट कमांडेंट (वर्क्स) एग्जाम में ऑल इंडिया फर्स्ट रैंक हासिल किया था.

लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की हत्या से साफ है कि सरकारी मशीनरी ठीक से नहीं चल पा रही. कैमरे से लेकर टीवी स्टूडियो तक में कश्मीर के हालात पर चर्चा हो रही है और सूबे की सरकारी मशीनरी पर ध्यान नहीं दिया जा रहा. जरूरत तो ये है कि कश्मीर के हालात की चर्चा नहीं, अब सिस्टम के फेल होने पर बात होनी चाहिये.

जम्मू कश्मीर के संदर्भ में जाने माने पत्रकार शेखर गुप्ता ने बड़ी ही सटीक टिप्पणी की है, "कश्मीर हमारे नियंत्रण में तो है लेकिन भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक तौर पर हम इसे गंवाते जा रहे हैं."

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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