बीजेपी यदि मांझी को सीएम उम्मीदवार बना दे तो...
संकेत तो पहले से ही साफ थे. बस समझने की जरूरत थी. जीतन राम मांझी तो डंका पीट पीट कर कह रहे थे कि वो बीजेपी के साथ ही हाथ मिलाने वाले हैं.
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संकेत तो पहले से ही साफ थे. बस समझने की जरूरत थी. जीतन राम मांझी तो डंका पीट पीट कर कह रहे थे कि वो बीजेपी के साथ ही हाथ मिलाने वाले हैं. हालात तो मजबूर कर ही रहे थे, विश्वास मत के अपने बुरे दौर में बीजेपी के साथ देने के अहसान का बदला भी उन्हें चुकाना ही था.
ये रिश्ता तो होना ही थालालू ने एक बार मांझी की तरफ चारा भी फेंका. हालांकि, ये चाल नीतीश पर दबाव बनाने की ज्यादा और मांझी को साथ लेने की कम नजर आई. इस चाल का लालू को सबसे बड़ा घाटा ये हुआ कि नीतीश ने कांग्रेस से परोक्ष दबाव डलवाकर अपनी बात मनवा ली. खुद लालू की मानें तो उन्हें इसके लिए जहर तक पीना पड़ा.लालू के ऑफर पर भी मांझी ने साफ कर दिया था कि उन्हें रिश्ता मंजूर है बशर्ते, लालू, नीतीश का साथ छोड़ दें. फिर मांझी ने खुद ही कह दिया कि न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेंगी.पटना और दिल्ली में बयानबाजी के पीछे मांझी की मोदी और अमित शाह के अलावा दूसरे बीजेपी नेताओं से लगातार बात होती रही. और अब जाकर इसका औपचारिक एलान कर दिया. शायद दोनों को लालू-नीतीश के गठबंधन का इंतजार रहा.
मांझी बोले तो - फायदा ही फायदाआम आदमी पार्टी नेता कुमार विश्वास ने अपने अंदाज में बीजेपी को बधाई भी दी है: "बधाई भक्तों. बिहार में जीतनराम "बेदी" हुए है दिल्ली दोहराने की अग्रिम बधाई." ये तो साफ है जीतनराम मांझी के साथ आने का फ़ायदा एनडीए को निश्चित रूप से मिलेगा. लगे हाथ नीतीश-लालू गंठबंधन को स्वत: नुकसान होगा. जिस मात्रा में मांझी एनडीए को फायदा पहुंचाएंगे, उतनी ही मात्रा में नीतीश कैंप को नुकसान भी पहुंचाएंगे. इस तरह बीजेपी को इसका डबल फायदा मिलेगा.नीतीश के लिए मांझी कितने महत्वपूर्ण थे इसे वो शायद ही कभी भुला पाएं. भुलाने को तो वो एनडीए में बीजेपी का साथ भी कभी नहीं भुला पाएंगे. जहर तो नीतीश ने भी पिया है, बस सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं किया है. मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के कुछ ही दिन बाद मांझी को अचानक अपनी हैसियत समझ में आ गई. किस्मत से उन्हें कुछ सलाहकार भी मिल गए - और तबसे उत्तरोत्तर मांझी आगे बढ़ते गए. मांझी ने तभी ये संकेत भी दे दिए थे कि विधानसभा चुनाव में उनकी महती भूमिका होगी. जो उन्हें नजरअंदाज करने की कोशिश करेगा नुकसान उठाएगा. जो हाथ मिलाएगा वो फायदे में रहेगा.
नीतीश के दोबारा कुर्सी पर काबिज होने से पहले तक मांझी को हर किसी ने अपने तरीके से इस्तेमाल किया. बीजेपी और लालू ने ही नहीं तब उनके सपोर्ट में खड़े विधायकों ने भी मंत्री बनने की आस में उनका पूरा इस्तेमाल किया. जैसे ही बयार बदली ज्यादातर पलटी मार गए और नीतीश की लाइन में खड़े हो गए. तब आरजेडी में भी मांझी के एक जबरदस्त प्रशंसक थे, जिन्हें पार्टी की विरासत का मुद्दा उठने पर बाहर कर दिया गया. वो हैं - राजेश रंजन यानी पप्पू यादव. पप्पू ने जब अपना अलग मोर्चा बनाया तब भी मांझी और कांग्रेस के साथ नया गठबंधन खड़ा करने की सलाह दी थी. बीजेपी ने मांझी को तो साथ ले लिया है. रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा पहले से ही एनडीए का हिस्सा हैं. अब अगर पप्पू को भी साध लिया जाता है तो बीजेपी की दावेदारी मजबूत हो जाएगी.
मांझी, तुरूप का पत्ता तो नहीं मांझी बिहार में दलितों के सबसे बड़े हमदर्द और नेता बन कर उभरे हैं. मांझी चुनावों में मतदाताओं को घूम घूम कर समझाएंगे कि किस तरह उन्होंने छोटे से कार्यकाल में दलितों के हित के लिए तमाम फैसले लिए - और नीतीश ने आते ही उन्हें खत्म कर दिया. नीतीश के विरोधियों के लिए मांझी एक मजबूत मोहरा रहे हैं. नीतीश के कुर्सी वापस पा लेने के बाद भी आरजेडी की ओर से सलाह दी गई कि मांझी को डिप्टी सीएम बनाना चाहिए. मांझी भी हर पार्टी के सामने अब तक एक ही शर्त रखते हैं कि जो उन्हें मुख्यमंत्री बनाएगा उसका साथ देंगे. ये ऑफर लालू के लिए भी था और नीतीश के लिए भी, लेकिन बीजेपी के लिए उन्होंने सार्वजनिक तौर पर ऐसी बात कभी नहीं कही. क्या पता अंदर ही अंदर कोई बड़ा आश्वासन मिला हो. वैसे भी बीजेपी ने अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है. मुमकिन है कुमार विश्वास का ट्वीट आगे चल कर मिसफिट न रह जाए. सियासत तो ऊंट की तरह करवट बदलती ही रहती है. आप क्या कहेंगे, बीजेपी यदि मांझी को सीएम उम्मीदवार बना दे तो.

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