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Updated: 09 जून, 2016 04:41 PM
राकेश उपाध्याय
राकेश उपाध्याय
  @rakesh.upadhyay.1840
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महज तीन साल पहले की बात है. बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव वरुण गांधी में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को अटल बिहारी वाजपेयी की छवि दिखाई दे रही थी. बरेली की स्वाभिमान रैली में दिया गया राजनाथ सिंह का बयान आज भी रुहेलखंड के लोगों के जेहन में ताजा है लेकिन आज की बीजेपी क्या राजनाथ के इस बयान से सहमत है?

ये सवाल इसलिए हैं क्योंकि यूपी चुनाव के एन वक्त पर बीजेपी वरुण गांधी को चेहरा बनाने से परहेज कर रही है. और बात अब परहेज की हदों से आगे जाकर हिदायत की सूरत में बदल चुकी है. बीजेपी नेतृत्व और वरुण गांधी के बीच रस्साकशी के पीछे उनके इलाहाबाद दौरे को वजह बताया गया है. दरअसल मई महीने की पहली तारीख को वरुण गांधी इलाहाबाद में किसानों से रुबरु थे तो उनके कार्यक्रम से बीजेपी की जिला इकाई ने पल्ला झाड़ लिया था. पार्टी की ओर से कार्यकर्ताओं को चेतावनी भी दी गई कि वरुण गांधी का कार्यक्रम बीजेपी का कार्यक्रम नहीं है. ऐसे में वरुण गांधी के जोरदार स्वागत में उन्हें जब सीएम प्रोजेक्ट करने की मांग उठी और वरुण गांधी ब्रिगेड के नेताओं की ओर से चस्पा पोस्टर में केंद्रीय मंत्री स्मृति इरानी को बीमार तक घोषित कर दिया गया तो बीजेपी आलाकमान ने वरुण गांधी को अनुशासन की लक्ष्मण रेखा समझाना तय कर लिया.

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नरेंद्र मोदी और अमित शाह

सूत्र बताते हैं कि बीजेपी के नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने पूरे मामले की रिपोर्ट खुद आलाकमान को सौंपी. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने वरुण गांधी से पूरे मामले पर बातचीत की जिसमें वरुण गांधी की ओर से जवाब भिजवाया गया कि वह प्रदेश में किसानों के दुख और दर्द में आगे भी शरीक होते रहेंगे. और इसी जवाब के बाद बीजेपी नेतृत्व ने उन्हें अपने संसदीय क्षेत्र सुल्तानपुर तक ही सीमित रखने का फरमान सुना दिया.

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सूत्रों का कहना है कि मई महीने के आखिरी सप्ताह में यूपी के प्रभारी महासचिव ओम माथुर, संगठन महामंत्री रामलाल और यूपी के प्रदेश संगठन मंत्री सुनील बंसल ने वरुण गांधी से मुलाकात की और उन्हें पार्टी नेतृत्व की इस मंशा से अवगत करा दिया कि ‘वह बगैर बीजेपी आलाकमान को सूचित किए यूपी का दौरा नहीं करें.’ पार्टी सूत्रों के मुताबिक, उन्हें यह भी बताया गया है कि ‘बीजेपी के सांसदों ने बगैर सूचना के उनके दौरे पर आपत्ति उठाई है. बगैर सूचना और नियोजित कार्यक्रम के उनका दौरा निचले स्तर पर संगठन के कार्यकर्ताओं को भी एन चुनावी वक्त में दिग्भ्रमित कर रहा है.’

बीजेपी को वरुण गांधी को नसीहत देने की जरुरत क्यों पड़ी और वरुण ने क्यों बगैर बीजेपी आलाकमान को बताए यूपी का दौरा करना शुरु किया? जाहिर तौर पर सवाल यूपी के सीएम पद की दावेदारी और उस नेतृत्व की चाहत से जुड़ा है, जिसमें निचले स्तर का बीजेपी के युवा कार्यकर्ता पर वरुण गांधी के ओजस्वी भाषणों का असर है जिसे कभी राजनाथ सिंह ने सराहा तो कभी बुजुर्ग और कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जिसे अहमियत दी. यूपी के राजनीतिक मामलों के जानकार प्रो. ओपी सिंह कहते हैं कि, ‘2014 में नरेंद्र मोदी की आंधी में जैसे विपक्ष के सियासत एक कोने में सिमट गई तो बीजेपी के भीतर वरुण गांधी का आभामंडल भी उनके बर्ताव और मिजाज से सवालों में आ गया. बीजेपी के केंद्र में अचानक बदले राजनीतिक समीकरण के साथ वरुण असहज महसूस करने लगे. आडवाणी को दरकिनार कर मोदी को पीएम उम्मीदवार घोषित करते ही वरुण का तालमेल भी बिगड़ने लगा. प.बंगाल में बीजेपी की चुनावी रणनीति के वक्त वरुण का रवैया उखड़ा उखड़ा रहा. कोलकाता में नरेंद्र मोदी की रैली के वक्त जहां हर नेता ने नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व की तारीफ की तो प्रभारी महासचिव रहे वरुण गांधी ने उनकी खुली प्रशंसा से परहेज किया. मोदी की कोलकाता रैली को ‘ठीकठाक’ बोलकर उन्होंने जता दिया कि मोदी के नेतृत्व को लेकर उनके मन में कितना सम्मान है.’ यही वजह है कि 2014 में जैसे ही केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सरकार बनी और कुछ ही दिनों बाद राजनाथ सिंह की जगह अध्यक्ष पद की कमान अमित शाह के हाथों में आई, वरुण गांधी को अपने बयान की पहली कीमत चुकानी पड़ी. अमित शाह की नवगठित टीम में उन्हें कोई जगह नहीं मिली, महासचिव पद से उन्हें रुखसत कर दिया गया और अब जबकि इलाहाबाद में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक होने जा रही है, इलाहाबाद के वरुण गांधी के दौरे ने ही उन्हें फिर से बीजेपी आलाकमान के निशाने पर ला दिया है.

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वरुण गांधी

यूपी में बीजेपी की सीएम उम्मीदवारी का सवाल जनता और कार्यकर्ता सभी को मथ रहा है. वरुण गांधी की लोकप्रियता को आखिर बीजेपी क्यों भुनाने से हिचक रही है, ये सवाल भी अहम है. बीजेपी के यूपी से जुड़े युवा नेता मनीष शुक्ला कहते हैं कि ‘वरुण गांधी में आकर्षण है, वो सोशल मीडिया पर बीजेपी के सबसे लोकप्रिय नेताओं में गिने जाते हैं लेकिन संगठन के समर्पित कार्यकर्ताओँ के साथ उनका मेलजोल वैसा क्यों नहीं है, इसका जवाब वरुण गांधी को ही खोजना होगा.’

यानी अगर यूपी बीजेपी का नेतृत्व करना है तो पहले समर्पित कार्यकर्ताओं के भरोसे पर खरा उतरना होगा. बीजेपी में समर्पित कार्यकर्ताओं का मतलब संगठन मंत्रियों की उस टीम से भी लगाया जाता है जो काम भारतीय जनता पार्टी का करती है लेकिन जिनकी योजना आरएसएस के हाथ में होती है. यूपी में वरुण गांधी की सीएम उम्मीदवारी समेत उनके नेतृत्व को लेकर जहां वरुण यूथ ब्रिगेड ने उत्साह भरने में कसर नहीं छोड़ी तो संगठन मंत्रियों की रायशुमारी में बीजेपी कार्यकर्ताओं के बड़े वर्ग ने ही वरुण गांधी के चेहरे पर सवाल भी खड़े किए. यूपी बीजेपी के क्षेत्रीय अध्यक्ष देवेंद्र सिंह बलौस अंदाज में कहते हैं कि वरुण गांधी बीजेपी में गांधी परिवार का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि बीजेपी सियासत में संघ परिवार की विचारधारा के गुणगान के लिए स्थापित हुई है. दोनों के डीएनए में मौलिक अंतर है. वरुण यूपी को अपने परिवार की रियासत मानकर चलते हैं, रियासत की इसी सियासत ने उन्हें बीजेपी को गांव गांव तक स्थापित करने में जीवन कुर्बान करने वाले हजारों कार्यकर्ताओं से दूर किया. वो बीजेपी के कार्यकर्ताओं में अगर इतने ही लोकप्रिय हैं तो उन्हें वरुण गांधी यूथ ब्रिगेड की जरुरत क्यों पड़ गई?’

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सोशल मीडिया पर वरुण गांधी यूथ ब्रिगेड से जुड़े लोग इसका जवाब देते हैं कि ‘जब नरेंद्र मोदी आर्मी बन सकती है, पीएम उम्मीदवारी हासिल करने से पहले मोदी ब्रिगेड अस्तित्व में आ सकती है, सोशल मीडिया पर मोदी के लोग जमकर उनकी पैरवी अलग अलग ब्रांड के जरिए कर सकते हैं तो वरुण गांधी की पैरवी अगर यूपी के युवा कर रहे हैं तो इसमें बीजेपी के बड़े नताओं का क्या ऐतराज हो सकता है, आखिर यूपी की जंग बीजेपी की जीतनी है या नहीं?’

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वरुण गांधी के समर्थकों ने पिछले दिनों इलाहाबाद में एक ट्रेन रोककर अपने नेता को मुख्‍यमंत्री का उम्‍मीदवार घोषित करने की मांग की थी.

वरुण समर्थक सोशल मीडिया पर सर्वेक्षणों का हवाला दे रहे हैं. यूपी में आखिर कौन सा नेता है जो अखिलेश यादव और मायावती से सीधी टक्कर ले सकता है, किसका प्रभाव यूपी के पूर्वांचल से पश्चिमी यूपी और रुहेलखंड तक एक जैसा दिखाई देता है? कौन नेता है जो कांग्रेस के भी परंपरागत वोटों को बीजेपी के साथ खड़ा करता आया है? समर्थक वरुण गांधी की चुनावी तैयारियों का भी ब्यौरा देते हैं. वरुण को यूपी की एक-एक विधानसभा क्षेत्र का समीकरण मालूम है, यहां तक कि उन्हें ये भी मालूम है कि किस सीट पर कौन सबसे योग्य उम्मीदवार हो सकता है? बावजूद इसके बीजेपी अगर उन्हें सीएम उम्मीदवार घोषित नहीं कर रही है तो क्या वजह है?

तो सवाल वही है जो 2013 में वरुण गांधी को महासचिव बनाए जाने पर भी उठे थे. बीजेपी के फायर ब्रांड नेता विनय कटियार ने तब पूछा था कि आखिर वरुण को क्यों महासचिव बनाया? क्या गांधी नाम की वजह से? यानी गांधी नाम की विरासत जो वरुण की ताकत है, अब बीजेपी के बदले माहौल में वही कमजोरी का सबब है. यूपी बीजेपी के नेताओं का दबी जुबान ये सवाल पहले से कायम है कि आखिर राहुल गांधी और सोनिया गांधी पर वरुण गांधी कभी कोई सवाल क्यों नहीं दागते? देवेंद्र सिंह कहते हैं कि वरुण गांधी भाई और ताई से मोह में फंसे नेता हैं. वो खानदान की सियासत को गौरव मानते हैं, यही उनकी सबसे बड़ी कमी है जिसे बीजेपी कार्यकर्ता मंजूर नहीं करते.

बीजेपी में वरुण गांधी का मामला खानदानी सियासत के वंशवृक्ष पर आकर बार-बार लटक जाता है. इधर बीजेपी आलाकमान ने तय कर लिया है कि बीजेपी में अब वंशवादी सियासत और ज्यादा नहीं पले बढ़ेगी. बीजेपी के एक राष्ट्रीय महासचिव कहते हैं कि ‘अपवाद छोड़ दें तो अब बीजेपी में वंशवाद के लिए जगह नहीं है. अब एक परिवार से एक ही नेता पद पर रहेगा. चूंकि मेनका गांधी सांसद और केंद्र में मंत्री हैं इसलिए वरुण गांधी को कोई बड़ी जिम्मेदारी देने का सवाल नहीं.’ और बड़ा सवाल किसानों को चेक बांटने पर भी उठ रहा है. बीजेपी ने वरुण गांधी को साफ कर दिया है कि वरुण सुल्तानपुर के अपने संसदीय क्षेत्र में जितना चाहें उतना चेक बांटें लेकिन किसी दूसरे सांसद के क्षेत्र में या किसी दूसरे जिले में वो दौरा कर चेक बांटेंगे तो उन्हें पार्टी को पहले सूचित करना होगा, पार्टी कार्यक्रम तय करेगी तभी उन्हें दूसरे क्षेत्र में दौरा करना चाहिए.

क्या बीजेपी के इस अनुशासन को वरुण गांधी मानेंगे? वरुण गांधी समर्थक कहते हैं कि ‘वरुण गांधी खुद में ब्रांड हैं, इस ब्रांड को बीजेपी यूपी में सत्ता पाने का औजार न बनाकर गलती कर रही है. वरुण गांधी को तो कोई नुकसान नहीं होगा लेकिन 2017 के चुनाव में बीजेपी की लुटिया डुबने का खतरा जरुर खड़ा हो गया है.’ यानी बीजेपी और वरुण गांधी के बीच रिश्तों में खटास का दौर शुरु हो चुका है, ठीक उसी तरह से जैसे कभी यूपी में कल्याण सिंह और बीजेपी आलाकमान के बीच सियासी जंग चली. उसी का नतीजा ये निकला कि बीजेपी का पैर कल्याण सिंह के बीजेपी से हट जाने के बाद फिर यूपी में नहीं जम सके. सवाल है कि क्या इस बार भी वैसा ही होगा जबकि यूपी में बीजेपी अपने सियासी दौर का सबसे शानदार प्रदर्शनकर 73 सीटों के बूते नरेंद्र मोदी के प्रचंड बहुमत की बड़ी लकीर खींच चुकी है. क्या वरुण गांधी के बगैर यूपी में बीजेपी की जीत का ये सिलसिला 2017 में भी जारी रहेगा या फिर बिहार के ‘शत्रु’ की तर्ज पर वरुण बीजेपी को यूपी में रुग्ण कर देंगे?

लेखक

राकेश उपाध्याय राकेश उपाध्याय @rakesh.upadhyay.1840

लेखक भारत अध्ययन केंद्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं

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