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Updated: 26 अक्टूबर, 2016 10:04 PM
अशोक उपाध्याय
अशोक उपाध्याय
  @ashok.upadhyay.12
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मुलायम सिंह यादव के परिवार में चल रहे महाभारत से अगर सबसे बड़ा नुकसान किसी को हुआ है तो वो है समाजवादी पार्टी को. आपसी लड़ाई के चलते इसके नेता एक दूसरे की पोल खोल कर रहे हैं. लोगों में ये मैसेज जा रहा है की ये जर्जर पार्टी भाजपा से लड़ने में समर्थ नहीं है. पर ऐसा नहीं है की इससे पार्टी के हर सदस्य को घाटा ही हुआ है.  इस लड़ाई से अगर किसी को सबसे ज्यादा फायदा हुआ है तो वो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव हैं.

उनका उदय उत्तर प्रदेश के नीतीश कुमार के रुप में हुआ है, यानि कि एक ऐसा नेता जो काम करना चाहता है, जो विकास करना चाहता है और जो सत्ता के लिए अपराधियों से साठगांठ को प्राथमिकता नहीं देता है.

नीतीश की तरह अखिलेश पर भी सत्ता में रहने के बावजूद, उनके व्यक्तिव पर भ्रष्टाचार का छिंटा नहीं पड़ा है. नीतीश कुमार भ्रष्टाचार  में अपराधी ठहराये गए लालू यादव की पार्टी के साथ सरकार चला रहे हैं फिर भी उनके व्यक्तिगत स्वच्छ छवि पर आंच नहीं आयी है. यही कारण  है की लालू के पास उनसे ज्यादा विधायक हैं फिर भी मजबूरन उनको नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा.

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 कुर्सी पर बैठकर जनता से बन रहा मजबूत रिश्ता

ठीक उसी तरह अखिलेश यादव के परिवार के विभिन्न लोगों पर अनेक आरोप लगे पर उन्होंने इसकी आंच खुद पर नहीं लगने दी. आय से अधिक आमदनी के एक केस में अखिलेश का भी नाम है.  पर ये केस उनके मुख्यमंत्री बनने से पहले का है और इसका शायद ही कोई असर उनकी छवि पर पड़ा है.

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अखिलेश की इस छवि का आधार तब पड़ा जब 2012 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने  पश्चिमी यूपी के बड़े माफिया डीपी यादव को पार्टी में शामिल करने का खुले तौर पर विरोध किया था. अखिलेश के विरोध की वजह से डीपी यादव की सपा में एंट्री नहीं हो सकी थी. अब जब शिवपाल यादव ने कौमी एकता दल का सपा में विलय कराया तो मुख्यमंत्री ने न केवल इसका जमकर विरोध किया बल्कि इसको रद्द करवा दिया. मंत्री बलराम यादव, जो इस विलय में महत्वपूर्ण रोल अदा कर रहे थे, उनको मंत्रिपरिषद से हटा दिया. हालाँकि उनको अपने पिता एवं चाचा के दबाव पर दोनों ही निर्णय को स्वीकार करना पड़ा. उसी तरह उन्होंने विवादित मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति  और राजकिशोर सिंह को भी बर्खास्त कर दिया, पर दबाब में फिर से उनको मंत्री बनाना पड़ा. हालाँकि इन सभी मामलों में वो हार गए पर जनता के बीच ये सन्देश गया की मुख्यमंत्री इन दागी लोगों से निजात पाना चाहते हैं पर उनकी पार्टी ऐसा होने नहीं देना चाहती है.

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 ऐसी मुलाकातों ने नीतीश को लालू से अलग किया

हालांकि ऐसा नहीं है की नीतीश कुमार ने अपराधी प्रविर्ती के लोगों का सानिध्य नहीं रखा.  अनंत सिंह, सुनील पांडे, धूमल सिंह जैसे अपराधिक इतिहास वाले विधायक उनके साथ रहे और उन्होंने उनका भरपूर इस्तेमाल भी किया. इसके बावजूद आज भी जनता के बीच उनकी छवि स्वच्छ है. आज भी उनकी बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार्यता शायद अन्य बिहारी नेताओं से ज्यादा है. जातिवाद से बटे हुए बिहार में उनकी अपील लगभग समाज के हर वर्ग में है. लगभग हर सर्वे में ये बात सामने आती है की भाजपा के भी बहुत सारे वोटर बतौर मुख्यमंत्री नीतीश को पसंद करते हैं.

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ठीक उसी तरह से अखिलेश के मंत्रिपरिषद में बाहुबली विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया रहे और उनकी छवि धूमिल नहीं हुई. हाल के विवाद से उनकी छवि पर और चार चाँद लग गए है. आज उत्तर प्रदेश में समाज के हर वर्ग में उनके लिए सहानुभूति है. परंपरागत रूप से स्वर्ण मतदाता उनके साथ नहीं रहे हैं पर अखिलेश के लिए उनके मन ने भी थोड़ी सहानुभूति जरूर पैदा हुई है.

अब भले ही ये सहानुभूति फिलहाल वोट में तब्दील न हो पर  उनके लंबे राजनीतिक सफर में कभी न कभी यह उनके पक्ष में जायेगा. जिस तरह लालू प्रसाद यादव से अलग रहते हुए नीतीश कुमार ने बिहार में अपनी स्वीकार्यता को मजबूत किया है ठीक उसी तरह अखिलेश यादव से भी उम्मीद है कि वह खुद को समाजवादी पार्टी की खामियों से अलग रखें क्योंकि इससे उनकी स्वीकार्यता में भी इजाफा होगा. लिहाजा, वह अपनी बढ़ती हुई स्वीकार्यता, विकास कार्यों और  स्वच्छ छवि  के साथ निश्चित रूप में उत्तर प्रदेश के नीतीश कुमार बनकर उभरे हैं.

लेखक

अशोक उपाध्याय अशोक उपाध्याय @ashok.upadhyay.12

लेखक इंडिया टुडे चैनल में एडिटर हैं.

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