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Updated: 06 अगस्त, 2015 07:06 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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मौन एक रहस्य है. रहस्य की अपनी ताकत होती है. ताकत जब तक रहस्य बनी रहती है तब तक उसका अंदाजा लगाना मुश्किल होता है. जब रहस्य से पर्दा उठता है तो सच सामने आता है.

'महाभारत' में आंखें बंद रही होंगी, 'नया-भारत' में जबान बंद रखने का फैशन है.

हंगामे और शोर में मौन टूटता भी है तो पता नहीं चलता. जब पता चलता है तो सिवा हैरानी के कुछ हाथ नहीं आता.

ये नए दौर की सियासत है. इसकी दास्तां इतनी अजीब है कि कहां शुरू होती है, कहां खत्म? अंदाजा भी नहीं लगता.

मौनमोहन मोदी

मनमोहन सिंह ने मौन की ताकत के वक्त रहते समझ लिया था. तब तक मौन नहीं तोड़े जब तक कि 'मौनमोहन' का खिताब न मिला. जब मौन तोड़ा तो उसमें भी गुगली लपेट दी, "हज़ारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी."

मोदी के शपथ लेते ही चैनलों पर टू विंडो बना. स्लग दिया गया - 'बोलता प्रधानमंत्री'. विंडो में एक तरफ थे मोदी तो दूसरी तरफ मनमोहन. 'द ग्रेट कॉन्ट्रास्ट.' दिन बीते. महीने बीते. साल भी बीत ही गया. कुछ ही दिन और बीते होंगे...

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ब्रेक के बाद, फिर से घोटालों ने दस्तक दी. एक के बाद एक. एक, दो, तीन... दिल्ली से भोपाल तक वाया जयपुर.

एक ही ललित ग्रह ने राहु-केतु जैसा डबल बेनिफिट उठाते हुए दिल्ली और जयपुर पर पूर्ण दृष्टि लगाई. उधर, व्यापम उछल उछल कर ड्रैकुला और एनाकोंडा को पीछे छोड़ने लगा.

व्यापम ने तो सुरसा को भी पीछे छोड़ दिया. कोई चकमा देकर भी निकल न पाए, एग्जिट से ऐन पहले ही उसने अपने जबड़े भींच लिए. सारा कुछ नैचुरली नजर आया.

अच्छे दिन आएंगे. पर इतने अच्छे! उम्मीद तो उन्होंने भी नहीं की होगी. खामोशी को अख्तियार करना पड़ा. ताकत संचित करने का हथियार बनाना पड़ा.

कहां गए साहेब? ये 'मौनमोहन मोदी' कैसे हो गए?

यू ट्यूब पर पुराने वीडियो कुलांचे भर रहे थे. सबूत वायरल होने लगे. आप तो ऐसे न थे.

मौन टूटना था, मगर...

हंगामा जारी था. हंगामे शंखध्वनि का रूप ले चुके थे. मौका और दस्तूर, दोनों का पूरा फायदा उठाते हुए युधिष्ठिर (FTTI वाले नहीं) ने अचानक घोषणा पत्र बांच डाली:

"सेवा में सविनय निवेदन के साथ सर्व साधारण को सूचित किया जाता है कि सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह ने अपने अपने इस्तीफे सौंप दिये हैं. औपचारिक आवश्यकताएं भी पूरी कर ली गई हैं."

झट से एक दूत दौड़ा और लीडर ऑफ अपोजिशन (अनौपचारिक भूमिका में, क्योंकि ये पद तो योजना आयोग से पहले ही खत्म हो चुका था) के दफ्तरी से कॉपी रिसीव करा कर लौट भी आया. जिसे देखना था उसे दिखा भी नहीं और जिसे दिखा उसके देखने का कोई मतलब भी न था.

हर कोई हतप्रभ था. हैरान था. "ये हो क्या रेया है?"

'राजनीति'

'बोले तो...'

'शह... शह बचाइए. आपकी कोई चाल नहीं बची.'

'इट्स ओके. कॉन्ग्रैट्स!'

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बधाइयों का नया दौर शुरू हो गया था. नई जिम्मेदारियों के लिए तीनों सरकारी आवासों पर बधाई देने वालों का तांता लगा हुआ था.

वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह केंद्रीय मंत्रिमंडल के लिए शपथ की तैयारी कर रहे थे, सुषमा स्वराज मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने भोपाल रवाना हो चुकी थीं.

भूगोल बदल चुका था. इतिहास दोहरा रहा था.

मौन टूट चुका था. रहस्य पर पड़ा पर्दा हट चुका था.

सियासत की नई स्ट्रैटेजी पर माथा पच्ची शुरू हो चुकी थी. नए सेशन के लिए.

...और डीएनए टेस्ट

दिन के बाद रात. और रात के बाद फिर से सुबह.

राहु के बाद केतु की महादशा के बीच बृहस्पति, शनि और बुध की महादशा - और फिर शुक्र, सूर्य, चंद्रमा और मंगल के बाद फिर से राहुकाल.

समय का चक्र एक सतत और शाश्वत प्रक्रिया है.

मौन को भी टूटना ही था.

कोई मौन चिंतन के लिए छुट्टी पर चला जाता है तो कोई काम करते हुए. ये तो अपनी अपनी स्टाइल है.

मौन में मंथन चलता है. मौन टूटता है तो कोई जहर पीता है. कोई खून के घूंट. तो कोई आस्तीन चढ़ाते हुए पदयात्रा पर निकल जाता है.

डीएनए टेस्ट का दौर भी आता है.

एक रैली में डीएनए विस्फोट होता है.

'आगे की थाली छीन ली. ये उनके डीएनए में है.'

पहले एक रैली होती है. फिर एक चिट्ठी आती है.

'डीएनए टेस्ट रिपोर्ट जनता देगी.'

कुछ रैलियां और होने वाली हैं. कुछ और चिट्ठियां आनेवाली हैं.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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